राजन कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी
ब्रिक्स उभरते देशों का एक अनूठा संगठन है. इसके सदस्य देश न केवल भौगोलिक रूप से दूरस्थ हैं, बल्कि राजनीतिक प्रणाली, इतिहास और वैचारिकता के कारण भी भिन्न हैं. चीन का सकल घरेलू उत्पाद दक्षिण अफ्रीका की तुलना में लगभग 40 गुना बड़ा है. चीन आर्थिक महाशक्ति है, तो रूस दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सैन्य ताकत, जबकि भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है.
आखिर क्या कारण है कि इन विसंगतियों के बावजूद ये सभी देश एक साथ आने में कामयाब रहे? दरअसल, ब्रिक्स एक ऐसी सोच का परिणाम है, जो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के संचालन में बदलाव चाहती है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जिन अंतरराष्ट्रीय संगठनों का निर्माण हुआ, उनमें पश्चिमी देश हावी रहे हैं.
भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसी महत्वपूर्ण क्षेत्रीय शक्तियां अब भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्य नहीं हैं और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व व्यापार संगठन में भी इनकी भूमिका सीमित है. वर्ष 1998 में दिल्ली यात्रा के दौरान रूस के तत्कालीन प्रधानमंत्री एवगेनी प्रिमाकोव ने रूस-भारत-चीन (रिक) सहयोग समूह का प्रस्ताव रखा था. गोल्डमैन साॅक्स के प्रमुख अर्थशास्त्री रह चुके जिम ओ नील का अनुमान था कि ब्रिक्स ग्रुपिंग अमेरिका और यूरोप की आर्थिक क्षमता को पार कर जायेगी.
ब्रिक्स का उद्घाटन 2009 में येकातेरिनबर्ग में हुआ और एक वर्ष बाद दक्षिण अफ्रीका इसमें शामिल हुआ. उस समय अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था एक गहरे संकट से गुजर रही थी. पश्चिमी देशों की तुलना में ब्रिक्स देशों पर इसका प्रभाव काफी कम पड़ा था. चीन और भारत ने इस प्रतिकूलता में भी अपनी विकास दर को बनाये रखा था. तब ब्रिक्स ने यूरोप को वित्तीय सहायता देने की पेशकश की थी.
ब्रिक्स ने यूरो-जोन संकट को दूर करने के लिए आइएमएफ के माध्यम से 75 बिलियन डाॅलर का योगदान देने का वादा किया, जिसमें नयी दिल्ली का योगदान 10 बिलियन डाॅलर था. जानकारों का मानना है कि 2030 तक ब्रिक्स की अर्थव्यवस्था अमेरिका और यूरोपीय देशों से आगे निकल कर वैश्विक अर्थव्यवस्था में 37 प्रतिशत तक पहुंच जायेगी. ब्रिक्स देश अभी लगभग 19 प्रतिशत वैश्विक निर्यात, 16 प्रतिशत वैश्विक आयात और लगभग 19 प्रतिशत का प्रत्यक्ष बाह्य निवेश करते हैं.
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में सुधार के लिए ब्रिक्स का सबसे महत्वपूर्ण योगदान न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) और ब्रिक्स आकस्मिक रिजर्व व्यवस्था (सीआरए) का निर्माण था. वर्ष 2019 तक ब्रिक्स बैंक ने लगभग 13 बिलियन डाॅलर की लागत वाली 44 अवसंरचना परियोजनाओं को मंजूरी दी थी. एनडीबी कोविड महामारी आपातकालीन निधि के लिए 10 बिलियन डाॅलर की सहायता देने पर भी सहमत हुआ है.
आइएमएफ और विश्वबैंक की तुलना में ब्रिक्स ऋण बिना किसी शर्त के दिये जाते हैं. ब्रिक्स देशों के दबाव के कारण ही आइएमएफ और विश्व बैंक ने कोटा-प्रणाली और प्रबंधन में सुधार किया. ब्रिक्स भारत के बहुआयामी विदेश नीति और रणनीतिक स्वायत्तता के वांछित लक्ष्य को बनाये रखने में मदद करता है. भारत किसी एक खेमे में जाकर अपनी स्वायत्तता को खोना नहीं चाहता है.
