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भारत की स्त्रीवादी विरासत है द्रौपदी

भारतीय इतिहास, समाज एवं चेतना में पैबस्त द्रौपदी में रहस्यात्मक जटिलता है. वह मानवीय अनुभव की द्वैध प्रतीक है- वह स्त्रैण, करुणामयी और उदार है, पर अपने साथ अनुचित होने पर वह प्रतिरोध की क्षमता भी रखती है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 10, 2024 8:21 AM

प्रो शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित
कुलपति
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली

भारतीय संरचना में नारीवाद उतना ही पुराना है, जितनी पुरानी हमारी सभ्यता है, जिसकी आयु आठ हजार वर्ष की है. मातृ देवी की अवधारणा प्रकृति-केंद्रित ब्रह्मांड में संतुलन एवं साहचर्य को स्थापित करने का लैंगिक विचार है, जो मानव-केंद्रित विश्व में परस्पर विरोध के द्वैध के विपरीत है. ऐसे आख्यानों को बार-बार कहने, उनकी पुनर्कल्पना और पुनर्रचना करने की आवश्यकता है. वे कथाएं और स्त्री चरित्र पितृसत्ता की पीड़िता बन गयीं और उन्हें परंपरा के सुविधाजनक आवरण तक सीमित कर दिया गया और अति प्रतिगामी बना दिया गया. प्रभावशाली व्यक्तिगत कथाओं के बावजूद हमारे पौराणिक आख्यानों के महिला चरित्रों को बहुत हद तक अनदेखा किया गया है. दुर्भाग्य से पौराणिक आख्यानों की पूर्वाग्रहयुक्त व्याख्या ने एक प्रकार से हमारे समाज की स्त्रियों के बारे में हमारी समझ को गढ़ा है.

लेकिन हम उन्हीं कथाओं का उपयोग कर विस्मृत या बिगाड़े गये चरित्रों को पुनः गढ़ सकते हैं और पूर्ववर्ती समझ की आलोचना के लिए उनका रचनात्मक उपयोग कर सकते हैं. दशकों से बहुत से भारतीयों ने पश्चिम से पहचान पाने की कोशिश में अपनी संस्कृति एवं अपने इतिहास को खारिज किया है. इससे ऐतिहासिक विस्मृति उत्पन्न हुई और जान-बूझकर उपेक्षा की स्थिति बनी, जिससे अपने सभ्यतागत अतीत की भारत की समझ पर असर पड़ा. लोगों का शासन होने का विचार या न्याय एवं लैंगिक समानता की अवधारणा केवल पश्चिम के खाते में नहीं है. यह समझ तो और भी दोषपूर्ण है कि पश्चिमी चिंतकों द्वारा इन्हें बताने के पहले दुनिया को इन अवधारणाओं का पता ही नहीं था. भारत एवं अन्य कई सभ्यताओं ने इन अवधारणाओं पर लंबे समय तक विचार किया है तथा इनके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.

भारत के पास नारी शक्ति की समृद्ध परंपरा थी, जिसकी अभिव्यक्ति मेधा एवं साहस तथा व्यवस्था में बुराई व दोष को चुनौती देने के माध्यम से हुई. महाभारत में द्रौपदी (पांचाली) भारतीय इतिहास में एक मौलिक नारीवादी उपस्थिति है, जो अपने सतत प्रतिरोध के लिए प्रसिद्ध है. भारतीय संस्कृति में नारीवाद के और भी उदाहरण हैं. रामायण की सीता में भी स्त्रीवादी आदर्श हैं, जो अधिक महीन हैं. एकल माता के प्रारंभिक उदाहरणों में एक सीता ने पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को चुनौती दी, हालांकि उनके चरित्र को अक्सर अधिक अनुवर्ती दृष्टि से देखा जाता है. प्राचीन भारत में स्त्रियों द्वारा सीमाओं को तोड़ना अपवाद नहीं, बल्कि सामान्य परिघटना थी. इतिहास में स्त्रियों ने गणितज्ञ, दार्शनिक और वैदिक साहित्य की विदुषी के रूप में अपनी छाप छोड़ी है. यह बात इस समझ को चुनौती देती है कि नारीवाद एवं लैंगिक समानता पश्चिम से आयातित हैं. यह कहना निहायत अनुचित है कि भारत ने इन अवधारणाओं को पश्चिम से ग्रहण किया है. सच तो यह है कि भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत में सशक्त महिलाओं की सुदीर्घ परंपरा है, जिन्होंने समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.

