प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा है तबाही
ग्लेशियर पिघलने से ऊंची पहाड़ियों में कृत्रिम झीलों का निर्माण होता है. इनके टूटने से बाढ़ की आशंका बढ़ती है, नतीजतन ढलान में बसी आबादी पर खतरा बढ़ जाता है.
सात फरवरी की सुबह तबाही से समूचे उत्तराखंड में हाहाकार मचा है. ग्लेशियर पिघलने के बाद पानी के दबाव से धौलीगंगा का बांध टूटा, जिससे धौली नदी में बाढ़ आ गयी. तपोवन रैणी स्थित ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट बराज पूरी तरह ध्वस्त हो गया. बांध टूटने और जल सैलाब से हर ओर तबाही का मंजर है. समीपस्थ गांवों का शेष दुनिया से संपर्क टूट गया है.
जोशीमठ-मलाटी पुल घ्वस्त हो गया है, जो सेना को ऊपरी सीमावर्ती इलाकों में जाने के काम में आता था. बाढ़ का पानी छिनका होते हुए चमोली तथा नंद प्रयाग तक जा पहुंचा है. टिहरी बांध का पानी रोक दिया गया है, ताकि नदी के बहाव में बढ़ोतरी न हो. इस आपदा में प्रशासन द्वारा तकरीब सवा दो सौ लोगों के लापता होने का अंदेशा जाहिर किया जा रहा है. कई लोगों को आशंका है कि यह तादाद इससे अधिक भी हो सकती है. वास्तविक संख्या के बारे में निश्चित जानकारी कुछ दिनों के बाद ही मिल सकेगी.
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का कहना है कि यह तबाही भारी बारिश से ऋषि गंगा प्रोजेक्ट में यकायक पानी आने से हुई है. पर्यावरण कार्यकर्ता व जाने-माने किसान नेता भोपाल सिंह चौधरी का कहना है कि स्थानीय निवासी इस आपदा को धारी देवी के अपमान से जोड़ कर देखते हैं. वैज्ञानिक इस घटना को ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ कर देख रहे हैं. वे बरसों से चेता रहे हैं कि समूची दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेशियर लगातार पिघल कर खत्म होते जा रहे हैं.
दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटी माउंट एवरेस्ट बीते पांच दशकों से लगातार गर्म हो रहा है. नतीजतन, उसके आस-पास के हिमखंड तेजी से पिघल रहे हैं. यह भी सच है कि वह चाहे हिमालय के ग्लेशियर हों या तिब्बत के या फिर आर्कटिक ही क्यों न हो, वहां बर्फ के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है. विभिन्न अध्ययन रेपोर्ट सबूत हैं कि बढ़ते तापमान के चलते हिमालय के तकरीब साढ़े छह सौ से अधिक ग्लेशियरों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है.
उनकी पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो गयी है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ अर्थ के अनुसार, भारत, नेपाल, भूटान और चीन में तकरीब दो हजार किलोमीटर के इलाके में फैले 650 से ज्यादा ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते लगातार पिघल रहे हैं. साल 1975 से 2000 और 2000 से 2016 के बीच हिमालयी क्षेत्र के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी का दुष्परिणाम ग्लेशियरों के तेजी से पिघल कर खंड-खंड होने के रूप में सामने आया. साल 1975 से 2000 के बीच जो ग्लेशियर हर साल दस इंच की दर से पिघल रहे थे, वह 2000 से 2016 के बीच हर साल बीस इंच की दर से पिघलने लगे.
बीते बरसों में डॉ मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि हिमालयी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं. उसने सरकार से सिफारिश की थी कि हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के व्यापक अध्ययन के लिए पर्याप्त वित्तीय आवंटन और आधारभूत ढांचा मुहैया कराये जाने की बेहद जरूरत है. साथ ही, यहां पर्यटन की गतिविधियों को भी नियंत्रित किया जाना बेहद जरूरी है.
