बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षाएं न थोपें
मौजूदा दौर की गलाकाट प्रतिस्पर्धा और माता-पिता की असीमित अपेक्षाओं के कारण बच्चों को भारी मानसिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां बच्चे परिवार, स्कूल और कोचिंग में तारतम्य स्थापित नहीं कर पाते हैं और तनाव का शिकार हो जाते हैं.
मेरा मानना है कि आत्महत्या से बड़ी दुखद घटना कोई नहीं है. पिछले कुछ समय में दो राज्यों राजस्थान और तमिलनाडु से छात्रों के आत्महत्या करने की कई घटनाएं सामने आयी हैं. किसी भी छात्र की मौत उसके माता-पिता, समाज और देश के लिए बहुत बड़ा नुकसान है, जिसकी भरपाई संभव नहीं है. हम सब जानते हैं कि हर साल लाखों बच्चे डॉक्टर-इंजीनियर बनने का सपना लेकर राजस्थान के कोटा शहर आते हैं. अन्य राज्यों के अलावा इसमें बिहार और झारखंड के बच्चों की बड़ी संख्या होती है.
इन बच्चों में से कुछ का सपना पूरा हो पाता है और कुछ का नहीं, लेकिन हाल में अत्यंत चिंताजनक खबरें सामने आयीं हैं कि कोटा में पिछले आठ महीनों में 21 छात्रों ने आत्महत्या कर ली. इस मामले की गंभीरता के मद्देनजर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने हाल में कोटा के कोचिंग संचालकों के साथ बैठक की. मुख्यमंत्री गहलोत ने इस मामले में एक कमेटी गठित कर 15 दिनों के भीतर रिपोर्ट पेश करने का आदेश दिये हैं. बैठक के दौरान मुख्यमंत्री ने कहा कि 9वीं और 10वीं के छात्रों को यहां पर दाखिला देना अपराध है.
इसमें छात्रों के माता-पिता की भी गलती है. 9वीं और 10वीं के छात्रों पर दोहरा दबाव बन जाता है. उन्हें क्लास में भी पास होना होता है और साथ ही प्रवेश परीक्षा का भी दबाव होता है. ऐसे बच्चों की उम्र इस दबाव को झेलने लायक नहीं होती. कोटा प्रशासन ने फंदे से लटक कर जान देने पर रोक के लिए छात्रावासों में सीलिंग पंखों में एक स्प्रिंग उपकरण लगाने का आदेश दिया है. इसमें ऐसा उपकरण भी लगा होगा, जिससे सायरन भी बज उठेगा, पर ऐसे उपाय कितने कारगर होंगे, कहना मुश्किल होगा.
ऐसा नहीं है कि केवल कोटा से ही ऐसी दुखद खबरें सामने आयी हों. तमिलनाडु में नीट की परीक्षा देने और सरकारी मेडिकल कॉलेज में सीट न मिलने पर कई छात्रों ने आत्महत्या कर ली, लेकिन हाल में एक बहुत दुखद घटना सामने आयी है. वहां छात्र के आत्महत्या करने के बाद उसके पिता ने भी जान दे दी. यह इस तरह की पहली घटना थी. चेन्नई के एक शख्स का इकलौता बेटा पिछले दो सालों से नीट की परीक्षा दे रहा था, लेकिन उनका स्कोर सरकारी कॉलेज में प्रवेश पाने के लिए पर्याप्त नहीं था.
पिता ने बेटे को एक बार फिर परीक्षा देने के लिए प्रेरित किया और एक कोचिंग सेंटर में दाखिला करा दिया. वे फीस भी भर चुके थे, लेकिन बेटे ने आत्महत्या कर ली. पिता को बड़ा झटका लगा. बेटे के अंतिम संस्कार के बाद, जब परिवारजन और दोस्त चले गये, तो उन्होंने भी आत्महत्या कर ली. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने तो नीट को समाप्त करवा देने की घोषणा कर दी है. इसको लेकर उनमें और राज्यपाल आरएन रवि में तकरार भी चल रही है.
