प्रासंगिक हैं डॉ लोहिया के विचार

डॉ. राम मनोहर लोहिया के दार्शनिक विचारक आज भी प्रासंगिक है. नेहरू जैसे अति लोकप्रिय, संवेदनशील व स्वप्निल नेता और आजादी का संपूर्ण श्रेय लूट चुकी कांग्रेस के राजनीतिक एकाधिकार को तोड़ कर मजबूत व गतिशील लोकतंत्र की आधारशिला रखना कोई आसान चुनौती नहीं थी.

By संपादकीय | October 12, 2020 5:56 AM

रमाशंकर सिंह, पूर्व कुलाधिपति आइटीएम यूनिवर्सिटी

slstrustgwl@gmail.com

डॉ. राम मनोहर लोहिया के दार्शनिक विचारक आज भी प्रासंगिक है. नेहरू जैसे अति लोकप्रिय, संवेदनशील व स्वप्निल नेता और आजादी का संपूर्ण श्रेय लूट चुकी कांग्रेस के राजनीतिक एकाधिकार को तोड़ कर मजबूत व गतिशील लोकतंत्र की आधारशिला रखना कोई आसान चुनौती नहीं थी. तब कोई चारा नहीं था, सिवाय इसके कि छोटे व सीमित प्रभाव के दलों के आपसी तालमेल से बड़ी शक्ति को हराने की योजना बने, जो डॉ लोहिया 1967 में कर पाये. उस तालमेल में कम्युनिस्ट दलों समेत जनसंघ (आज की भाजपा) साथ आये.

उसी साल 57 बरस की उम्र में डॉ लोहिया की मृत्यु हो गयी और समयबद्ध ठोस कार्यक्रमों की सरकारें किसी एक केंद्रीय चुंबक व जोड़क तत्व के अभाव में दिशाहीन होकर मुरझा गयीं. इसी गैर कांग्रेसवाद की रणनीति को जयप्रकाश नारायण ने दस साल बाद 1977 में पुन: सफलतापूर्वक अपनाया, लेकिन सहमति से सिद्धांत, नीति व कार्यक्रम के आधार पर जेपी ठोस बुनियाद नहीं रख पाये और वह प्रयोग पुन: असफल हुआ. स्थिर विकल्प के लिए समयबद्ध ठोस कार्यक्रमों पर प्रतिबद्धता पहले जरूरी है.

तमाम विषयों पर डॉ लोहिया के विचारों को विभिन्न राजनीतिक दलों ने कालांतर में माना और अपनाया, पर श्रेय नहीं दिया. पचास के दशक में कितने ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर डॉ लोहिया ने अपने विचारों को प्रस्तुत किया, जो दशकों बाद भी प्रासंगिक हैं, जैसे- नदियों व तीर्थस्थलों की स्वच्छता, आम भारतीय पर्यटकों के लिए सस्ती अधोसंरचना का विकास, प्रशासन व न्याय कार्य में अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म कर भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहित करना, शिक्षा में भारतीय भाषाओं को माध्यम स्वीकार करना, हिमालय के संपूर्ण क्षेत्र को फलों, सब्जियों व औषधियों का क्षेत्र बना कर संपन्न करना, वास्तुशिल्प की धरोहरों का विकास और उन पर शोध, सच्चाई पर आधारित हिंदू-मुस्लिम एकता, भारत-पाक महासंघ (जिसे आज सभी पड़ोसी देशों के सुरक्षित क्षेत्र के रूप में देखा जा सकता है),

वंचितों-पिछड़ों को साठ प्रतिशत विशेष अवसर, नर-नारी समता, आर्थिक विषमता को घटाते हुए संभव समता पर लाना, अनावश्यक खर्च पर रोक, दामों को बांधने की उचित नीति, जाति विध्वंस, अंतरजातीय व अंतरधार्मिक विवाह को प्रोत्साहन, विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय व सामाजिक रूप से सार्थक शोध को बढ़ावा देना, निजी जीवन में सादगी, अन्याय का प्रतिकार, हर तरह की गुलामी और गैरबराबरी का अंत, सबको समान शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं जैसे कई विषयों पर लोहिया के विचार आज और भी प्रासंगिक हो गये हैं.

विश्व कूटनीति में राष्ट्रीय हितों की सर्वोच्चता और विश्व शांति के लिए परमाणु हथियारों से शुरू कर अंतत: हथियार विहीन समाज का सपना डॉ लोहिया ने देखते थे. वे खुद को सदैव विश्व नागरिक ही मानते रहे और इसलिए अमेरिका में रंगभेद के खिलाफ लड़ते हुए गिरफ्तार हुए. इनमें से ऐसा कौन-सा बिंदु है, जो आज प्रासंगिक नहीं है? लोहिया जी युवक-युवतियों के सहज सरल सखा-सखी भाव के पक्ष में रहे और युवजनों से अपील करते रहे कि जोखिम उठा कर भी वे आनंद के रास्ते पर चलें और आगे बढ़ें.

‘भारत की आदर्श नारी सीता-सावित्री नहीं, द्रौपदी है’ और ‘वायदाखिलाफी व बलात्कार को छोड़ कर मर्द व औरत में हर रिश्ता जायज है’- किस राजनेता की हिम्मत थी कि ऐसी क्रांतिकारी बातें उस युग में कर सके? भारत में बसी घृणित यौन कुंठाओं को नष्ट कर नया, सुंदर, स्वस्थ व प्रेमयुक्त समाज का पूरा ब्लूप्रिंट लोहिया देते थे. राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की वकालत करते हुए डॉ लोहिया ने ‘वाणी स्वातंत्र्य’ और ‘कर्म के नियंत्रण’ का ताबीज दिया था, लेकिन सिद्धांत निष्ठा के दायरे में.

आजाद भारत में मानवाधिकार की पहली लड़ाई उन्होंने ही शुरू की. वे बार-बार तत्कालीन सरकार द्वारा यातनाभरी जेलों में वैसे ही कैद किये जाते रहे, जैसे गुलाम भारत की अंग्रेज सरकार द्वारा. बाहर आकर जेलों में बंद निरपराध गरीबों की आवाज उठाते रहे. उनके ये काम और भावनाएं आज प्रासंगिक हैं. आजादी और मानवाधिकारों की इस लड़ाई को देश की सीमाओं के बाहर भी लड़ते रहे.

सितंबर, 1949 में नेपाल में राजशाही के खात्मे के लिए दिल्ली में नेपाल दूतावास के बाहर प्रदर्शन करते हुए घायल होकर स्वतंत्र भारत की पहली राजनीतिक गिरफ्तारी देने का रिकॉर्ड भी डॉ लोहिया के नाम ही है. साल 1942 में भूमिगत आजाद रेडियो के संचालक के नाते अंग्रेजों ने उन्हें लाहौर किले की उसी बैरक में यातनाएं दी थीं, जहां कभी शहीदे-आजम भगत सिंह कैद थे. वहां से जर्जर शरीर लेकर गोवा स्वास्थ्य लाभ के लिए गये, तो गोवा मुक्ति आंदोलन छेड़ दिया और पुर्तगाली पुलिस के हाथों अपनी गिरफ्तारी दी. आजादी और मानवाधिकार तथा साम्राज्यवाद के विरुद्ध उठ खड़े होने का यह संघर्ष कब अप्रासंगिक हो पायेगा?

( ये लेखक के निजी विचार हैं)

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