चिकित्सक अक्सर सलाह देते रहते हैं कि अपने मन से दवाएं नहीं लेनी चाहिए, फिर भी हमारे देश में खुद ही अपना इलाज करने का चलन थम नहीं रहा है. लांसेट द्वारा कराये गये पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया और अमेरिका के बोस्टन यूनिवर्सिटी के संयुक्त अध्ययन में पाया गया है कि भारत में लोग डॉक्टर से परामर्श किये बिना एंटीबायोटिक्स दवाओं का बेतहाशा सेवन कर रहे हैं. ये दवाइयां स्वास्थ्य पर खराब असर कर सकती हैं तथा बीमारी को ठीक करने के बजाय बढ़ा सकती हैं.
ऐसे अनुचित इस्तेमाल का एक गंभीर दुष्परिणाम यह हो रहा है कि हमारे देश में एंटीबायोटिक्स दवाओं के प्रति प्रतिरोध बढ़ता जा रहा है. इसका अर्थ यह है कि मनमाने ढंग से अगर हम इन दवाओं को लेते हैं, तो धीरे-धीरे हमारा शरीर उनका आदी हो जाता है और कुछ समय के बाद जब हमें सही में इन्हें लेना पड़ता है, तब उनका असर ही नहीं होता. अन्य अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि कई बार डॉक्टर भी एंटीबायोटिक्स की अधिक खुराक देते हैं.
उल्लेखनीय है कि भारत में सबसे अधिक इन दवाओं की खपत होती है, फिर भी इनके इस्तेमाल पर निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है. यूरोप और अमेरिका में ऐसी प्रणाली है, जो दवाओं के उपयोग पर निगाह रखती है. ऐसी निगरानी इसलिए भी आवश्यक है कि भारत उन कुछ देशों में शामिल है, जहां बीते सालों में एंटीबायोटिक्स के उपभोग में बहुत अधिक बढ़ोतरी हुई है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन और भारत में सक्रिय विभिन्न संगठनों की लंबे समय से मांग रही है कि आवश्यक दवाओं की ठोस सूची बने तथा उनकी खुदरा बिक्री पर ठीक से नियमन हो. हालांकि नियम तो यह है कि कोई भी दवा दुकान बिना डॉक्टर की पर्ची के ऐसी दवाएं नहीं बेच सकता है, जिनको लेना बीमार को मुश्किल में डाल सकता है या उस दवा का कोई गलत इस्तेमाल किया जा सकता है, पर ऐसे नियमों की परवाह न तो विक्रेता करते हैं और न ही ग्राहक.
दवा बाजार में निर्धारित खुराक वाली कॉम्बिनेशन दवाओं के वर्चस्व को लेकर संसदीय समिति समेत अनेक शोध समूह चिंता जता चुके हैं. दवा कारोबार में कदाचार और भ्रष्टाचार पर अक्सर चर्चा भी होती रहती है. दवाओं पर निगरानी रखने के लिए केंद्रीय संगठन भी है और राज्यों के स्तर पर भी विभाग बने हुए हैं. इसके बावजूद ऐसी एंटीबायोटिक्स दवाएं भी बाजार में बेची जा रही हैं, जिन्हें मंजूरी भी नहीं मिली है. इस तरह की अन्य दवाएं भी बाजार में हैं.