नेपाल में संवैधानिक संकट

नेपाल में संवैधानिक संकट

By संपादकीय | December 23, 2020 10:38 AM
an image

प्रो एसडी मुनि

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार

delhi@prabhatkhabar.in

नेपाल में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली द्वारा 275 सदस्यों वाले संसद के निचले सदन को भंग करने से नया संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया है. इस फैसले का उनकी पार्टी के भीतर और बाहर पुरजोर विरोध हो रहा है. प्रधानमंत्री ओली के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है, वहां से क्या फैसला होता है, उसी पर आगे की राह टिकी है.

अगर सुप्रीम कोर्ट प्रधानमंत्री ओली के फैसले को संविधान के दायरे में मानता है, तो आगे चुनाव की प्रक्रिया शुरू होगी और इसके बाद पार्टी में बिखराव भी होगा, यह तय है. अगर सुप्रीम कोर्ट इस फैसले को असंवैधानिक करार देता है, तो संसद को वापस आना पड़ेगा और फिर संसद अविश्वास प्रस्ताव पर विचार करेगी.

नेपाल में सत्तारूढ़ दल नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में केपी शर्मा ओली के खिलाफ कई नेता मुखर हैं. अपने समर्थन की जमीन को कमजोर पड़ता देख प्रधानमंत्री ओली ने यह फैसला लिया है. दरअसल, पार्टी के भीतर की राजनीति की वजह से ऐसी स्थिति बनी है, लेकिन ओली ने पार्टी की राजनीति को पूरे देश की राजनीति बना दी है. वे खुद अपनी ही पार्टी में अलग-थलग होते जा रहे हैं. चारों तरफ से घिर चुके केपी शर्मा ओली ने अपना रोष पूरे संसद को भंग करके प्रकट कर दिया है. अगर भंग करना था, तो वे अपने सदस्यों पर फैसला करते. ऐसा करना उनके लिए कठिन था.

संसद भंग करने की सिफारिश करना बिल्कुल मनमाना और एकतरफा फैसला है. वे अपनी सत्ता को बचाये रखने के लिए ऐसा कर रहे हैं. इसीलिए, सारा देश उनके इस फैसले के खिलाफ है और अपना आक्रोश प्रकट कर रहा है. पार्टी में पुष्प कमल दहल प्रचंड काफी मुखर हैं. पार्टी में मुख्य रूप से दो नेता हैं. एक तरफ ओली हैं, तो दूसरी तरफ पुष्प कमल दहल हैं.

माधव कुमार नेपाल, झलनाथ खनाल आदि भी यूएमएल के बड़े नेता हैं. सब नेपाल की राजनीति में काफी प्रभावशाली रहे हैं. इन सबको ओली ने दरकिनार कर यह एकतरफा फैसला लिया है. प्रचंड ने दस से अधिक वर्षों तक माओवादी आंदोलन की अगुआई की है. उनके साथ ओली का अनुबंध था कि ढाई साल के बाद उन्हें प्रधानमंत्री बना देंगे. वे दो पद लिये हुए हैं.

वे पार्टी के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री, दोनांें हैं. वे इस बात पर राजी थे कि इनमें से एक को वे छोड़ देंगे. अब दोनों पदों में से वे न किसी एक को छोड़ रहे हैं और न ही प्रचंड को प्रधानमंत्री बनने दे रहे हैं. इन सब टकरावों के बाद उन्होंने एक ऐसा फैसला ले लिया है, जो संविधान के नियमों के बिल्कुल खिलाफ है. यह लोकतंत्र के लिहाज से गलत निर्णय है.

नेपाल की संसद के निचले सदन को ‘प्रतिनिधि सभा’ कहा जाता है. वहां के संविधान की धारा-85 (1) और 76 (7) के अनुसार, सदन का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है. संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि दो तिहाई बहुमत वाली सरकार में प्रधानमंत्री एकतरफा फैसला करके सदन को भंग कर दे. अब संविधान के खिलाफ जाकर ओली ने फैसला लिया है, जिससे उनका विरोध होना स्वाभाविक है. मामला अदालत में जा चुका है, उसका रुख सबसे महत्वपूर्ण होगा.

ओली के कार्यकाल में भारत के साथ संबंध खराब हुए हैं. पार्टी में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए ओली ने भारत के साथ सीमा विवाद को शुरू किया था, लेकिन इससे उनकी बात बनी नहीं. पार्टी में ऐसे अनेक मतभेद बढ़ते गये. राष्ट्रवाद का सवाल था, तो सभी लोगों ने समर्थन कर दिया था, लेकिन ओली के मंतव्य पर पार्टी के भीतर सवाल खड़े हुए. भारत ने संबंध सुधारने की कोशिश की, तो अब वे एक नये रास्ते पर चल पड़े हैं. वहां रॉ प्रमुख और सेना प्रमुख को भेजा गया.

विदेश सचिव का भी नेपाल दौरा हुआ. विदेशमंत्री और प्रधानमंत्री ने भी उनसे बात की. तमाम प्रयासों से हालात बेहतर करने की कोशिश हो रही है. अब वे एक नया सिलसिला शुरू कर रहे हैं, जिससे स्थिति और भी गंभीर हो रही है. ऐसे फैसले से नेपाल में अस्थिरता के हालात उत्पन्न हो रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद क्या होगा? चुनाव कब और कैसे होंगे तथा कौन सी पार्टी सत्ता में आयेगी? ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनका भविष्य में ही जवाब मिल पायेगा. अगर यह मसला संसद में वापस जाता है, तो वहां क्या स्थिति बनेगी, इस पर अभी कुछ स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता है. अभी यह सब अनिश्चितता में है. वहां एक व्यवस्था बनी थी कि ढाई साल तक कोई अविश्वास प्रस्ताव नहीं आयेगा, अब ढाई साल पूरे हो गये हैं, तो उन्होंने ऐसा फैसला ले लिया.

संविधान में यह कहीं नहीं लिखा है कि प्रधानमंत्री संसद को भंग कर सकता है, जब उसके पास बहुमत हो. उन्होंने अभी पार्टी तोड़ी नहीं है. कानूनी रूप से उनकी पार्टी सत्ता में है, तो वे संसद को कैसे भंग कर सकते हैं? बहुमत के लिए कोई चुनौती नहीं है, तो यह फैसला लेने का आखिर औचित्य ही क्या है? अगर उनके पास बहुमत है, तो संसद में अपना बहुमत साबित करें. अगर नहीं है, तो इस्तीफा दें.

संवैधानिक प्रक्रिया का अनुपालन होना आवश्यक है. अब आगे भी समस्याएं आयेंगी, इसके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन होंगे. पहले से भी वहां कानून-व्यवस्था को लेकर चिंता है. भूकंप के बाद की स्थिति सुधरी नहीं है. कोविड-19 का गंभीर मसला है. ऐसे तमाम मुद्दों का हल होना बाकी है.

Posted by : Sameer Oraon

Exit mobile version