आकार पटेल
लेखक एवं स्तंभकार
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चालू वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही में भारत की आर्थिक वृद्धि दर कुछ और धीमी होकर 4.7 प्रतिशत पर आ गयी है, जो पिछले छह वर्षों में सबसे सुस्त है. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि यह कोई घटिया स्तर न होकर स्थिरता का सूचक है. मतलब यह कि उन्हें संतोष इसका है कि यह दर और भी नीचे नहीं गयी. उनके मंत्रालय के नौकरशाहों ने देश को यह भरोसा दिला दिया है कि हमें जितना नीचे जाना था, हम जा चुके हैं. अब यहां से ऊपर ही ऊपर जाना है.
दुर्भाग्य से यह सही नहीं है. पिछली आठ तिमाहियों के आंकड़े देखें, तो इस वृद्धि दर में उत्तरोत्तर गिरावट ही आती गयी है. वह भी तब, जब हम सरकारी आंकड़ों को ही ले रहे हैं. यह अलग बात है कि सरकार द्वारा मुहैया कराये गये इन आकड़ों को विश्व में कई लोग संदिग्ध मानते हैं. सरकार खुद कहती है कि 2019-20 के पूरे वित्त वर्ष के लिए यह वृद्धि दर पांच प्रतिशत होगी, जिसका अर्थ है कि वित्तमंत्री को अनुमान है कि चालू तिमाही में यह दर 4.6 प्रतिशत से और भी नीचे आ जायेगी.
भारत में औपचारिक क्षेत्र के बाहर के विश्वसनीय आंकड़े हासिल करना कठिन रहा है और पिछले वर्ष औपचारिक क्षेत्र ने मार खायी है. विक्रय तथा मुनाफा दोनों ही लिहाज से इसकी पिछली दो तिमाहियां नकारात्मक वृद्धि की शिकार रही हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र के अनुसार, अक्तूबर-दिसंबर तिमाही में कॉरपोरेट विक्रय में 1.2 प्रतिशत की गिरावट आयी, जबकि उसके पूर्व की तिमाही में वह 2.8 प्रतिशत नीचे आया था. इसी तरह, इस तिमाही में कर-पूर्व मुनाफे में भी 10 प्रतिशत का संकुचन आया, जबकि उसके पहले की तिमाही में वह 60 प्रतिशत नीचे आया था.
इन आकड़ों में कोई भी यह संकेत नहीं देता कि सर्वाधिक बुरी स्थिति पार हो चुकी है. वित्तमंत्री बाकी सबको खुश करने को चाहे जो भी कह लें, स्वयं उनके लिए यह यकीन कर लेना गलत ही होगा कि अब हम यहां से ऊपर ही उठेंगे.
जो अन्य विवरण आये हैं, उनके मुताबिक पिछले वर्ष निवेश -5.2 प्रतिशत था, जबकि पिछली तिमाही में वह -4.2 प्रतिशत के स्तर पर रहा है. सरकार का यह अनुमान है कि इस पूरे वर्ष के दौरान यह ऋणात्मक ही रहेगा, यानी पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष और भी कम राशि निवेशित की जायेगी.
बिजली का उत्पादन भी संकुचित हुआ है और यह इस बात के सबसे सटीक संकेतकों में से एक है कि अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है. चीन की आर्थिक वृद्धि दर की माप हेतु चीनी मंत्री भी इसी तरह घटिया (हालांकि, भारत के आंकड़ों से बेहतर) आंकड़ों की समस्या से जूझते हैं. इसे एक सरल-सुबोध रूप देने के लिए उसके नेताओं में से एक ली के क्यांग ने वृद्धि के आकलन के लिए एक नये तरीके को जन्म दिया, जिसके अंतर्गत केवल तीन आसान आंकड़ों को देखने की जरूरत होती है: रेलवे द्वारा ढोये गये माल की मात्रा, बैंकों से लिये गये ऋण तथा बिजली का उपभोग. भारत इन तीनों पर ही ऋणात्मक स्थिति में है.
