डॉ एमआर राजागोपाल
डायरेक्टर, त्रिवेंद्रम इंस्टिट्यूट ऑफ पैलिएटिव साइंसेज
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बीते तीन दिसंबर को विकलांग व्यक्तियों के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाया गया. इसे हम मुद्दों पर जागरूकता की दृष्टि से देखते हैं, अन्यथा यह हमारी चिंताओं में शामिल नहीं होता. यहां तक कि यह भी नहीं जानते कि हमें ऐसे लोगों का ख्याल रखना चाहिए. यह एक मुद्दे के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्पित दिन होने का महत्व है. लेकिन, दिन भी बीत गया.
पारंपरिक घोषणाओं या मामूली क्रियाकलापों से परे हमें यह स्थायी सवाल पूछना होगा कि हम एक समाज के तौर पर शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के साथ कैसा आचरण करते हैं, हमें क्या करने की जरूरत है, ताकि वे गरिमा तथा सम्मान के साथ उद्देश्यपूर्ण जिंदगी जी सकें.
बाकी दिनों की ही तरह तीन दिसंबर को भी मैं सुबह एक घंटे तक टहला, जब दुनिया नींद से उठ रही थी. बढ़ते ट्रैफिक के बावजूद, कभी-कभी हॉर्न की आवाज और पूजा स्थलों से लाउडस्पीकर के शोर के बीच मैं चिड़ियों की चहचहाहट को सुन और दुनिया को महसूस कर सकता था. लेकिन, मैं जानता हूं कि यह दशा मेरे लिये अस्थायी है. एक दिन ऐसा आयेगा, जब मैं इस तरह अपने आस-पास घूमने में सक्षम नहीं रह पाऊंगा.
अन्य लोगों की तरह, मेरी आकस्मिक मौत की गुंजाइश लगभग 10 प्रतिशत ही है. इस बात की ज्यादा संभावना है कि जब मैं दुनिया से प्रस्थान करूंगा, तो बिस्तर पर लाचार पड़ा रहूंगा. संभवत: घूमने-फिरने के लिए उस समय पहियेदार कुर्सी पर ही निर्भर रहना होगा. संविधान में निहित मौलिक अधिकारों के कारण मुझे विश्वास है कि उस समय गरिमापूर्ण जीवन के लिए मेरे पास अधिकार रहेगा.
लेकिन, मेरे पास मजबूती नहीं रहेगी कि मैं उन अधिकारों के लिए लड़ सकूं. मैं अपने अधिकारों का लाभ तभी ले सकता हूं, जब मेरे आसपास की दुनिया यह स्वीकार करे कि जो व्यक्ति शारीरिक तौर पर अक्षम है, उसके भी अधिकार होते हैं. मुझे गरिमापूर्ण जीवन देने का मतलब है मुझे दुनिया का एक भाग होने के लिए अवसर देना. इसका मतलब है कि मेरे आसपास के लोगों का आचरण क्रूर प्रेम जैसा नहीं होगा. इस तरह वे कह पायेंगे- ‘आप व्हीलचेयर पर क्यों जाना चाहते हैं? आपको जो भी जरूरत होगी, उसे हम यहीं लायेंगे. आप आराम करें.’
उस समय, घूमने-फिरने की आजादी तभी मिल सकती है, जब घर के सामने या आंगन और दरवाजे के बाहर तक मेरी पहुंच हो पायेगी. मेरे घर की सीमाओं से बाहर मेरे जीवन को चलाने के लिए एक रैंप की आवश्यकता होगी. लेकिन, व्यावहारिक दुश्वारियां मेरे रास्ते में खड़ी ही रहेंगी. मेरे घर के सामने उतनी जगह नहीं है.
भारत की तरक्की के साथ कमरे में सिमटे मकान अब सघन होते जा रहे हैं. किसी को इस बात का आभास नहीं कि मेरे भीतर भूकंप-सी हलचल है. मुझे एहसास है कि मेरा जीवन अब किसी के लिए बहुत अधिक मायने नहीं रखता. परिवार के सदस्य और बच्चे यह तो नहीं कहेंगे कि मेरे जीवन का महत्व कम हो गया है, लेकिन उस समय हमें यह महसूस जरूर होगा. फिर कभी क्या मैं रैंप की मांग करूंगा.
