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तमिलनाडु की बदलती राजनीति

तमिलनाडु की बदलती राजनीति

By संपादकीय | December 7, 2020 8:50 AM

आर राजगोपालन

वरिष्ठ पत्रकार

rajagopalan1951@gmail.com

तमिलनाडु की क्षेत्रीय राजनीति बहुत दिलचस्प है, जहां द्रविड़ कट्टरता हावी रही है. बीते माह केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के चेन्नई दौरे ने राज्य के चुनावी परिदृश्य को बदल दिया है, जो बहुत नाटकीय रहा. एक बार की वार्ता में ही वे एडीएमके-भाजपा गठबंधन बनाने में सफल रहे, जिससे राज्य में भाजपा के गठबंधन का इतिहास बदल गया है.

इसके लिए एडीएमके को राजधानी आने के बजाय राष्ट्रीय पार्टी भाजपा एक क्षेत्रीय पार्टी के साथ समझौते को अंतिम रूप देने के लिए खुद ही चेन्नई पहुंच गयी. इससे डीएमके के सामने कांग्रेस के झुकने की मजबूरी आ गयी है. इसी वजह से मैंने कहा है कि अमित शाह ने राजनीतिक दृष्टिकोण को नये से सिरे लिख दिया है.

तमिलनाडु अलग प्रकार का राज्य है. यहां वंचितों के लिए 69 प्रतिशत आरक्षण है. फिर भी ऊंची जातियों का वर्चस्व बना हुआ है. गहरी पैठ रखनेवाला द्रविड़ दर्शन अब निश्चित ही ढलान पर है. यहां की राजनीति की तुलना उत्तर प्रदेश, बिहार या उत्तर भारत की राजनीति से नहीं हो सकती है.

अगर आप करुणानिधि और जयललिता की व्यक्तिगत कड़वाहट से भरी तमिलनाडु की राजनीति की तुलना करें, तो मुलायम सिंह, मायावती, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल अपेक्षाकृत बहुत सरल हैं, लेकिन हाल के वर्षों में यह कड़वाहट कम हुई है.

तमिलनाडु विधानसभा की 234 सीटों के लिए अगले साल मतदान होना है. ऐतिहासिक तौर पर बहुत कुछ पहली बार होने जा रहा है. आगामी मुकाबले में इदापति पलानीस्वामी और एमके स्टालिन आमने-सामने होंगे. उनके बड़े नेता जयललिता और करुणानिधि के बगैर यह चुनाव होगा. कई लोगों का मानना था कि ये द्रविड़ पार्टियां अपने आप समाप्त हो जायेंगी, लेकिन जयललिता के निधन के बाद पन्नीरसेल्वम के मार्गदर्शन में पालानीस्वामी ने अपने प्रभावी नेतृत्व में चार साल तक स्थायी सरकार दी है.

एमके स्टालिन ने भी 2019 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी का नेतृत्व किया और डीएमके 39 में से 23 सीटें जीतने में सफल रही, लेकिन स्टालिन को यह अनुमान नहीं था कि नरेंद्र मोदी उत्तर भारत में बड़ी जीत हासिल करेंगे. स्टालिन ने राहुल गांधी को ज्यादा आंकते हुए उन्हें यूपीए का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया था, जबकि उनकी क्षमता पर कांग्रेस पार्टी को ही संदेह था.

तमिलनाडु में कई खिलाड़ी हैं. जयललिता के दौर में कथित रूप से बड़ी मात्रा में नगदी जमा करनेवाले शशिकला और टीटीवी दिनाकरण राज्य के दक्षिणी हिस्से में थेवर जाति पर बड़ा प्रभाव रखते हैं तथा वे अपने चिरशत्रु डीएमके को हराना चाहते हैं. डॉ एस रामादोस और वाइको भी अपनी पार्टियों के माध्यम से डीएमके के वोट काट सकते हैं.

सीपीएम और सीपीआइ की कुछ इलाकों में पैठ है, पर ये धन के लिए डीएमके पर निर्भर हैं. राज्य में साक्षरता सौ फीसदी के करीब है. ऐसे में विधारधाराओं, नीतियों और कार्यक्रमों का भी बड़ा असर होगा. मीडिया की बहसों का भी प्रभाव है. आकांक्षाओं से भरे आठ लाख नये मतदाताओं का आना भी द्रविड़ पार्टियों के लिए चुनौती है.

एडीएमके भाजपा की स्वाभाविक सहयोगी है. वाजपेयी सरकार में इस पार्टी के तीन मंत्री थे. अनुच्छेद 370 हटाने और राम मंदिर पर उसने समर्थन दिया है. यह सहयोग अब भी जारी है. तमिलनाडु की राजनीति में कुछ मुद्दे स्थायी हैं. इनमें तमिल पहचान, उत्तर से दूरी, नीट परीक्षा, हिंदी थोपने, संस्कृत और ब्राह्मणवाद का विरोध, आरक्षण के अंदर आरक्षण, कावेरी जल, श्रीलंकाई तमिल जैसे मामले महत्वपूर्ण हैं. राष्ट्रवाद के अभाव के कारण ये मुद्दे 50 वर्षों से बने हुए हैं.

भाजपा दक्षिण में अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश में है और उसका लक्ष्य 2024 के लोकसभा चुनाव में छह दक्षिणी राज्यों में अपनी स्थिति मजबूत करना है. तमिलनाडु में भाजपा का मुख्य लक्ष्य डीएमके की हार सुनिश्चित करना है, क्योंकि उसकी राज्य इकाई इसे हिंदू विरोधी पार्टी मानती है.

भाजपा ने तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में अपनी पकड़ मजबूत की है. यूपी की तर्ज पर अमित शाह ने पुराने नेताओं को किनारे कर दलित और पिछड़ा वर्ग के नये नेतृत्व को आगे लाने की रणनीति अपनायी है. प्रदेश भाजपा अध्यक्ष एल मुरुगन काफी प्रभावी हैं और वे दलित भी हैं.

राज्य के चुनाव में मुख्य मुकाबला डीएमके और एडीएमके के बीच ही है. स्टालिन के लिए करो या मरो वाले हालात हैं. दस वर्षों से पार्टी सत्ता से बाहर है. इसका काडर बुजुर्ग हो चुका है. डिजिटल दुनिया में द्रविड़ राजनीति आखिरी चरण में है. पेरियारवाद की वैचारिकी भी कमजोर हो रही है. डीएमके नेतृत्व में करुणानिधि के परिवार के लोग काबिज हैं, लेकिन यह भी स्वीकार करना होगा कि डीएमके का जमीनी आधार भी बढ़ रहा है.

दूसरी ओर, जयललिता के नहीं होने के बाद मुख्यमंत्री पलानीस्वामी ने बेहतर तरीके से शासन चलाया है. करुणानिधि के रहते हुए भी डीएमके विधानसभा में कभी तीन अंकों में नहीं पहुंच सकी थी. इन बातों पर अमित शाह की नजर है.

रजनीकांत और कमल हासन जैसे बड़े फिल्मी सितारे चुनावी मैदान में अगर कुछ अधिक हासिल नहीं भी कर सके, तो भी द्रविड़ पार्टियों के वोट में सेंध जरूर लगायेंगे. जिला-स्तरीय पार्टियां भी ऐसा ही करेंगी. कुल मिला कर, एडीएमके और डीएमके में बेहद नजदीकी मुकाबला होगा और चुनावी प्रक्रिया बहुत कड़ी होगी क्योंकि तमिलनाडु एक शिक्षित राज्य है.

posted by : sameer oraon

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