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हमारे संयम से ही थमेगा बेकाबू कोरोना

अपने लोकतांत्रिक, प्रशासनिक, सामाजिक और धार्मिक नेटवर्क के समुचित उपयोग से कोरोना नियमों पर जोर देकर भारत अब भी संक्रमण के तेज प्रसार को नियंत्रित कर सकता है.

करीब बीस लाख जानें लेनेवाली महामारी जब से आयी है, भारत वायरस रोकने की अपनी क्षणिक सफलताओं पर प्रसन्न होता रहा है. कुछ समय पहले तक हमारे देश में आबादी के अनुपात में सबसे कम सक्रिय मामले थे. मृत्यु दर अब भी सबसे कम है, लेकिन बीते सप्ताह से संक्रमण के रोजाना सबसे अधिक आंकड़े आ रहे हैं. कुल संक्रमण की संख्या 14 मिलियन के करीब है.

चार सप्ताह से भी कम समय में ठीक होने की दर लगभग चार प्रतिशत घट गयी है. संक्रमण की दर सात प्रतिशत से अधिक के खतरनाक स्तर को छू रही है. कई शहरों में बुनियादी दवाओं की कमी हो रही है. मांग और आपूर्ति में संतुलन नहीं होने के कारण टीकाकरण अभियान की गति धीमी हो गयी है. आयातित वस्तुओं की कम आपूर्ति और वित्तीय सीमाओं के कारण टीका उत्पादन की प्रक्रिया बाधित हो रही है. सरकारों द्वारा नयी पाबंदियां लगाने से प्रवासी कामगारों का शहरों से गांव लौटने का सिलसिला फिर शुरू हो गया है.

हालांकि स्थिति एक साल पहले की तरह निराशाजनक नहीं है, लेकिन महामारी के प्रकोप के फिर से बढ़ने का प्रेत लगभग हर भारतीय को सता रहा है. न केवल पूर्व और वर्तमान मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री कोरोना संक्रमित हो रहे हैं, बल्कि अपने स्वघोषित सुरक्षित क्षेत्रों में रहनेवाले धनी और प्रसिद्ध लोग भी नहीं बच पा रहे हैं. बॉलीवुड और खेल जगत के अधिकतर नामी लोग या तो क्वारंटीन में हैं या अस्पताल में भर्ती हैं.

देशभर के विख्यात संस्थानों के छात्रावासों को वायरस ने भेद दिया है. प्रतिष्ठित अस्पतालों के डॉक्टर और नर्स भी इस हमले से नहीं बच सके हैं. दूसरी या तीसरी लहर जैसी संज्ञाओं को छोड़िए, केवल संक्रमण की तीव्रता ही भयावहता की बड़ी सुनामी की ओर इंगित कर रही है. त्रासदी यह है कि कोई भी इस तबाही की जिम्मेदारी नहीं ले रहा है. राजनेताओं से लेकर ताजा उगे महामारी विशेषज्ञों तक, सभी इसके उभार के लिए लोगों को दोष दे रहे हैं. ये अखबारों में लेख लिखते हैं, टीवी की बहसों में हिस्सा लेते हैं और वायरस को रोकने के लिए औपचारिक नीति बनाने के लिए दोषपूर्ण सबूत पेश करते हैं.

ये बार-बार यह बकवास दुहराते हैं कि बहुत सारे लोग मास्क पहनने, सामाजिक दूरी बरतने और हाथ धोते रहने में कोताही करते हैं. संक्रमण फैलने के शुरुआती कुछ महीनों के दौरान हर नेता, सामाजिक असर रखनेवाला, अभिनेता, खिलाड़ी, यहां तक कि साधुओं व ज्योतिषियों को मीडिया के जरिये सरल व्यवहारों को प्रचारित करने में लगाया गया था. शीर्षस्थ स्क्रिप्ट लेखकों से ‘दो गज की दूरी, मास्क है जरूरी’ जैसे नारे लिखवाये गये. हर राजनेता मास्क के साथ और बीस सेकेंड हाथ धोते हुए अपनी तस्वीरें लगाता था.

लेकिन यह सब प्रतिस्पर्द्धात्मक कोलाहल कोरोना मामलों के घटने के साथ ही थम गया. भारत का महामारी प्रबंधन सफलता की एक वैश्विक कहानी बन गया. संभवत: सफलता भारत का सबसे बुरा शत्रु है. प्रशासकों और नेताओं की सतर्कता घटती गयी. मनोरंजन करनेवाले, समाचार संगठन, लोक सेवक और कारोबारी कोरोना नियमों को लागू करना भूलते गये. वे पार्टियां करते देखे जाने लगे, मानो मजा करना चलन से बाहर हो रहा था.