अगर किसी दिन, सकारात्मक सोचने के लिए मैं कोई कोर्स करता हूं, तो सभी उत्साहित हो जाते हैं, मैं एक ऑनलाइन पाठ्यक्रम से जुड़ना चाहता हूं. कोई विवरणिका देखते हुए यह कह सकता है – ‘हे भगवान, यह तो बहुत खर्चीला है. क्या यह मेरे मतलब का है?’ और, इस प्रकार मैं वापस हो जाता हूं, न केवल पाठ्यक्रम से, बल्कि उस जीवन के आवरण से, जो मेरे भीतर गहराई में छिपा है, जिसकी मौजूदगी की जानकारी मुझे भी नहीं है. दुखी महसूस करने का मुझे अधिकार नहीं होगा. मैं वहां सोच रहा होऊंगा कि मेरे आसपास की दुनिया क्यों यह मान रही है कि मैं अनुपयोगी हो चुका हूं, क्यों मैं चल नहीं सकता?
क्यों वे पारिवारिक बातचीत में मुझे शामिल नहीं करते? किसी निर्णय करने में? बच्चों की देखभाल में? मेरे रहने का औचित्य ही क्या है, अगर मेरी कोई आवश्यकता नहीं है तो? क्या मैं कमरे के हिस्से में खराब पड़ी सब्जी की तरह सड़ने के लिए हूं?
इन सबके साथ तमाम तरह की शारीरिक बीमारियों के घेरने का डर रहेगा, क्योंकि परिवार को मेरी देखभाल के प्रति ज्ञान नहीं है. और, किसी को यह सलाह देने की जरूरत महसूस नहीं होगी कि एक अच्छे बिस्तर की जरूरत है, ताकि पीठ के घाव से बचा जा सके. दैनिक क्रियाकलापों के लिए कोई मददगार नहीं होगा, जिससे हम मूत्र आदि के घातक संक्रमण से बच पायेंगे.
और, यह सब स्वास्थ्य देखभाल तंत्र के रूखेपन के कारण है, जिसने हमारे देश में स्वास्थ्य देखभाल की प्रमुख जरूरत के रूप में पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) को शामिल नहीं किया है. एक डॉक्टर, जो मुझे देखता है कि वह आश्चर्यचकित हो सकता है कि क्या मैं अवसाद में हूं. कोई मेरे आसपास बैठना नहीं चाहता और न ही कोई मेरे कंधों पर अपना हाथ रखते हुए यह कहता है कि आप दुखी दिख रहे हैं. क्या आप इसके बारे में बात करेंगे?
मैं विकलांगता की संभाव्य घटना के बारे में बात कर रहा हूं, जो बुढ़ापे में हममें से 90 प्रतिशत लोगों के साथ घटित होनी है. लेकिन, पूरा परिदृश्य इतना भर ही नहीं है. अब कल्पना कीजिये भारत में लाखों युवाओं के साथ यह सब कुछ घटित हो रहा है. वे अपनी कमर से नीचे विकलांग हो गये हैं, क्योंकि सड़क दुर्घटना, निर्माण स्थलों या पेड़ों से गिरने की वजह से उनका जीवन संकटों से घिर चुका है. उनके लिए यह समस्या कुछ महीनों या कुछ वर्षों की नहीं है, बल्कि पूरे जीवन उन्हें इससे जूझना है.
उनका जीवन सही हो सके, इसके लिए हमें बहुत अधिक धन की आवश्यकता नहीं है. हमें केवल उन्हें स्वीकार करने की जरूरत है. स्वास्थ्य देखभाल सही मायनों में शारीरिक, सामाजिक और मानसिक कल्याण के लिए है, न केवल बीमारी या दुर्बलता को दूर करने के लिए. ऐसा ही विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा परिभाषित है. अगर हम ऐसा करें, तो पुनर्वास को स्वास्थ्य देखभाल तंत्र का आवश्यक हिस्सा बनाना सीख पायेंगे. पहली जरूरत है कि हम अपने मन को उनके लिए सुलभ बनायें.
जैसा कि हबर्ट हंफ्री ने कहा है- समाज की नैतिक परीक्षा इस बात पर होती है कि वह अपने जीवन के प्रभात यानी बच्चों और जीवन की सांझ यानी बुजुर्गों के साथ कैसा बर्ताव करता है, साथ ही उन लोगों के साथ जो जीवन की प्रतिछाया में हैं, यानी बीमार, जरूरतमंद और विकलांग हैं.
posted by : sameer oraon