भारत की स्वतंत्रता का हम अमृत महोत्सव मना रहे हैं. इस मौके पर हमें अपने सर्वांगीण विकास का सिंहावलोकन करना चाहिए. ऐसा करते समय हम कतिपय मानदंडों को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं. उनमें सबसे महत्वपूर्ण गांवों का समेकित विकास है. प्रकृति और परंपराओं के अनुकूल गांव का विकास तभी संभव है, जब गांवों में स्वायत्त, स्वशासी और सभी दृष्टि से मजबूत प्रशासनिक ढांचे का निर्माण हो. इसके लिए ग्राम पंचायत ही एक मात्र विकल्प है.
देश के दो बड़े हिंदी भाषी राज्यों- उत्तर प्रदेश और बिहार, में पंचायत चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी है. झारखंड में भी पंचायत चुनाव अपेक्षित है. प्राचीन भारत में भी पंचायती राज व्यवस्था अस्तित्व में रही है, लेकिन उसका स्वरूप वर्तमान पंचायती राज जैसा नहीं था. वह एक स्वायत्त इकाई होती थी और उसके पास राज परिषद के द्वारा प्रदत्त असीम अधिकार थे. गांव के न्याय एवं शासन संबंधी कार्य ‘ग्रामिक’ द्वारा संचालित किये जाते थे.
इसका निर्देशन अनुभवी जनों के एक परिषद द्वारा होता था, जिसमें मुख्य रूप से वृद्ध व्यक्ति होते थे. ग्रामिकों के ऊपर 5-10 गांवों की व्यवस्था के लिए ‘गोप’ एवं लगभग एक-चौथाई जनपद के लिए ‘स्थानिक’ होते थे. यह प्रशासनिक ढांचा अपने क्षेत्र में कर लगाने और वसूलने के लिए केंद्रीय शासन द्वारा अधिकृत था. प्राचीनकाल से आदिवासी समाज में मांझी, परगनैत, मानकी मुंडा, राजी पड़हा आदि व्यवस्थाएं थीं.
तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा राजस्थान के नागौर जिले में 2 अक्तूबर, 1959 को पंचायती राज व्यवस्था लागू हुई. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया है. साल 1991 हुए 73वें संविधान संशोधन के तहत पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी गयी. इस संबंध में पहले मुकम्मल अध्ययन कराया गया था.
इस व्यवस्था के अंतर्गत क्या-क्या हो और इसका स्वरूप कैसा हो, इसके लिए सबसे पहले बलवंत राय मेहता के नेतृत्व में 1956 में एक समिति गठित हुई थी. इसके बाद अशोक मेहता के नेतृत्व में 1977 में एक समिति बनी. फिर जीवीके राव समिति ने 1985 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. फिर डॉ एलएम सिंघवी समिति की रिपोर्ट 1986 में आयी.
इन तमाम रिपोर्टों व सिफारिशों पर गहन मंथन के बाद शासन इस निर्णय पर पहुंचा कि जब तक ग्रामीण क्षेत्र में स्वशासी इकाई गठित नहीं होगी, तब तक ग्रामीण भारत का चित्र नहीं बदल सकता है. संपूर्ण भारत में 24 अप्रैल, 1993 को पंचायती राज व्यवस्था लागू कर दी गयी. इस तरह महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना को धरती पर उतार तो दिया गया, लेकिन वह अभी तक साकार नहीं हो पायी है.
आधुनिक पंचायती राज व्यवस्था का प्रशासनिक ढांचा त्रिस्तरीय है. इसमें ग्राम पंचायत, पंचायत समिति या मध्यवर्ती पंचायत तथा जिला पंचायत शामिल हैं. ग्राम सभा की स्थापना, हर पांच वर्ष में नियमित चुनाव, अनुसूचित जाति, जनजाति, महिला एवं पिछड़ी जाति के लिए समुचित आरक्षण, पंचायतों की निधियों में सुधार के लिए उपाय सुझाने हेतु राज्य वित्त आयोगों का गठन, राज्य चुनाव आयोग का गठन आदि इसके सांगठनिक संरचना का हिस्सा हैं.
पंचायतों को आवश्यक शक्तियां और अधिकार दिये गये हैं. इनमें पंचायत को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार करना, उनका निष्पादन करना, कर, शुल्क आदि लगाने और वसूलने का अधिकार है. भ्रष्टाचार रोकने के लिए लोकपाल की तरह अम्बुड्समैन का प्रावधान भी है, जो कहीं लागू नहीं है.
आदिवासी बहुल क्षेत्रों में पंचायती राज व्यवस्था को अधिक लोकतांत्रिक व जनोपयोगी बनाने के लिए संसद में पंचायत उपबंध विस्तार अधिनियम (पेसा), 1996 पारित किया गया. इसमें जनजाति समाज को कई अधिकार मिले हैं, जैसे- ग्राम सभा को आदिवासी समाज की परंपरा, रीति-रिवाज, सांस्कृतिक पहचान, समुदाय, स्थानीय संसाधन और विवाद समाधान के लिए परंपरागत तरीकों के इस्तेमाल का अधिकार है. विडंबना यह है कि इसके बावजूद किसी जनजाति बहुल प्रदेश ने इस कानून को पूरी तरह लागू नहीं किया है.
पंचायती राज की अपेक्षाओं के पूरा नहीं होने के लिए सरकारी उदासीनता, अनर्गल प्रशासनिक हस्तक्षेप और भयंकर भ्रष्टाचार जिम्मेदार हैं. इन बीमारियों को जब तक ठीक नहीं किया जायेगा, पंचायती राज व्यवस्था से ग्रामीण भारत का विकास कतई संभव नहीं है. यदि ग्राम स्वराज्य का लक्ष्य प्राप्त करना है, तो पंचायती राज को प्रशासनिक हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा.
इसे संविधान सम्मत अधिकार देना होगा. ग्राम सभाओं को गतिशील व जागरूक बनाना होगा. वित्तीय अनियमितता व चुनावी अपव्यय पर निगरानी के लिए प्रभावी आयोग का गठन करना होगा. कुछ आलोचकों के अनुसार, इस व्यवस्था के कारण ग्रामों के सामाजिक एवं आर्थिक ताने-बाने में गिरावट आयी है तथा भाई-भतीजावाद, जातिवाद व धन का दुरुपयोग आदि समस्याएं बढ़ रही हैं. इनका समाधान भी सशक्त और स्वावलंबी ग्राम पंचायतों में ही निहित है.
यदि सरकार सचमुच पंचायती संस्थाओं को मजबूत करना चाहती है, तो चयनित प्रतिनिधियों को पेशेवर प्रशिक्षकों से प्रशिक्षित कराये. अभी प्रशिक्षण के नाम पर केवल खानापूर्ति होती है. प्रचार और जन-जागरण भी जरूरी है. इन तत्वों का नियोजन कर पंचायती राज संस्थाओं को सुचारू, व्यवस्थित एवं ताकतवर बनाया जा सकता है.