भगवान बुद्ध की जय’ के नारों से आकाश गूंज उठा. लाखों कंठों की जयकार के बीच रुंधे हुए गले से एक स्वर फूट पड़ा- ‘मैं हिंदू धर्म का परित्याग करता हूं.’ इस घोषणा के साथ लाखों आवाजें संकल्प दुहरा रही थीं- ‘विषमता और शोषण पर आधारित प्राचीन हिंदू धर्म को छोड़ मैंने पुनर्जन्म प्राप्त किया है. मैं नियमपूर्वक भगवान बुद्ध के अष्ट मार्ग का पालन करूंगा.’
स्थान था- नागपुर की दीक्षा भूमि. दिवस- विजयादशमी, 14 अक्तूबर,1956. भगवान बुद्ध की प्रतिमा के समक्ष बाबा साहब आंबेडकर के नेतृत्व में तीन लाख दलित प्राचीन धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्म की दीक्षा ले रहे थे. बौद्ध धर्म क्यों ग्रहण कर रहे हैं? किसी पत्रकार के प्रश्न पर बाबा साहब ने भारी मन से कहा- ‘यह प्रश्न अपने आप से और अपने पूर्वजों से क्यों नहीं पूछते कि मैंने हिंदू धर्म क्यों छोड़ा?’
बाबा साहब ने कभी महात्मा गांधी से कहा था- ‘यद्यपि अस्पृश्यता समाधान के प्रश्न पर आपसे भिन्न मत रखता हूं, परंतु समय आने पर मैं देश के लिए सबसे कम नुकसानदेह मार्ग अपनाऊंगा. बौद्ध धर्म ग्रहण करके मैं देश और हिंदू धर्म पर बड़ा उपकार कर रहा हूं, क्योंकि बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही एक अंग है. मैंने यह सावधानी रखी है कि मेरे धर्मांतरण से देश के इतिहास एव संस्कृति की अक्षुण्ण परंपरा को नुकसान न पहुंचे.’
प्रत्येक धर्म प्रचारक की आंखें छह करोड़ दलितों पर लग गयीं. एक मुस्लिम नेता ने उन्हें बदायूं में हो रहे मुस्लिम सम्मेलन में आने का निमंत्रण दिया. बंबई के मेथोडिस्ट एपिसोपल चर्च के विशप व्रेंटेन वेडली ने ईसाई धर्म स्वीकार करने का आग्रह किया. बनारस की महाबोधि सोसाइटी के सचिव ने विश्वास दिलाया कि बौद्ध धर्म में ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं है. स्वर्ण मंदिर प्रबंधक समिति के सरदार दिलीप सिंह दोआना ने अस्पृश्यों की समस्याओं को हल करने का विश्वास दिलाया.
पूना के युवक सम्मेलन में उन्होंने कहा, ‘यह सोचना गलत होगा कि ईसाई, इस्लाम या किसी मत को स्वीकार करते ही समानता का स्वर्ग प्राप्त हो जायेगा. कहीं भी जाएं, समानता, सम्मान के लिए संघर्ष करना ही पड़ेगा.’ कुछ मुस्लिम नेता निजाम हैदराबाद के इशारे पर डॉ आंबेडकर को इस्लाम स्वीकार कराने का प्रयास करने लगे.
निजाम ने छह करोड़ रुपये का सौदा करना चाहा. शोलापुर में ईसाइयों की एक सभा में उन्होंने कहा, ‘जब से मैंने धर्म परिवर्तन की घोषणा की है, तब से मैं एक सौदे की वस्तु बन गया हूं. दक्षिण भारत में चर्च तो जातीय आधार पर बंटे हैं. ईसाई राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़े हैं और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध उन्होंने कभी संघर्ष नहीं किया.
