Loading election data...

दशहरा मेला- तब और अब

क्या ही दृश्य होता था. एक तरफ रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद के पुतलों को जलाने की तैयारी है, दूसरी ओर कहीं बाइस्कोप वाला खड़ा है. कहीं फिल्म चल रही है, कहीं कठपुतली तो कहीं रावण वध के अंतिम दृश्य.

By क्षमा शर्मा | October 23, 2023 8:12 AM

अपना देश पर्वों, त्योहारों, उत्सवों और मेलों के लिए जाना जाता है. कभी दशहरा मेला, कभी दिवाली मेला, कभी वसंत मेला, तो कभी होली मेला. उत्तर भारत में नवरात्रि से लेकर दिवाली तक आयोजनों की बहार रहती है. सच तो यह है कि हमारे ग्रामीण समाज में मेले एक-दूसरे से मिलने, रास-रंग, जरूरत की वस्तुओं की खरीददारी और घूमने-फिरने, आनंद मनाने की जगह रहे हैं. वे स्त्रियां जो यों कभी घर से बाहर नहीं निकल सकती थीं, वे मेलों में भारी संख्या में नजर आती थीं. यही उनकी दृश्यमानता होती थी, वरना पुराने जमाने में महिलाएं बाजार में न के बराबर दिखती थीं. इसलिए महिलाओं में मेले के प्रति अति-उत्साह होता था. वे सज-संवरकर, जतन से बचाये पैसे लेकर मेलों में पहुंचती थीं.

जो नहीं जा पाती थीं, वे दूसरों के भाग्य पर दुख मनाती उदास होती थीं. उन दिनों एक गीत बहुत सुनायी देता था- ‘‘चंपा जाये, चमेलीउ जा रही, मैं कैसे रह जाऊंगी, पांच आने की पाव जलेबी बैठ सड़क पर खाऊंगी’’. इस गीत से लगता है कि तब महिलाओं के जीवन में जलेबी एक अनोखी वस्तु थी. जो न हर रोज खायी जा सकती थी, न हर जगह मिलती थी. उसे खाने का मौका मेले में ही सखियों के साथ मिल सकता था. फिर पांच आने यानी चवन्नी में एक आना जोड़ दिया जाये, तो एक पाव यानी ढाई सौ ग्राम जलेबी आ सकती थी. अर्थ यह भी हुआ कि यह उस जमाने की बात है, जब रुपये में 16 आने होते थे और आर्थिकी में दो आने, चार आने का महत्व भी था. उनसे मनपसंद चीजें खरीदी जा सकती थीं. इन दिनों चवन्नी बंद हो चुकी है और अठन्नी भी दिखाई नहीं देती.

तब दशहरे मेले में खाने-पीने की चीजें, कपड़े, खिलौने, सारंगी, धनुष- बाण, गत्ते और लकड़ी की तलवारें, गन्ने, मूंगफली, भुना मक्का, गेहूं, बाजरा, चाट-पकौड़ी, गोलगप्पे आदि खूब मिलते थे. लकड़ी और मिट्टी के खिलौने भी भरपूर होते थे. लकड़ी के खिलौनों में तांगा, इक्का, रिक्शा, बैलगाड़ियां, घुड़सवार बच्चों को खूब पसंद आते थे. मिट्टी के खिलौनों में गुजरिया, बत्तखें, सिपाही, मोर, शेर, घोड़े, बैल तथा ऐसे ही बहुत से खिलौने होते थे. आज ये खिलौने मेलों में नहीं दिखायी देते. इनकी जगह प्लास्टिक और प्लास्टर ऑफ पेरिस के खिलौनों ने ले ली है. मिट्टी और लकड़ी के खिलौने अब पांच सितारा होटलों में लगने वाले मेलों या प्रदर्शनियों में दिखायी देते हैं और बहुत महंगे होते हैं.

हां, रंग-बिरंगे गुब्बारे भी तब खूब खरीदे जाते थे, आज भी खरीदे जाते हैं. आज खाने-पीने की चीजों में नूडल्स, मोमोज, बर्गर आदि की भरमार है. उन दिनों जादू दिखाने वाले भी मेलों में अपने करतब दिखाते थे. तरह-तरह के अन्य खेल, जिनमें इनाम भी होते थे और खेलने वालों को लगता था कि उनका इनाम पक्का है, जबकि इनाम किसी–किसी को ही मिलता था. अब भी कुछेक मेलों में यह खेल दिखता है. पहले कई जगह मेले में गायों, बैलों की प्रतियोगिता भी होती थी. लोग अपने पालतू जानवरों को सजा-धजा कर लाते थे और जानवर इनाम भी पाते थे. आज जैसे ये सब बातें गुजरे जमाने की हो गयी हैं.

क्या ही दृश्य होता था. एक तरफ रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद के पुतलों को जलाने की तैयारी है, दूसरी ओर कहीं बाइस्कोप वाला खड़ा है. कहीं फिल्म चल रही है, कहीं कठपुतली, तो कहीं रावण वध के अंतिम दृश्य. बदले वक्त में गीत-संगीत के लिए शायद ही कोई मेले में जाता है. खरीददारी के लिए सामान चाहिए तो उसके लिए मेले में जाने की क्या जरूरत है, सब तो ऑनलाइन उपलब्ध है. इसी तरह इस दौर में बच्चों की दिलचस्पी मोबाइल गेम्स और तकनीकी दृष्टि से उन्नत खिलौनों में बढ़ गयी है. अब कपड़ों के बने खिलौने भी ज्यादा दिखायी नहीं देते. वैसे भी त्योहारों के दिनों में बाजारों में ही इतनी चहल-पहल और रौनक होती है कि मेले जैसा दृश्य ही नजर आता है. ये बदलाव सिर्फ महानगरों तक ही सीमित नहीं हैं, छोटे शहरों और गांवों तक भी जा पहुंचे हैं.

एक समय में रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण के पुतले किसके सबसे ज्यादा ऊंचे बने, इसकी चर्चा होती थी, लेकिन अब हथेली में समा जाने वाले पुतले भी नजर आते हैं. हां, पहले समय में पटाखों का ऐसा शोर-शराबा और रोशनी की इतनी धूम नजर नहीं आती थी, जो अब आती है. कह सकते हैं कि ऐसा बढ़ती आर्थिकी के कारण हुआ है. पहले समय में कम खर्च और प्रतिष्ठा की बात चलती थी, अब उत्सव, मेले और त्योहार का अर्थ है- ज्यादा से ज्यादा खर्च और दिखावा. मेलों की जो उत्सुकता 60-70 के दशक में हुआ करती थी, वह अब लुप्त-सी हो गयी है. वह उत्साह और मेले के महीनों पहले से उसकी प्रतीक्षा भी नहीं बची है.

सब कुछ तो घर में उपलब्ध है. टीवी पर लगातार मनोरंजन, मोबाइल पर दुनिया की हर सूचना, सोशल मीडिया का असीम संसार. तकनीक ने मनुष्य को अपने में समेट दिया है. लोगों की दिलचस्पी भी उस तरह से मिलने-जुलने में नहीं रही है. ऐसे में मेले में जाना एक रस्म अदायगी भर रह गया है, लेकिन अभी भी पूजा पंडालों या रामलीलाओं के इर्द-गिर्द लगे मेलों की गहमागहमी बिछुड़े बचपन की यादों से जोड़ ही देती है.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं)

Next Article

Exit mobile version