आप इंटरनेट का इस्तेमाल बिना गूगल के नहीं कर सकते. यह इंटरनेट का ऑक्सीजन है. यह एक कंपनी का नाम है, पर अंग्रेजी और कई अन्य भाषाओं में क्रिया बन गया है. इसके हर उत्पाद, जैसे- सर्च, ईमेल, वीडियो भंडार, स्टोरेज, मोबाइल फोन के ऑपरेटिंग सिस्टम, मैप और नेविगेशन तथा हाल में आये पेमेंट आदि, के कम से कम एक अरब यूजर हैं. यह सब उत्पाद मुफ्त हैं. स्टोरेज के लिए अतिरिक्त जगह लेने पर आपको मामूली भुगतान करना होता है.
यह कंपनी स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के दो छात्रों के शोध से निकली है. मूल रूप से यह सर्च और इंडेक्स सेवा है, जो बेहद सक्षम है. गूगल के पास इंटरनेट के 50 अरब से अधिक पन्नों का इंडेक्स है और इसमें लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है. कई देशों में कुल सर्च का 90 से 95 फीसदी गूगल से ही होता है. दुनियाभर में हर मिनट 25 लाख से ज्यादा सर्च होते हैं. इनके तुरंत मिलने वाले नतीजे भी मुफ्त होते हैं. लोगों को इन सर्च पर भरोसा होता है और वे इसके आधार पर निर्णय भी लेते हैं.
गूगल का एक आदर्श- बुरा मत बनो- है, जो शेयर मार्केट में आने के समय उसके प्रस्ताव में भी उल्लिखित था. इससे कंपनी का आशय यह था कि वह अपने यूजर का भरोसा कभी नहीं तोड़ेगी. वह केवल संबंधित परिणाम दिखायेगी, कभी बेमतलब विज्ञापनों से लोगों को परेशान नहीं करेगी और सर्च नतीजों को कभी नहीं बेचेगी. वह कभी भी अपने यूजर के भरोसे का सौदा नहीं करेगी. इस कंपनी की कीमत आज 1.5 ट्रिलियन डॉलर है और यह दुनिया की पांच सबसे बड़ी कंपनियों में है.
शेयर बाजार में इसे आये हुए बस 18 साल ही हुए हैं. अगर यूजर कंपनी की सेवाओं के लिए भुगतान नहीं करते, तो फिर कंपनी हर साल लगभग 185 अरब डॉलर कैसे कमाती है? इसका उत्तर है- विज्ञापनों से. यह दुनिया की सबसे बड़ी ऑनलाइन विज्ञापन बेचने वाली कंपनी है और इससे वह 150 अरब डॉलर कमाती है. यह यूजर की ‘पुतलियां’ विज्ञापनदाताओं को बेचती है.
चूंकि यूजर अपनी मर्जी से और मुफ्त में सेवाएं लेते हैं, तो उन्हें यह खराब भी नहीं लगता तथा उन्हें यह भरोसा रहता है कि कंपनी उनकी सूचनाओं को नहीं बेचेगी, बस विज्ञापन दिखायेगी. इस प्रकार इस भीमकाय उदार कंपनी को यूजर सबसे अधिक पसंद करते हैं तथा उस पर आमेजन और फेसबुक से अधिक भरोसा करते हैं.
लेकिन इसकी विशालता और व्यापकता अब चिंताजनक होने लगी है. हम इंटरनेट पर जो भी करते हैं, वह इसी के जरिये करते हैं, इसलिए इस पर नियामकों की नजर है. लोकसेवा परीक्षाओं के अभ्यर्थी भी गूगल के बिना काम नहीं चला सकते. यही हाल लेखकों, कलाकारों और नौकरशाहों का भी है. तो क्या पानी और बिजली की तरह गूगल का भी एक उपयोगिता की तरह नियमन होना चाहिए? चूंकि कई देशों में इंटरनेट को नागरिक अधिकार मान लिया गया है, तो गूगल सर्च पर भी पेयजल की तरह नियमन होना चाहिए.