विनिर्माण क्षेत्र एक बार फिर संकुचन की चपेट में है, जो अचरज की वजह है, क्योंकि आर्थिक वृद्धि की दिशा में मोदी का प्राथमिक जोर उनके पसंदीदा मिशन ‘मेक इन इंडिया’ पर ही रहा. पर न केवल इसका कोई नतीजा नहीं निकल रहा, बल्कि हमारे जीडीपी के प्रतिशत के रूप में विनिर्माण का हिस्सा वस्तुतः संकुचित ही हो रहा है. बेरोजगारी आठ प्रतिशत के स्तर पर है, जहां वह काफी दिनों से बनी हुई है. सरकार इस संबंध में आंकड़े जारी करने से इनकार करती रही है, क्योंकि वे यह बताते हैं कि इस दिशा में उसका रिकॉर्ड पिछले पांच दशकों में सबसे खराब रहा है.
परिवारों द्वारा घरेलू यात्राओं पर किये गये खर्च के आंकड़े जुटाने फरवरी माह की शुरुआत में हैदराबाद के मुहल्लों में गये राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के प्रगणकों का विरोध हुआ और उन्हें काम करने से रोक दिया गया, क्योंकि लोगों को यह संदेह हुआ कि वे नागरिकों की राष्ट्रीय पंजी (एनआरसी) के लिए आंकड़े इकट्ठे करने आये हैं.
इस सर्वेक्षण संस्थान के हैदराबाद स्थित संयुक्त निदेशक को यह स्वीकार करना पड़ा कि वे दी गयी सीमा के अंदर सरकार को ये आंकड़े नहीं दे पायेंगी और संभावना यह भी है कि ये आंकड़े इकट्ठे ही न किये जा सकें. इन आंकड़ों के बगैर सरकार के पास सुधारात्मक उपायों के लिए कोई भी सार्थक रास्ता नहीं बचेगा.
मोदी सरकार ने स्वयं को इस स्थिति में डाल दिया है, जहां उसका सैद्धांतिक एजेंडा अर्थव्यवस्था को लेकर किये जानेवाले सुधारों के आड़े आ रहा है. दूसरी सच्चाई यह है कि भारत सरकार ने आर्थिक वृद्धि से अपनी तवज्जो ही हटा ली है, क्योंकि यह एक ऐसी चीज है, जिसे पूरी तरह समझने में मोदी असमर्थ रहे हैं. यही विभाजनकारी सियासत पर भाजपा के उस असाधारण जोर की वजह है, जो विश्व के सबसे अहम व्यक्ति के भारत भ्रमण के वक्त भी जारी रही.
दिल्ली की हिंसा पर पूरे विश्व द्वारा दिया गया ध्यान भारत के मामलों में कई दशकों में सबसे बुरा रहा. इससे हमारी नेकनामी दागदार हुई, जिसे एक बार फिर से संवारने की जरूरत आ पड़ी है. और, यह काम हमें ऐसे समय में करना पड़ेगा, जो काफी अशांत होने जा रहा है. कोरोना वायरस की वजह से इस तिमाही वैश्विक व्यापार को चोट पहुंची है. पूरे विश्व में स्टॉक एक्सचेंज के सूचकांक नीचे जा चुके हैं. चार सप्ताहों में एनपीआर के लिए आंकड़े संकलन का काम शुरू होगा. मगर कई राज्यों ने कहा है कि वे शाह और मोदी की इस एनपीआर योजना को स्वीकार नहीं करेंगे, जिनमें आश्चर्यजनक रूप से भाजपा नियंत्रित बिहार भी शामिल है. जब प्रगणक इन आंकड़ों के संकलन के लिए बस्तियों में जायेंगे, तो वहां भी उन्हें कई जगहों पर विरोध का सामना करना पड़ेगा.
भारत लंबी अवधि से आ रही आर्थिक एवं सामाजिक दुरवस्था के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है, जो लगभग 30 वर्ष पहले बाबरी आंदोलन और उदारीकरण-पूर्व के संकट के समय से चली आ रही है और इस वक्त हमारे पास वैसा नेतृत्व भी नहीं है, जिसमें हमें इस संकट से उबारने का सामर्थ्य हो.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)