तमिलनाडु सरकार एक विधेयक ले आयी है, जिसमें कहा गया है कि नीट को राज्य से समाप्त कर दिया जाए. यह विधेयक राष्ट्रपति के पास अनुमति के लिए लंबित है. इस बीच राज्यपाल रवि ने कहा था कि अगर मेरे पास अधिकार होता, तो मैं नीट को तमिलनाडु में समाप्त करने की कभी अनुमति नहीं देता. मुख्यमंत्री स्टालिन ने राज्यपाल के बयान को गैरजिम्मेदाराना बताया और कहा कि इससे हमारे पिछले सात साल से चले आ रहे नीट विरोधी आंदोलन को ठेस पहुंची है.
ऐसा नहीं है कि आत्महत्या की घटनाएं पहली बार सामने आयी हों. जब बिहार, झारखंड, सीबीएसइ और आइसीएसइ बोर्ड के नतीजे आते हैं, तो साथ ही कई बच्चों के आत्महत्या करने की दुखद खबरें भी आती हैं. ऐसी खबरें साल-दर-साल आ रही हैं. दुर्भाग्य यह है कि अब ऐसी खबरें हमें ज्यादा विचलित नहीं करती हैं. कुछ दिन चर्चा होकर बात खत्म हो जाती है. गंभीर होती इस समस्या का कोई हल निकलता नजर नहीं आ रहा है.
किसी बच्चे के नंबर कम आने पर घरवालों ने डांटा और उसने बिल्डिंग की ऊपरी मंजिल से छलांग लगा दी़. एक बेटी ने खराब नतीजे आने के बाद खुद को कमरे में बंद कर लिया और दुपट्टे से फांसी लगा ली, तो किसी बच्चे ने रेलवे ट्रैक पर आत्महत्या कर ली. लगभग हर राज्य से ऐसी दुखद सूचनाएं सामने आती हैं. इन घटनाओं का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं, ताकि हमें स्थिति की गंभीरता का अंदाज लग सके.
अंकों का दबाव बच्चे इसलिए भी महसूस कर रहे हैं, क्योंकि हमारे बोर्ड एक अनावश्यक प्रतिस्पर्धा को जन्म देते जा रहे हैं. एक बोर्ड में बच्चों के 500 में 500 अंक आ रहे हैं, तो दूसरे बोर्ड में 500 में 499 अंक लाने वालों बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है. दरअसल, मौजूदा दौर की गलाकाट प्रतिस्पर्धा और माता-पिता की असीमित अपेक्षाओं के कारण बच्चों को भारी मानसिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है. दूसरी ओर माता-पिता के साथ संवादहीनता बढ़ रही है.
ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां बच्चे परिवार, स्कूल और कोचिंग में तारतम्य स्थापित नहीं कर पाते और तनाव का शिकार हो जाते हैं. हमारी व्यवस्था ने उनके जीवन में अब सिर्फ पढ़ाई को ही रख छोड़ा है. यह सच है कि शिक्षा और रोजगार का चोली-दामन का साथ है. यही वजह है कि माता-पिता बच्चों की शिक्षा को लेकर जरूरत से ज्यादा महत्वाकांक्षी होते जा रहे हैं. वे चाहते हैं कि उनका बच्चा हर परीक्षा में अव्वल आए. यहां तक कि वे बच्चों की शिक्षा के लिए अपनी पूरी जमा पूंजी लगा देने को तैयार रहते हैं.
बच्चों की बढ़ती आत्महत्या भारतीय शिक्षा प्रणाली पर भी सवाल खड़े करती है. इसका दूसरा पहलू यह है कि माता-पिता के पास वक्त नहीं है. जहां माता-पिता दोनों नौकरीपेशा है, वहां संवादहीनता की स्थिति और गंभीर है. एक और वजह यह है कि परंपरागत संयुक्त परिवार का ताना बाना टूटता जा रहा है.
परिवार एकाकी हो गये हैं और नयी व्यवस्था में बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी का सहारा नहीं मिल पाता है, जबकि कठिन वक्त में उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है. यही वजह है कि अनेक बच्चे अतिरेक कदम उठा लेते हैं. परीक्षा परिणामों के बाद हर साल अखबार मुहिम चलाते हैं. बोर्ड और सामाजिक संगठन हेल्पलाइन चलाते हैं. लेकिन छात्र छात्राओं की आत्महत्या के मामले रुक नहीं रहे हैं. जाहिर है कि ये प्रयास नाकाफी हैं. बच्चे संघर्ष करने के बजाए हार मान कर आत्महत्या का रास्ता चुन ले रहे हैं. यह चिंताजनक स्थिति है.