इसका असर लोक कल्याण पर होता है. यह भेदभाव से मुक्त रहना चाहिए और इससे किसी को बहिष्कृत नहीं किया जाना चाहिए. नीति-निर्माता कंपनी के विशाल आकार से भी चिंतित हैं. इस वर्चस्व का दुरुपयोग हो सकता है और इससे प्रतिस्पर्धा बाधित हो सकती है. क्या कंपनी एकाधिकारवादी रवैया अपना रही है, वेंडरों पर बेजा दबाव बना रही है या भावी प्रतिस्पर्धियों का गला घोंट रही है? ऐसी शिकायतें बढ़ती जा रही हैं.
इनमें से कई वर्चस्व के दुरुपयोग की हैं, जिन्हें अमेरिकी कानून में ट्रस्ट विरोधी उल्लंघन कहा जाता है. वर्ष 2018 में यूरोपीय संघ के प्रतिस्पर्धा नियामक ने पाया था कि एंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम पर बड़े मार्केट शेयर का उपयोग कर गूगल फोन बनाने वालों को क्रोम को बुनियादी ब्राउजर बनाने के लिए मजबूर कर रहा है और अन्य ब्राउजरों की प्रतिस्पर्धा को खत्म कर रहा है. गूगल ने अपने अन्य उत्पादों को भी फोन में देने के लिए दबाव बनाया था. इसे कानूनों का उल्लंघन माना गया और गूगल पर 4.34 अरब यूरो का अर्थदंड लगाया गया, जो उस समय तक गूगल (अल्फाबेट) पर लगाया गया सबसे अधिक जुर्माना था.
कंपनी ने इस फैसले के विरुद्ध अपील की, लेकिन आम अदालत में चार साल बाद मुकदमा हार गयी. अब वह यूरोपीय संघ के सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकती है, पर फैसला पलटने की संभावना बहुत कम है. गूगल का कहना है कि एंड्रॉयड मुफ्त है और यूजर अपनी पसंद से फोन और सेवा को चुन सकता है तथा एप को भी हटा सकता है. एप्पल के ऑपरेटिंग सिस्टम के उलट एंड्रॉयड ओपेन सोर्स सिस्टम है.
लेकिन अदालत ने इस दलील को नकार दिया और कहा कि एप्पल का कारोबारी तरीका अलग है क्योंकि वह महंगी मोबाइल डिवाइस बेचता है, पर गूगल मुफ्त ऑपरेटिंग सिस्टम देकर अपने यूजर की संख्या बढ़ाने के कारोबार में है, जिन्हें वह अपने विज्ञापन बेचता है. इसके बाद अब भारत के प्रतिस्पर्धा आयोग ने भी गूगल की खिंचाई की है और उस पर 2265 करोड़ रुपये का भारी जुर्माना लगाया है.
आयोग कारोबारी प्रतिस्पर्धा से जुड़े आयामों पर निगरानी करने वाली संस्था है. यहां भी कमोबेश वही आरोप हैं, जो यूरोपीय संघ ने गूगल पर लगाया है, कि गूगल अपने वर्चस्व का तथा एंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम में बहुत बड़े मार्केट शेयर (लगभग 90 प्रतिशत) का दुरुपयोग कर रहा है. यह मोबाइल निर्माताओं को अन्य ब्राउजर और एप लगाने से रोक रहा था तथा इस प्रकार प्रतिस्पर्धा को बाधित कर रहा था.
दिलचस्प है कि आयोग का फैसला किसी शिकायत पर नहीं, बल्कि तीन छात्रों के एक प्रोजेक्ट के आधार पर आया है. इन छात्रों ने यूरोपीय संघ के मामले तथा भारत में उसके लागू होने पर रिसर्च किया था. भारत में गूगल पर दूसरा आरोप यह है कि उसने प्ले स्टोर पर केवल गूगल पे से भुगतान की शर्त रखी है. प्रतिस्पर्धा आयोग ने बहुत गहन जांच की है और इस लेख में उसके सभी तकनीकी विवरणों को संक्षेप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है.
गूगल इस फैसले को चुनौती देने जा रहा है. इसी बीच इन सारी हलचलों के परे परीक्षार्थी, ऑनलाइन खरीदार, देर रात तक वीडियो देखने वाले आदि खुशी-खुशी गूगल का इस्तेमाल कर रहे हैं. वे नियामकों और बड़ी टेक कंपनी के बीच की तनातनी से बेपरवाह हैं. समय आ गया है कि गूगल अपने आदर्श वाक्य- बुरा मत बनो- को बदलकर इसे कुछ इस तरह कर दे- सही काम करो.