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डॉ राधाकृष्णन: सहजता में गुरुता, शिक्षक दिवस पर पढ़ें कृष्ण प्रताप सिंह का खास लेख

Dr Sarvepalli Radhakrishnan राधाकृष्णन ने उन्हें सम्राट अशोक की कहानी सुनायी. आशय यह था कि अपनी इस मान्यता के गुरूर में फूले-फूले मत फिरिये कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपनी ‘स्मरणांजलि’ नामक कृति में इस प्रसंग का रोचक वर्णन किया है.

Dr Sarvepalli Radhakrishnan : वर्ष 1888 में आज के दिन तमिलनाडु के चित्तूर जिले के तिरूतनी ग्राम में जन्मे देश के दूसरे राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के शिक्षाशास्त्री, दार्शनिक, राजनयिक और राजनेता समेत कई परिचय हैं, पर उनकी हार्दिक इच्छा थी कि इनमें उनका शिक्षक का परिचय सर्वोपरि रहे. इसीलिए उन्होंने इच्छा जतायी थी कि उनका जन्मदिन मनाया जाए, तो शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए. इस अवसर पर उनके व्यक्तित्व की धीरता व गंभीरता की चर्चा तो खूब की जाती है, पर सहजता और हाजिरजवाबी को भुला दिया जाता है, जबकि ये गुण उनके सारे रूपों में समान दिखते हैं, यहां तक कि उनके दार्शनिक रूप में भी. इसे यूं समझ सकते हैं कि दार्शनिकों को आम तौर पर उनकी गंभीरता के लिए जाना जाता है और उसी में उनकी गुरुता को तलाशा जाता है, लेकिन राधाकृष्णन ऐसे ‘गुरु-गंभीर’ दार्शनिक नहीं थे. वे खलील जिब्रान की इस मान्यता में विश्वास रखते थे कि जब ज्ञान इतना घमंडी हो जाए कि रो न सके, इतना गंभीर बन जाए कि हंस न सके और इतना आत्मकेंद्रित हो जाए कि अपने सिवा और किसी की चिंता न करे, तो वह अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक होता है.


यह उनकी सहजता ही थी, जिसके नाते उनका दार्शनिक कह पाया कि मनुष्य की युवावस्था का उसकी उम्र या काल-क्रम से कोई लेना-देना नहीं. वह किसी भी समय उतना ही नौजवान या वृद्ध होता है, जितना महसूस करता है और उसके जीवन में सबसे ज्यादा मायने रखने वाली बात यह है कि वह अपने बारे में क्या सोचता है. वर्ष 1949 में वे भारत के राजदूत बनकर तत्कालीन सोवियत संघ गये, तो वहां के शासन प्रमुख जोसेफ स्टालिन ने लंबे अरसे तक उन्हें मिलने का वक्त ही नहीं दिया. कोई और राजदूत होता, तो परेशान हो जाता और दोनों की जब भी भेंट होती, सहज नहीं रह पाता. एक रात नौ बजे बुलावा आया, तो स्टालिन से नजरें मिलते ही राधाकृष्णन ने उनसे सीधे पूछ लिया कि आखिर आपसे मिलना इतना कठिन क्यों है. स्टालिन इसके अलावा कुछ नहीं कह पाये कि ‘क्या वाकई ऐसा है?’

राधाकृष्णन ने उन्हें सम्राट अशोक की कहानी सुनायी. आशय यह था कि अपनी इस मान्यता के गुरूर में फूले-फूले मत फिरिये कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने अपनी ‘स्मरणांजलि’ नामक कृति में इस प्रसंग का रोचक वर्णन किया है. उनके अनुसार राधाकृष्णन ने स्टालिन को बताया कि हमारे देश में एक अत्याचारी राजा था. उसने भी आप जैसी रक्तभरी राह से ही प्रगति की थी, पर एक (कलिंग के) युद्ध में उसके भीतर ज्ञान जाग गया और उसने धर्म, शांति और अहिंसा की राह पकड़ ली. फिर पूछा कि आप भी उसी रास्ते पर क्यों नहीं आ जाते? बताते हैं कि मुलाकात के बाद स्टालिन ने अपने दुभाषिये से कहा कि ‘ये आदमी राजनीति नहीं जानता, केवल मानवता का भक्त है.’
लेकिन राधाकृष्णन राजनीति भी जानते थे और राजनय भी. साल 1957 में उपराष्ट्रपति के रूप में वे चीन गये, तो उन्होंने पहले तो प्रोटोकॉल तोड़कर चेयरमैन माओ के गाल थपथपा दिये, फिर उन्हें असहज होते देखा, तो कहा कि वे तो स्टालिन और पोप से भी ऐसा अपनापन जता चुके हैं.

जाहिर है कि उनके जीवन में ऊंचाई और गहराई का बेहतरीन समन्वय था, जो उन्हें लगातार शांत व सहज बनाये रखता था. साथ ही, उन चुनौतियों से मुकाबले की शक्ति भी देता था, जो उनके सामने आती रहती थीं. उनकी हाजिरजवाबी इस सहजता से मिलकर लोगों को चकित कर देती थी. एक बार वे एक ऐसे अंग्रेज विद्वान के अतिथि बने, जो खुद को भारतीय जीवन दर्शन से बहुत प्रभावित बताता था, लेकिन अंग्रेज होने के अभिमान से मुक्त नहीं हो पाया था. उसने उन्हें चिढ़ाने के लिए मजाक में कहा, ‘देखिए जरा, ईश्वर भी हम अंग्रेजों पर ही ज्यादा कृपालु है. उसने हमको तो इतना सुंदर रूप प्रदान किया है, लेकिन आप लोगों पर उतनी कृपा नहीं की है.’ पर राधाकृष्णन न क्षुब्ध हुए, न चिढ़े. उन्होंने सहजतापूर्वक कहा, ‘दरअसल, आपको ठीक से मालूम नहीं है. आप अंग्रेज उन रोटियों के समान हैं, जो ईश्वर के बनाते वक्त कच्ची रह गयीं. हम भारतीय उन रोटियों के समान हैं, जो ईश्वर ने ठीक से सेंकीं.’ बेचारे अंग्रेज ने चुप रहना ही बेहतर समझा.
प्रसंगवश, अपने शिक्षक होने पर उन्हें जो स्वाभिमान था, वे उसे परंपरा में बदलना चाहते थे. चाहते थे कि उनकी संतानें भी शिक्षक बनें. उनके बेटे सर्वपल्ली गोपाल शिक्षक ही बने थे. उन्होंने अपने पिता का जीवनवृत्त भी लिखा. राधाकृष्णन की पांच बेटियों की 13 संतानों में सिर्फ दो ही शिक्षक बनीं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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