भारतीय इतिहास, समाज एवं चेतना में पैबस्त द्रौपदी में रहस्यात्मक जटिलता है. वह मानवीय अनुभव की द्वैध प्रतीक है- वह स्त्रैण, करुणामयी और उदार है, पर अपने साथ अनुचित होने पर वह प्रतिरोध की क्षमता भी रखती है. महाभारत में जो अपमान उसके साथ हुआ, वह हृदयविदारक है. उस परिघटना की गूंज पूरे महाभारत में और बाद में भारतीय समाज और इतिहास में बनी रही. वैसी स्थिति में उसके प्रतिरोध से कुछ निष्कर्ष निकलते हैं. पहला, अपने साथ हुए अन्याय की जो निंदा उन्होंने शब्दों में की है, वह अभूतपूर्व है. राजदरबार में, जहां उसके साथ अन्याय हुआ था, द्रौपदी ने बड़ों एवं दरबारियों के सामने निर्भय होकर उनके उत्तरदायित्व को याद दिलाया, जो चुपचाप बैठे हुए थे. अपने शब्द कौशल से उसने दरबार के लोगों के राजा धृतराष्ट्र और राजकुमार दुर्योधन के प्रति समर्पण को रेखांकित किया तथा उसके बरक्स उनके नैतिक व नीतिगत कर्तव्य को सामने रखा.

उनके अनुचित समर्पण पर द्रौपदी का साहस के साथ प्रश्न उठाना अंधानुकरण पर नैतिकता के महत्व का समयातीत स्मारिका है. दूसरी बात यह कि द्रौपदी के शब्द और कार्य भारतीय संस्कृति एवं समाज का मार्मिक प्रतिबिंब हैं, विशेषकर तब जब समाज अन्यायपूर्ण आचरण के गलत रास्ते पर भटक जाता है. सामाजिक उथल-पुथल के बीच वह अनुचित का साहसी प्रतिकार कर और न्याय की पैरोकारी कर शोधन का प्रतीक बनकर उभरती है. इस प्रकार, केवल पुरुष चरित्र ही समाज में सकारात्मक परिवर्तन के लिए प्रयासरत नहीं थे, बल्कि स्त्रियों ने भी अमूल्य योगदान दिया है. द्रौपदी का अन्याय के सामने चुप रहने से इनकार करना समाज सुधारक के रूप में उनकी भूमिका को रेखांकित करता है, जो अपने समुदाय को सही राह पर अग्रसर करने के लिए समर्पित थी.

तीसरा निष्कर्ष यह है कि द्रौपदी का प्रतिकार व्यक्तिगत परिवेश से परे जाकर व्यापक लैंगिक अनुक्रम को चुनौती देता है. उसका क्रोध, साहस और दृढ़ निश्चय स्त्री के वस्तुकरण के विरुद्ध शक्तिशाली प्रतिरोध हैं. उसने अपनी त्रासदी को नारी शक्ति की अभिव्यक्ति में परिवर्तित कर दिया. अंतिम बात, द्रौपदी की कथा इतिहास और समाज को गढ़ने में स्त्रियों की सक्रिय भूमिका का एक उदाहरण है. उसकी त्रासदी बेहद गंभीर है, उससे महिलाओं के विरुद्ध होने वाले व्यापक अन्यायों पर प्रकाश पड़ता है. अपनी नियति को स्वीकार करने से उसका इनकार लैंगिक समानता का ठोस आह्वान है, जो अन्यों को भी अधिकारों एवं न्याय के लिए प्रेरित करता है. भगवान कृष्ण ने रेखांकित किया है कि द्रौपदी के साथ जो हुआ, उसका दायरा पांडवों की चिंता से कहीं अधिक है.

यह स्त्रियों की व्यापक चिंता और समाज में धर्म को बनाये रखने से जुड़ा हुआ था. समकालीन समाज में द्रौपदी के संघर्ष की गूंज बनी हुई है. द्रौपदी की वास्तविक विरासत का सामना करने से बचने की कोशिश घरेलू हिंसा, अत्याचार और लैंगिक विषमता के गंभीर मुद्दों के समाधान से हिचक को प्रतिबिंबित करता है. यह एक स्त्रीवादी सभ्यता है, जहां स्त्रैण की विजय का उत्सव दशहरे में मनाया जाता है. सबसे शक्तिशाली देवियां ही हैं और पुरुष देवों के नाम उनकी अर्द्धांगिनियों के नाम पर हैं- सीतापति, उमापति और लक्ष्मीपति. द्रौपदी के साहस को रेखांकित कर हम उसकी विरासत का सम्मान कर रहे हैं तथा अधिक समावेशी एवं समतामूलक समाज का रास्ता बेहतर कर रहे हैं. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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