सभी त्योहार मनाये जाने लगे, मानो देश ने दुष्ट संक्रमण से पीछा छुड़ा लिया हो. विशेष अवसरों पर डिजाइनर मास्क फैशन की चीज हो गये. सामाजिक दूरी असामाजिक व्यवहार है. अब जब कि नयी लहर ने युवाओं, मध्य वर्ग और धनिकों को निशाना बनाया है, तब उनका यह मानना गलत साबित हुआ है कि लॉकडाउन के दौरान उन्होंने समुचित निरोधक क्षमता हासिल कर ली थी.

चुनावों ने स्थिति को बदतर बना दिया. चौदह करोड़ से अधिक मतदाताओं वाले पांच राज्यों में सत्ता के लालच में कोरोना सतर्कता की बलि दे दी गयी. शायद ही कोई ऐसा नेता होगा, जो अपने सजे रथ से बिना मास्क के बड़ी मुस्कान न बिखेरता हो. इन नेताओं के संग बिना मास्क के हजारों समर्थक नाचते और नारे लगाते देखे जा सकते थे. बिना मास्क वाले बहुत से नेता आधिकारिक कार्यक्रमों में मास्क के साथ देखे जाते थे, जहां उनका उद्देश्य मास्क की उपयोगिता से कहीं अधिक उसकी विशेष गुणवत्ता का प्रदर्शन करना था.

देश के पास मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर है और सोशल नेटवर्क भी. उत्पादन और वितरण की मजबूरियों को देखते हुए टीकाकरण लंबी अवधि का काम है. अपने लोकतांत्रिक, प्रशासनिक, सामाजिक और धार्मिक नेटवर्क का समुचित उपयोग से कोरोना नियमों पर जोर देकर भारत अभी भी संक्रमण के तेज प्रसार को नियंत्रित कर सकता है. क्यों किसी महानुभाव ने 2.60 लाख पंचायती राज संस्थाओं के तीस लाख से अधिक सदस्यों को मास्क पहनने, सामाजिक दूरी बरतने और हाथ धोने का आग्रह करने के काम में लगाने की नहीं सोची?

जनगणना और चुनाव में लगाये जानेवाले करीब एक करोड़ शिक्षकों को महामारी में उचित व्यवहार अपनाने के निवेदन में नहीं जोड़ा गया? रहस्यमयी स्रोतों से पैसा हासिल करनेवाले ढाई लाख से अधिक स्वैच्छिक संस्थाएं राजकीय तंत्र की मदद के लिए आगे क्यों नहीं आयीं? सबसे बड़ी बात तो यह कि हमारे 788 सांसद और 41 सौ से अधिक विधायक शायद ही लोगों से मास्क पहनने का अनुरोध करते देखे गये. वोटों के लिए शासकों ने संक्रमण के तेज प्रसार के लिए जिम्मेदार बड़े-बड़े आयोजनों की अनुमति दी और उनका संरक्षण किया.

किसी भी निर्वाचित प्रतिनिधि ने यह दावा नहीं किया कि उसने अपने क्षेत्र में कोरोना नियमों का पालन सुनिश्चित कराया है. जग्गी वासुदेव, श्री श्री रविशंकर और बाबा रामदेव जैसे सामाजिक गुरुओं को शायद ही अपने समृद्ध अनुयायियों को नियमों के पालन की सलाह देते देखा गया है.

ये लोग खुद ही बिना मास्क पहने घूम रहे हैं, मानो इनको शाही और अचूक प्रतिरोधक क्षमता मिल गयी हो. किसी भी बड़े कॉरपोरेट ने सार्वजनिक जगहों या अपने कार्यालय परिसर में मास्क वितरित करने की व्यवस्था नहीं की है. ये लोग सरकारी पहलों में उदारतापूर्वक योगदान कर सकते हैं. शुरू में आक्रामक दिख रहे फिल्म स्टार भी शूटिंग करने लग गये और संक्रमित हो गये.

पैसा उगलनेवाला क्रिकेट भी नहीं थमा. असल में प्रवृत्ति यह है कि आर्थिक लाभ बना रहे, भारतीयों का जीवन भाड़ में जाए. भारतीयों को जोखिम उठानेवाला, अनुपालन करनेवाला और तार्किक माना गया है. महामारी में इनके व्यवहार से एक और मुहावरा बना है- बेफिक्र भारतीय. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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