ब्रिक्स की सदस्यता भारत को प्रतिष्ठा दिलाती है, क्योंकि वह चीन और रूस जैसे शक्तिशाली देशों के समकक्ष दिखता है. यह भारत को पाकिस्तान, तुर्की, नाइजीरिया और अर्जेंटीना जैसे देशों से अलग करता है. ब्रिक्स क्षेत्रीय नेताओं का संगठन है और इसका दायरा बहुत व्यापक है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12वीं शिखर बैठक में कहा कि ब्रिक्स तीन मुख्य कारणों से महत्वपूर्ण है.
पहला, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, आइएमएफ और विश्व बैंक) में सुधार के मुद्दे पर अन्य सदस्य देशों के साथ समन्वय, दूसरा, आतंकवाद के खिलाफ ब्रिक्स की साझा रणनीति और व्यापार, निवेश, जलवायु परिवर्तन और कोविड महामारी के मुद्दों पर अंतर-ब्रिक्स सहयोग को बढ़ावा देना.
अपने आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए भारत को अंतरराष्ट्रीय संगठनों में एक बड़ी भूमिका निभाने की आवश्यकता है. विशेषाधिकार प्राप्त राष्ट्रों ने नये सदस्यों को समायोजित करने के लिए कोई अधिक उत्साह नहीं दिखाया है. सुधार प्रक्रिया में जानबूझकर देरी की गयी है.
भारत को सुरक्षा परिषद में प्रवेश के लिए अन्य प्रभावशाली ब्रिक्स सदस्यों के समर्थन की आवश्यकता होगी. सभी सदस्यों ने समर्थन का वादा भी किया है. लेकिन चीन का रवैया भारत के समर्थन को लेकर अस्पष्ट रहा है. भारत आतंकवाद का शिकार है और प्रधानमंत्री मोदी सुरक्षा परिषद सहित सभी संभावित मंचों पर इस मुद्दे को उठाते रहे हैं.
इसके बरक्स चीन आतंकवाद के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ, एफएटीएफ और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान को एक राजनयिक कवच प्रदान करता है. भारत हमेशा व्यापार को बढ़ावा देने और ब्रिक्स देशों के बीच सहयोग का समर्थन करता है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय व्यापार के नियम बदल रहे हैं.
विभिन्न देश शुल्क बढ़ा रहे हैं और संरक्षणवाद की वकालत कर रहे हैं. इन उपायों से वैश्विक अर्थव्यवस्था को मदद मिलने की संभावना नहीं दिखती है. चीन ने आसियान, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड के साथ क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक संधि (आरसीइपी) की है. भारत और अमेरिका इस समझौते का हिस्सा नहीं हैं.
ब्रिक्स सम्मेलन ने लद्दाख की सीमा पर भारत और चीन के बीच सैन्य गतिरोध के किसी संदर्भ से परहेज किया है, क्योंकि द्विपक्षीय सीमा विवाद ब्रिक्स के दायरे में नहीं आता. भारत ब्रिक्स की अगली बैठक की मेजबानी और अध्यक्षता करेगा. यदि आपसी रार में बढ़ोतरी होती रही, तो नेताओं के लिए बातचीत कर पाना और आपसी सहयोग को बढ़ाना मुश्किल होगा.
भारत और चीन के बीच सीमा संघर्ष ने भू-राजनीतिक सहयोग की संभावनाओं पर सवालिया निशान लगा दिया है. जब संगठन के दो प्रमुख सदस्य घातक सैन्य गतिरोध में उलझे हों, तो विश्व व्यवस्था को बदलने की बात बेमानी लगती है. जब ब्रिक्स अपने ही दो मुख्य सदस्यों के बीच के संघर्ष का समाधान कर पाने में सफल नहीं होता है, तो इसके प्रभावी भविष्य की संभावनाओं को बड़ा धक्का लग सकता है, जो किसी के भी व्यापक हित में नहीं होगा.
posted by : sameer oraon