24.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

आदिवासी समाज के गांधी थे डॉ रामदयाल मुंडा

डॉ मुंडा जमीन से जुड़े प्रख्यात मानवशास्त्री थे. आदिवासी समुदाय के संघर्षों और चुनौतियों को वह बेहतर ढंग से समझते थे. सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक था कि आदिवासी, मूलवासी एकजुट हों और एक मंच पर आयें.

डॉ अभय सागर मिंज

असिस्टेंट प्रोफेसर, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, रांची

शिक्षण के दौरान एक विद्यार्थी ने पूछा कि गांधीजी की आजादी की लड़ाई में चरखे का क्या काम था. वह शायद जानना चाहता था कि आजादी की लड़ाई बिना युद्ध और हिंसा के कैसे संभव हो पायी. यह एक गंभीर प्रश्न था. और यहीं मुझे डॉ रामदयाल मुंडा याद आ गये. महात्मा गांधी चरखे को प्रतीक बनाकर जन चेतना जगाना चाहते थे. आजादी की लड़ाई में चरखा एक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल हुआ.

डॉ मुंडा जमीन से जुड़े प्रख्यात मानवशास्त्री थे. आदिवासी समुदाय के संघर्षों और चुनौतियों को वह बेहतर ढंग से समझते थे. सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक था कि आदिवासी, मूलवासी एकजुट हों और एक मंच पर आयें. और तब उन्होंने उद्घोष दिया कि ‘जे नाची से बांची’. अनेक लोग उनके इस आंदोलन को मात्र सांस्कृतिक परिधि में रख कर इसे संकीर्ण दृष्टिकोण से देखते हैं. लेकिन, सामाजिक आंदोलन और मौखिक परंपरा पर निर्भर समुदाय की जन चेतना के लिए यह बेहद आवश्यक था.

कम साक्षर और मौखिक परंपरा वाले समाज में उन्होंने ‘नाची से बांची’ को एक प्रतीक के रूप में स्थापित किया. उन्हें पता था कि आदिवासी जीवनशैली में पारंपरिक नृत्य और गीत की सामाजिक सौहार्द और एकता को बनाये रखने में अहम भूमिका होती है. इस सांस्कृतिक अस्तित्व को अक्षुण्ण तो बनाये रखना ही था. इस संदर्भ में ‘आदिवासियों का चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत है’ सामाजिक उत्थान के लिए मात्र अतिशयोक्ति प्रतीत होती है.

डॉ मुंडा एक दूरदर्शी व्यक्ति थे. सांस्कृतिक उलगुलान से वह सामाजिक उत्थान के लिए प्रयासरत थे. दिल्ली में जब वह एम्स में इलाजरत थे, तब मुझे उनसे अनेक आदिवासी विषयों पर चर्चा का अवसर प्राप्त हुआ. उनके समृद्ध ज्ञान, दूरदर्शिता और सकारात्मक सोच ने मुझे हतप्रभ कर दिया था. नृत्य-गीत से सामाजिक उत्थान निश्चित ही एक अनूठी अवधारणा थी. जिन्हें इसकी समझ नहीं थीं उन्होंने उपहास किया.

आदिवासी, मूलवासी को एक मंच पर लाना, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना, मातृभाषा का सम्मान, अपनी आदिवासियत पर अभिमान, विकासशील और शिक्षित समाज का निर्माण इत्यादि लक्ष्यों को उन्होंने एक ही अवधारणा से प्राप्त करने की दूरदर्शिता दिखाई थी और जबरदस्त प्रयास भी किया था. अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय में खुले बदन, पारंपरिक करया (अंग वस्त्र) में अपने अमेरिकी मित्रों के साथ करम सरहुल में साथ आना दर्शात है कि उन्हें अपनी आदिवासी पहचान पर गर्व था.

उनके पुराने साथी मेघनाथ जी ने स्पष्ट किया कि डॉ मुंडा यह समझते थे कि आधुनिक समाज के समक्ष आदिवासी स्वयं को हीन समझता था. किंतु वह समझते थे कि यह हीन भावना आदिवासी समाज पर बाहर से प्रत्यारोपित की गयी है. यह आदिवासी भाषा, संस्कृति, आदिवासी जीवनशैली और समृद्ध जीवन दर्शन को ढक कर या उनका उपहास उड़ा कर थोपी गयी.

और स्थिति ऐसी हो गयी कि लोग अपनी भाषा, संस्कृति को भुलाकर मुख्यधारा में सम्मिलित होने के लिए लालायित होने लगे. ऐसे में यह आवश्यक था कि समुदाय वापस अपनी जड़ों की ओर लौट जाए. और डॉ मुंडा ने इसके लिए ‘अखड़ा’ को सबसे जीवंत स्थल माना. जब डॉ मुंडा कहते थे कि ‘नाची से बांची’, तो इस कथन का भी गूढ़ अर्थ है. नृत्य-गीत वही करता है जो ‘जीवित’ है, जीवंत है. जब तक अपनी परंपरा से जुड़ेंगे नहीं, अपने स्वयं के होने पर गर्व नहीं करेंगे, हमारे समाज का उत्थान संभव नहीं है.

आजादी के अनेक दशकों के बाद भी अन्य समाजों की तुलना में आदिवासी समाज का समग्र विकास बहुत संतोषजनक नहीं है. डॉ मुंडा स्वभाव से सरल, भाषाओं के ज्ञाता, गीत-संगीत प्रेमी, कुशल वक्ता और लेखनी में निपुण थे. परंतु उनकी दो विशेषताओं ने मुझे हमेशा प्रभावित किया. पहला, उनकी पुस्तकों के प्रति रुचि और दूसरा, उनका किसी व्यक्ति विशेष की निंदा नहीं करने का स्वभाव.

आदिवासी समाज के लिए पढ़ना-लिखना बहुत अनिवार्य है. वर्तमान समय में हम अपनी दशा के लिए प्रायः किसी बाह्य कारक को दोष देते रहते हैं. एक विशेष समाज पर दोष मढ़ते हैं कि उन्होंने शिक्षा-दीक्षा का अधिकार प्राचीन समय से अपने पास आरक्षित रखा. मगर आज आदिवासी युवाओं से एक सरल सीधा प्रश्न है- कि आज आपको किसने रोका है?

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें