ये नतीजे कांग्रेस पार्टी के लिए बेहद चिंताजनक हैं और आगे उसकी स्थिति और भी खराब होगी. जहां भी यह पार्टी गठबंधन का हिस्सा है, वहां संकट गहरा होगा क्योंकि गांधी परिवार को चुनौतियां मिलेंगी. तमिलनाडु की जीत द्रमुक की जीत है क्योंकि वहां स्टालिन चेहरा थे, राहुल गांधी नहीं तथा कांग्रेस बहुत कनिष्ठ सहयोगी भी थी. जहां तक बंगाल का सवाल है, वहां भारतीय जनता पार्टी ने सीटें तो बहुत हासिल की है, पर वह सरकार बनाने से चूक गयी है.
इसका कारण है कि ममता बनर्जी ने जो विक्टिमहुड का जो कार्ड खेला, उसे बंगाल की जनता ने स्वीकार किया. उन्होंने अपना समर्थन आधार भी बरकरार रखा है. कांग्रेस और लेफ्ट के सैद्धांतिक व वैचारिक रूप से जो समर्थक हैं, उन्होंने भाजपा की संभावित सरकार को रोकने के इरादे से ममता बनर्जी की मदद की है. इसे मैं ममता बनर्जी की जीत के रूप में कम और विपक्ष की सामूहिक जीत के रूप में अधिक देखता हूं.
लोकसभा में कांग्रेस की सीटें अन्य विपक्षी दलों से भले अधिक हों, लेकिन उसका जो प्रदर्शन है, उससे उसकी आंतरिक मुश्किलें बहुत बढ़नेवाली हैं. राष्ट्रीय विपक्ष की उसकी भूमिका भी उत्तरोत्तर कमजोर होती जायेगी. अब विपक्ष की राजनीति एक बार फिर क्षेत्रीय दलों की ओर केंद्रित होगी. इस परिणाम का यह संदेश स्पष्ट है. दक्षिण भारत में द्रमुक आगे आयेगी, तो पूर्वी भारत में तृणमूल उस भूमिका को निभायेगी.
असम में भाजपा ने अपना बहुमत बरकरार रखा है और पुद्दुचेरी में उसे फायदा हुआ है. वहां भी सरकार बन रही है. पार्टी के लिहाज से बहुत अच्छे नतीजे हैं, लेकिन जिस तरह से उम्मीदें थीं बंगाल को लेकर, वह पूरा नहीं हो सका है. पर वह आनेवाले वर्षों में वर्तमान परिणाम के आधार पर उम्मीद कर सकती है कि वह बंगाल में सरकार बनाने की स्थिति में आयेगी. आशा के अनुरूप अगर परिणाम अभी नहीं आये हैं, तो पार्टी को आत्मसमीक्षा भी करनी होगी कि अपार जन समर्थन के बावजूद वह वोट में तब्दील क्यों नहीं हो सका.
इस संबंध में हमें यह भी देखना होगा कि कहीं दिल्ली की तरह, जिसे हम केजरीवाल मॉडल कह सकते हैं, बंगाल में भी तो नहीं हुआ है. दिल्ली में कांग्रेस के नहीं लड़ने का सीधा फायदा आम आदमी पार्टी को मिला है. पश्चिम बंगाल में भी वही स्थिति है कि कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों ने चुनाव लड़ा ही नहीं. अगर आप उनकी प्रारंभिक रैलियों को देखें, तो उनमें बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए थे.
लेकिन बाद में न तो रैलियां हुईं और न ही ठोस प्रचार अभियान चलाया गया. उसका सीधा संदेश यही था कि हम भाजपा को रोकने के लिए तृणमूल कांग्रेस को सहयोग कर रहे हैं. इसीलिए मैन कह रहा हूं कि यह ममता बनर्जी की जीत न होकर विपक्ष की सामूहिक जीत है, जो पश्चिम बंगाल में भाजपा को रोकने में कामयाब हो गया है.