यदि समय रहते ऐसा नहीं किया गया, तो इसके दुष्परिणाम बहुत भयावह होंगे. संयुक्त राष्ट्र की संस्था आइपीसीसी दस साल पहले यह चेता चुकी है कि हिमालय के सभी ग्लेशियर 2035 तक और आइसलैंड के सभी ग्लेशियर आने वाले 200 सालों में ग्लोबल वार्मिंग के चलते खत्म हो जायेंगे. अब यह स्प्ष्ट है कि हिमालय के कुल 9600 के करीब ग्लेशियरों में से तकरीब 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल कर झरने और झीलों का रूप अख्तियार कर चुके हैं.
यदि यही सिलसिला जारी रहा, तो बर्फ से ढंका यह पर्वत आनेवाले कुछ सालों में बर्फ विहीन हो जायेगा. यह सब हिमालयी क्षेत्र में तापमान में तेजी से हो रहे बदलाव के साथ-साथ अनियोजित विकास का परिणाम है. हिमालय के जंगलों में लगी आग से निकला धुंआ और कार्बन से ग्लेशियरों पर एक महीन सी काली परत पड़ रही है. यह कार्बन हिमालय से निकलनेवाली नदियों के पानी के साथ बहकर लोगों तक पहुंच रहा है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा है.
गर्म हवाओं के कारण इस क्षेत्र की जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. यह बेचैन कर देनेवाली स्थिति है. दरअसल, जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियां और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बड़ा कारण है. इसमें दो राय नहीं कि हिमालयी क्षेत्र में सबसे ज्यादा तकरीब 10,000 ग्लेशियर हैं. अकेले उत्तराखंड में 900 से ज्यादा ग्लेशियर हैं.
हमारे जीवन में इनके महत्व को नकारा नहीं जा सकता. इनसे निकली नदियां हमारी जीवनदायिनी हैं. यह अब किसी से छिपा नहीं है कि ग्लेशियर के दिनों-दिन तेजी से पिघलने से झीलों के बनने की दर में भी बढ़ोतरी होगी, जो भयावह खतरे का संकेत है. यह अगर इसी रफ्तार से बढ़ता रहा, तो एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब पेयजल समस्या तो भयावह रूप धारण कर ही लेगी, पारिस्थितिक तंत्र भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा.
इसलिए जहां बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से प्राथमिकता के आधार पर लड़ना बेहद जरूरी है. वहीं ग्लेशियर से बनी झीलों से उपजे संकट का समाधान भी बेहद जरूरी है. तभी कुछ बदलाव की आशा की जा सकती है.
वैज्ञानिक डॉ डीपी डोभाल कहते हैं कि यदि तापमान इसी तरह बढ़ता रहा, तो हिमालय के एक-तिहाई ग्लेशियरों पर मंडराते संकट को नकारा नहीं जा सकता. इससे पहाड़ी, मैदानी इलाके के 30 करोड़ लोग प्रभावित होंगे. निश्चित है कि मानव जीवन और कृषि उत्पादन पर तो विपरीत प्रभाव पड़ेगा ही, पेयजल संकट भयंकर रूप ले लेगा और बाढ़ तथा जानलेवा बीमाारी जैसी समस्याएं सुरसा के मुंह की तरह बढ़ जायेंगी.
गौरतलब है कि ग्लेशियर पिघलने से ऊंची पहाड़ियों में कृत्रिम झीलों का निर्माण होता है. इनके टूटने से बाढ़ की सआशंका बढ़ती है. नतीजतन ढलान में बसी आबादी पर खतरा बढ़ जाता है. ग्लेशियरों से निकलनेवाली नदियों पर भारत, चीन, नेपाल और भूटान की कमोबेश 80 करोड़ आबादी निर्भर है. इन नदियों से सिंचाई, पेयजल और बिजली का उत्पादन होता है. यदि यह पिघल गये, उस हालत में सारे संसाधन खत्म हो जायेंगे और ऐसी आपदाओं में बढ़ोतरी होगी.
Posted By : Sameer Oraon