गोलमेज सम्मेलन के दौरान मुस्लिम प्रतिनिधियों की संकीर्णता, सांप्रदायिक राजनीति और अलगाववादी दृष्टिकोण ने आंडकर को झकझोर दिया था. येवला सम्मेलन में घोषणा के पश्चात डॉ आंबेडकर ने सिख धर्म में रुचि लेना प्रारंभ कर दिया. डॉ आंबेडकर ने सहयोगियों से परामर्श कर सिख धर्म ग्रहण करने का निर्णय कर भी लिया था.
उन्होंने हिंदू नेता डॉ मुंजे से वार्ता की. डॉ मुंजे ने प्रस्ताव रखा कि यदि दलित बंधु इस्लाम एवं ईसाई धर्म के स्थान पर सिख धर्म स्वीकार कर लें, तो उन्हें अनुसूचित जाति की सूची में सम्मिलित रखने एवं पूना पैक्ट से प्राप्त सुविधा का उपयोग करने में हिंदू महासभा कोई आपत्ति नहीं करेगा.
आंबेडकर का मानना था कि अगर दलित वर्ग इस्लाम या ईसाई मत स्वीकार करता है, तो वह हिंदू धर्म की परिधि से बाहर चला जायेगे. यदि वह सिख धर्म ग्रहण करे, तो वे हिंदू संस्कृति के दायरे में ही रहेगा. उन्होंने कहा कि इस्लाम या ईसाई मत में दलितों के धर्मांतरण का अर्थ है- उनका विराष्ट्रीयकरण.
बाबा साहेब ने कहा, ‘यद्यपि इस्लाम अछूतों को राजनीतिक, आर्थिक, समानता देने के लिए तैयार है. ईसाई मत के पीछे अमेरिका एवं ब्रिटिश की असीमित राशि एवं शक्ति के साधन हैं. सिख धर्म में अन्य मतों की तुलना में आकर्षण एवं राजनीतिक, आर्थिक लाभ कम हैं. फिर भी हिंदुओं के हित में वे सिख धर्म को ही अधिक उचित समझे हैं.
महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, सी राजगोपालाचारी धर्मांतरण के विरोधी थे. गांधी का मत था कि धर्म कोई मकान या कपड़ा नहीं, जिसे जब इच्छा हुई बदल डालो. ऐसे धर्मांतरण से दलितों का उद्देश्य पूरा नहीं होगा. अत: इन नेताओं ने आंबेडकर और मुंजे के दलितों के सिख धर्म में परिवर्तन का तीव्र विरोध किया. परिणामत: धर्मांतरण की आंधी कुछ समय के लिए ठहर गयी.
इस दौरान बाबा साहब भगवान बुद्ध के दर्शन से अत्यधिक प्रभावित हुए. वे 1950 के कोलंबो बौद्ध सम्मेलन में सम्मिलित हुए. उन्होंने कहा कि वे जीवन के अंतिम क्षणों को बौद्ध धर्म के पुनर्जागरण एवं प्रसार में व्यतीत करेंगे. अंतत: बाबा साहब ने 24 मई, 1956 को बुद्ध जयंती के दिन बंबई में घोषणा की कि वे 14 अक्तूबर,1956 को विजयादशमी के दिन बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगे.
देश में खलबली मच गयी. उन्हें रोकने के प्रयास हुए, परंतु वे अडिग थे. बाबा साहब और उनकी पत्नी ने भगवान बुद्ध की प्रतिमा के सामने झुक कर बौद्ध धर्म ग्रहण करने का संकल्प लिया. उन्हें पता था कि धर्मांतरण उनकी समस्या का समाधान नहीं है. दुर्भाग्यवश, हिंदू समाज ने ऐतिहासिक चेतावनी को भुला दिया है. ‘यह प्रश्न अपने आप से और अपने पूर्वजों से पूछो कि मैंने हिंदू धर्म क्यों छोड़ दिया, बाबा साहब के इस यक्षप्रश्न का उत्तर प्रत्येक भारतीय को देना होगा. क्या अब भी इस देश के करोड़ों दलितों को हम सहजता से गले से लगाने के लिए तैयार हैं?