भारत में 20 करोड़ लोग अभी तक कोरोना वायरस का शिकार हो चुके हैं और 2,15,000 लोग जान गंवा चुके हैं. जिस देश की 27 करोड़ आबादी पहले से ही गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करती हो, वहां इस तरह की महामारी और भी भयावह है. जब अंतिम संस्कार के लिए 25,000 से 30,000 रुपये लग रहे हों, एंबुलेंस वाले दो किलोमीटर के 10,000 मांग रहे हों, निजी अस्पतालों का बिल लाखों में हो, सरकारी अस्पताल अव्यवस्था ग्रस्त हों, ऑक्सीजन व इंजेक्शन के लिए लोग तय कीमत से कई सौ गुना ज्यादा चुका रहे हों, वहां हालात की गंभीरता को आसानी से समझा जा सकता है.
व्यापार-उद्योग बंद होने से बेरोजगारी व कम वेतन के खतरे से मध्य व निम्न मध्य वर्ग में गरीबी तेजी से फैल रही है. लोग घर-जमीन-जेवर बेच कर इलाज करवा रहे हैं और देखते ही देखते खाता-पीता परिवार गरीब हो रहा है. स्वास्थ्य गुणवत्ता एवं उपलब्धता की रैंकिंग में हम 180 देशों में 145वें स्थान पर हैं. चिकित्सा सेवा के मामले में भारत के हालात श्रीलंका, भूटान व बांग्लादेश से भी बदतर हैं. इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण में यह स्वीकार किया गया कि इलाज कराने में भारतीयों की सबसे ज्यादा जेब ढीली होती है, क्योंकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी निवेश बहुत कम है.
देश की चार फीसदी आबादी अपनी आय का एक चौथाई धन डॉक्टर-अस्पताल के चक्कर में गंवा देती है. वहीं 17 प्रतिशत जनता अपनी कुल व्यय क्षमता का 10 फीसदी से ज्यादा इलाज-उपचार पर खर्च करती है. यह दुनिया में सर्वाधिक है. भारत में 65 प्रतिशत लोग यदि बीमार हो जायें, तो व्यय वे खुद वहन करते हैं.
मानक के अनुसार, प्रति 10 हजार आबादी पर औसतन 46 स्वास्थ्यकर्मी होने चाहिए, लेकिन हमारे यहां 23 से भी कम हैं. अब कोरोना महामारी विस्फोट कर चुकी है. आंचलिक कस्बों की बात तो दूर राजधानी दिल्ली के एम्स या सफदरजंग जैसे अस्पतालों की भीड़ और आम मरीजों की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है. हम जरूरत के मुताबिक डॉक्टर तैयार नहीं कर पा रहे है, दूसरा बड़ी आबादी न तो स्वास्थ्य के बारे में पर्याप्त जागरूक है और न ही उनके पास आकस्मिक चिकित्सा के लिए कोई बीमा या अर्थ की व्यवस्था है.
पिछले सत्र में सरकार ने बताया कि देश में 8.18 लाख डॉक्टर हैं. यदि आबादी को 1.33 अरब मान लिया जाये तो औसतन प्रति हजार व्यक्ति पर एक डॉक्टर का आंकड़ा भी बहुत दूर लगता है. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अनुसार, 2017 में देश के साढ़े पांच करोड़ लोगों द्वारा स्वास्थ्य पर किया गया व्यय ओओपी यानी आउट ऑफ पॉकेट या औकात से अधिक व्यय की सीमा से पार रहा. इनमें से 60 फीसदी यानी तीन करोड़ अस्सी लाख लोग अस्पताल के खर्चों के चलते बीपीएल यानी गरीबी रेखा से नीचे आ गये.
लोगों की जान और जेब पर सबसे भारी पड़ने वाली बीमारियों में ‘दिल और दिमागी दौरे’ सबसे आगे हैं. वर्ष 2015 में दर्ज 53,74,824 मौतों में से 32.8 प्रतिशत इस तरह के दौरों के कारण हुई. एक अनुमान है कि भारत में उच्च रक्तचाप से ग्रस्त लोगों की संख्या 2025 तक 21.3 करोड़ हो जायेगी. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के अनुसार पूरी संभावना है कि यह वृद्धि असल में ग्रामीण इलाकों में होगी.
भारत में हर साल करीब 17,000 लोग उच्च रक्तचाप की वजह से मर रहे हैं. यह बीमारी बिगड़ती जीवनशैली, शारीरिक गतिविधियों के कम होते जाने और खानपान में नमक की मात्रा की वजह से होती है. कुछ सर्वेक्षण बता रहे हैं कि 19-20 साल के युवा भी इसके शिकार हो रहे हैं. उच्च रक्तचाप और उससे व्यय की चिंता इंसान को मधुमेह यानी डायबिटीज और हाइपर थायरायड का भी शिकार बना देती है. पहले ही गरीबी, विषमता और आर्थिक बोझ से दबा हुआ ग्रामीण समाज, उच्च रक्तचाप जैसी नयी बीमारी की चपेट में और लुट-पिट रहा है.
डायबिटीज देश में महामारी की तरह फैल रही है. इस समय 7.4 करोड़ लेाग मधुमेह के शिकार हैं. बीते 25 वर्षों में भारत में डायबिटीज के मरीजों की संख्या में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. डायबिटीज अपने साथ किडनी, त्वचा, उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारियां साथ लेकर आता है. एक बार दवा शुरू कर दें, तो इसकी मात्रा बढ़ती ही जाती है. स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जरता की बानगी सरकार की सबसे प्रीमियम स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस यानी केंद्रीय कर्मचारी स्वास्थ्य सेवा है जिसके तहत पत्रकार, पूर्व सांसद आदि आते हैं.
इस योजना के तहत पंजीकृत लोगों में 40 फीसदी डायबिटीज के मरीज हैं. स्टेम सेल से डायबिटीज के स्थायी इलाज का व्यय सवा से दो लाख रुपये है लेकिन सीजीएचएस में यह इलाज शामिल नहीं है. ऐसे ही कई अन्य रोग हैं जिनकी आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध है लेकिन सीजीएचएस में उसे शामिल ही नहीं किया गया.
जर्जर स्वास्थ्य ढांचे के बीच कोरोना ने चौदह महीनों से भारत के आंचलिक गांवों तक अपने पाश में कस लिया है. दवा और मूलभूत सुविधाओं का अकाल है, मजबूरी में लोग ऑक्सीजन और वेंटिलेटर बेड के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भर हैं जहां प्रति दिन चादर- तकिया कवर के 2500 रुपये, खाने के 2000 रुपये और दवाओं के नाम पर मनमानी वसूली हो रही है. आम लोगों की प्राथमिकता उनके परिवारजन का निरोग होना है और इसी उम्मीद में वे गरीबी के दलदल में धकेले जा रहे है.