राशिद किदवई
राजनीतिक विश्लेषक
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कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार से प्रणब मुखर्जी का खट्टा-मीठा रिश्ता रहा है. जहां प्रणब दा इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र और नंबर दो के मंत्री रहे, वहीं राजीव गांधी से उनके संबंध खट्टे रहे और शायद राजीव के कारण ही प्रणब मुखर्जी देश के प्रधानमंत्री बनने से वंचित रहे. प्रणब दा को इस बात का जिंदगी भर मलाल रहा. जीवन के अंतिम 15 वर्षों में उन्हें डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में काम करना पड़ा, जिन्हें उन्होंने एक समय भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में मनोनीत किया था.
प्रणब मुखर्जी से पहले बारह राष्ट्रपतियों की बात करें, तो वह किसी न किसी खास उपलब्धि के लिए याद किये जाते रहे हैं. चाहे वह केआर नारायणन हों, डॉ शंकर दयाल शर्मा या फिर एपीजे अब्दुल कलाम हों. पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायण ने उस वक्त प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिख कर याद दिलाया था कि क्यों न न्यायिक सेवाओं में दलितों, पिछड़े वर्गों का भी आरक्षण हो. हालांकि, इस पर कुछ हुआ तो नहीं, लेकिन चर्चा जरूर हुई.
जब पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे, उस वक्त के राष्ट्रपति डॉ शंकरदयाल शर्मा ने 6 दिसंबर, 1992 को हुए बाबरी विध्वंस के बाद कहा था कि यह देश के लिए अच्छा नहीं है. लेकिन, इसका एक असर ये हुआ कि लोगों ने चर्चा की कि देश के प्रथम नागरिक संवेदनशील हैं. वहीं डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने अपने कार्यकाल के दौरान युवाओं के बीच एक अलग पहचान बनायी.
डॉ कलाम ने पूरे भारत में घूम कर करीब एक करोड़ 70 लाख युवाओं से मुलाकात की थी. राजनीति के कुशल खिलाड़ी के रूप में भले ही प्रणब मुखर्जी अपना एक विशेष स्थान रखते हों, लेकिन राष्ट्रपति के रूप में उनका राजनीतिक कौशल नहीं दिखा. राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपने आप को एक दायरे तक ही सीमित रखा. हालांकि, वह कई ऐसी चीजें बोल और लिख सकते थे, लेकिन उन्होंने अपने आप को सरकार के सहयोगी के रूप में ही पेश किया.
उन्होंने राष्ट्रपति रहते दोनों प्रधानमंत्रियों डॉ मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी का पूरा सहयोग किया. दोनों सरकारों से उन्होंने बेहतर तालमेल रखा. कोई भी बिल हो या कोई भी मामला, प्रणब मुखर्जी ने सरकार के प्रति कभी अविश्वास जाहिर नहीं किया. उदाहरण के लिए राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने पर वह अपनी राय रख सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी राय नहीं रखी. राष्ट्रपति भवन से विदाई लेते समय जरूर उन्होंने सरकार को अध्यादेश लाने से बचने की नसीहत दे डाली.
अपने विदाई भाषण में प्रणब मुखर्जी ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ अपने संबंधों का जिक्र भी किया और कहा कि उनके प्रति विनम्र व्यवहार के लिए वह हमेशा मोदी को याद रखेंगे. प्रधानमंत्री मोदी ने 2017 में एक कार्यक्रम के दौरान प्रणब को ‘पिता की तरह’ बताया था. इसे राजनीतिक शिष्टाचार का बड़ा उदाहरण भी मान सकते हैं, लेकिन सवाल यहां यह भी नहीं है कि उनका सरकार से तालमेल कैसा रहा, सवाल यह है कि जब 25 जुलाई, 2012 को उन्होंने राष्ट्रपति पद की शपथ ली, उस समय देश की 125 करोड़ जनता की उनसे काफी उम्मीदें जुड़ गयी थीं, क्योंकि भारतीय संविधान में राष्ट्रपति संसद और सरकार से ऊंचा पद होता है.
हालांकि, विश्वसनीयता और गोपनीयता के मामले में प्रणब मुखर्जी पर कोई सवाल खड़ा करना मुश्किल है. शायद ही उनके संस्मरण में मोदी या मोदी काल की घोर निंदा और आलोचना निकले. एक समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने विनोदी भाव में तो यहां तक कहा था कि प्रणब के मुंह से राज नहीं, सिर्फ धुआं निकलेगा. प्रधानमंत्री मोदी के तीन साल के शासन काल में ऐसे कई मुद्दे रहे, जिन पर प्रणब मुखर्जी ने अपनी जुबान तक नहीं खोली. चाहे वह नोटबंदी का फैसला हो या फिर सर्जिकल स्ट्राइक का मामला.
प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति रहते कई राज्यपालों ने कई गैर जिम्मेदाराना बयान दिये, लेकिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कभी इस पर अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी. उदाहरण के लिए, असम के राज्यपाल पीबी आचार्य को गैर-जिम्मेदाराना बयान के लिए बर्खास्त किये जाने की मांग बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने की थी. आचार्य ने कहा था कि ‘हिंदुस्तान केवल हिंदुओं के लिए है’, जो कि एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए गैर जिम्मेदाराना था. इसी तरह त्रिपुरा के राज्यपाल ने अनेक विवादित बयान दिये.
राष्ट्रपति भवन के बाद प्रणब मुखर्जी का आरएसएस के मुख्यालय जाना एक दिलचस्प वाकया था. शायद प्रणब दा सक्रिय राजनीति में वापस आना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस की ओर से कोई संकेत नहीं मिला और 2019 के नतीजे एकतरफा मोदी के पक्ष में आये, जिससे किसी भी वैकल्पिक अथवा मिलीजुली सरकार बनने की संभावना बिल्कुल खत्म हो गयी. प्रणब मुखर्जी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि वह अच्छी हिंदी नहीं बोल पाते हैं और एक जनप्रिय नेता नहीं हैं, जिस कारण से वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं बन सके.
देश और समाज प्रणब दा की जीवनी में एक ईमानदार और सटीक समीक्षा की उम्मीद रखता है. आशा है कि दादा ने 2014 से 2020 के समय को केवल कांग्रेस की भर्त्सना, सोनिया, राहुल, मनमोहन की खामियां गिनाने में न निकालकर देश और समाज में उपजी चुनौतियों का उल्लेख, नफरत, असहिष्णुता और झूठ के वातावरण और गरीब की बेबसी का भी जिक्र किया होगा.
posted by : sameer oraon