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जीवन की बुनियाद है परिवार

जीवन की बुनियाद है परिवार

By डॉ मोनिका | January 7, 2021 8:56 AM

डॉ मोनिका शर्मा

स्वतंत्र टिप्पणीकार

monikasharma.writing@gmail.com

किसी भी देश में सामाजिक व्यवस्था का ताना-बाना ही जीवन का आधार होता है. यह आधार ही परिवार माना गया है. नयी पीढ़ी को संस्कार देने या एक-दूजे के सुख-दुःख में साथ देने की बात हो, परिवार का महत्व कभी कम नहीं हो सकता. यूं भी भारतीय संस्कृति में परिवार को बहुत अहम बताया गया है. कहने को परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है, पर इसी की बुनियाद पर पूरी सामाजिक व्यवस्था की इमारत खड़ी है.

कोरोना संकट और रिश्तों के बिखराव के इस दौर में परिवार का महत्व और बढ़ा है क्योंकि सुरक्षा, सेहत और संबल हर पहलू के लिए परिवार की भूमिका अहम है. परिवार को वैश्विक समुदाय का लघु रूप कहा जाता है. एक ऐसी इकाई जो स्नेह और सहभागिता की मानवीय समझ को पोषित करनेवाला परिवेश तैयार करती है. वर्ष 2020 की कोरोना आपदा ने फिर से दुनिया को इसी मानवीय समझ और सामुदायिक सरोकारों की सोच की तरफ मोड़ा है.

समझाया है कि परिवार का हिस्सा बनना, अपनों के साथ एक छत के नीचे रहना भर नहीं है. यह एक संपूर्ण जीवनशैली है, जो परिवार के हर सदस्य को सुरक्षा और संबल की सौगात देती है. यह सच भी है, क्योंकि परिवार का हिस्सा होना भर ही उस सोच का आधार बनता है, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है. अपनी जड़ों से जुड़े रहना दुनिया के किसी भी कोने में बसे इंसान के आज और आनेवाले कल दोनों को ही स्थायित्व देनेवाला होता है.

संकट में साथ और सहयोग की आशा से लबरेज रखता है. कुछ वर्ष पहले हेल्प एज इंडिया द्वारा किये गये एक सर्वे में सामने आया कि लगभग 40 प्रतिशत भारतीय परिवार संयुक्त परिवार की तरह रह रहे हैं और संस्कृति और संबंध दोनों को सहेजने का काम कर रहे हैं. तमाम दुनियावी बदलावों के बावजूद यह वह कड़ी है, जो नयी पीढ़ी को भी समाज से जोड़े रखती है.

हमारे देश की पारिवारिक सुदृढ़ता दुनियाभर में उदाहरण मानी जाती है. कोरोना से उपजी विपदा के दौर में भी परिवार और समाज ने कई मुश्किलों को आसान किया, लोगों का मनोबल बढ़ाया, भय-भ्रम दूर किया. इसी के चलते आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परेशानियों के माहौल में जहां प्रवासी श्रमिक परिवार के पास गांव-कस्बे लौटे, वहीं विदेशों में बसे भारतीयों ने भी अपनों के पास, अपने वतन आने की राह पकड़ी.

न्यूयाॅर्क के कॉर्नेल विश्वविद्यालय में भारत में आधुनिकीकरण और घरेलू बदलावों पर हुए अध्ययन के अनुसार, हमारे देश में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखा है. आज भी लोग संयुक्त परिवारों में रहना पसंद कर रहे हैं. कोरोना काल में भले ही सोशल डिस्टेंसिंग के पालन में मुश्किलें आयीं, पर अपने परिवार के साथ रहनेवालों के बीच संबंधों में दूरियां नहीं, बल्कि नजदीकियां बढ़ी हैं.

महामारी में अपनों के साथ और संबल ने जीवन सहेजने का काम किया है. यह बात फिर पुख्ता हुई है कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, अपनों का साथ हर उम्र के लोगों को हिम्मत देता है. रिश्तों का यह तानाबाना बच्चों को स्नेह बांटना सिखाता है, तो बड़ों को सुरक्षा और सम्मान की सौगात देता है. बुरे हालातों में भी परिवार के सहयोग से विचलित हुए बिना समस्याएं हल की जा सकती हैं.

निःसंदेह, कोरोना संकट ने परिवार की अहमियत को और रेखांकित किया है. बीते कुछ बरसों से नयी पीढ़ी भी परिवार का महत्व समझने लगी है, पर इस आपदा ने तो हर आयु वर्ग के लोगों को अपनों से गहरायी से जोड़ दिया है. एक मैट्रोमोनियल साइट के सर्वे की मानें, तो आज के युवा भी अपनों के साथ रहना और सबके साथ मिलकर अपने सपनों को पूरा करना चाहते हैं.

बदली जरूरतों और बढ़ती जिम्मेदारियों के बीच युवा अब अपनों और परिवार के साथ का अर्थ समझने लगे हैं. यह जरूरी भी है, क्योंकि जीवन की जद्दोजहद और अनिश्चितता के परिवेश में आज परिवार ही मन-जीवन की बुनियाद बन सकता है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट इंदौर के अध्ययन के अनुसार, कोरोना आपदा के दौर में परिवारजनों द्वारा एक साथ समय बिताने और हंसने-मुस्कुराने से कोविड का तनाव तो कम हुआ ही, परिवार में एक-दूसरे के प्रति विश्वास भी और बढ़ा है.

दरअसल, परिवार जैसी सामाजिक संस्था बुजुर्गों के लिए सुरक्षा कवच के समान है, तो बच्चों के लिए संस्कार की पाठशाला. युवाओं को मार्गदर्शन और सुरक्षा का साया देने वाली पारिवारिक व्यवस्था आज की उच्च शिक्षित और कामकाजी महिलाओं के लिए भी सपोर्ट सिस्टम की तरह है. कई शोध बताते हैं कि संयुक्त परिवार में कामकाजी स्त्रियां तनाव और चिंता का शिकार नहीं बनतीं.

बच्चों को अकेले छोड़ने का अपराध बोध उनके मन में नहीं पलता. घरेलू सहायकों के भरोसे बच्चों को छोड़ना और घर व कार्यालय की जिम्मेदारी में उलझे रहना महिलाओं को तनाव का शिकार बनाता है. मौजूदा समय में देश की प्रत्यक्ष श्रमशक्ति में 40 प्रतिशत तथा अप्रत्यक्ष श्रमशक्ति में 90 प्रतिशत योगदान महिलाओं का है. अपनों का साथ पारिवारिक मोर्चे पर उनकी कई उलझनों को आसान करता है.

कोरोना महामारी ने दुनिया के हर हिस्से में बसे हर उम्र, हर तबके के लोगों को एक साथ कई सकारात्मक सबक सिखाये हैं. इस फेहरिस्त में परिवार की अहमियत सबसे ऊपर है. जीवन की अनिश्चितता को समझाने वाले इस दौर ने भारत को ही नहीं, वैश्विक स्तर पर लोगों को परिवार का महत्व समझाया है.

Posted By : Sameer Oraon

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