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खेती को और लाभप्रद बनाना होगा

खेती को और लाभप्रद बनाना होगा

By मोहन गुरुस्वामी | December 30, 2020 9:27 AM
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मोहन गुरुस्वामी

अर्थशास्त्री

mohanguru@gmail.com

कई दिनों से जारी संगठित किसान आंदोलन ने देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है. इसमें अधिकतर भागीदारी पंजाब और हरियाणा के किसानों की है. यह गुरुग्राम स्थित मारुति कार फैक्ट्री के कामगारों की हड़ताल की याद दिलाता है, जिसके स्थायी कामगार देश के औद्योगिक कामगारों में सबसे अधिक वेतन पाते हैं. दिल्ली की सीमा पर जुटे किसान देश सबसे संपन्न किसान हैं. वे लंबे समय से देश की शान और इसकी खाद्य सुरक्षा के आधार रहे हैं.

कभी अमेरिका से आती गेहूं की खेप के साये में बड़े होने से लेकर आज बहुत अधिक अनाज उपजाते भारत को देखनेवाले हमारे जैसे लोगों के लिए यह एक विशेष यात्रा रही है. वर्ष 1951 में रोजाना अन्न और दाल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता क्रमशः 334.7 और 60.7 ग्राम थी. अब यह आंकड़ा क्रमशः 451.7 और 54.4 ग्राम है. साल 2001 में तो दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता मात्र 29.1 ग्राम रह गयी थी.

इससे इंगित होता है कि हमारी राष्ट्रीय खाद्य नीति में अनाज उत्पादन पर अधिक ध्यान दिया जाता है. इस प्राथमिकता का सबसे बड़ा उत्प्रेरक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की नीति रही है. हालांकि एमएसपी के तहत 23 चीजें सूचीबद्ध हैं, पर व्यवहार में यह मुख्य रूप से धान और गेहूं के लिए है. ऐसे मूल्य दलहन और तिलहन के लिए हमेशा नहीं दिये जाते, जिनके कारोबार में भारतीय आयातक विदेशी विक्रेताओं व उत्पादकों के साथ निकटता से जुड़े हुए हैं.

गेहूं व धान के अलावा अन्य अनाजों और कपास के लिए कोई समर्थन मूल्य नहीं है, केवल बातें होती हैं. एमएसपी कई तरह से भारत की खाद्यान्न प्रणाली की जड़ प्रकृति को प्रतिबिंबित करता है, जिसमें खरीद सबसे अधिक दाम पर होती है और उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत सबसे काम दाम पर बेचा जाता है. पीडीएस के अंतर्गत 80.9 करोड़ भारतीय लाभार्थी हैं. यह संख्या कुल अनुमानित आबादी का 59 प्रतिशत है. इसके बावजूद 10 करोड़ से अधिक लोग इससे वंचित हैं, जिन्हें यह लाभ मिलना चाहिए.

राज्यों के बीच भी वितरण असमान है.

एमएसपी मूल्य समुचित दाम पाने का अंतिम विकल्प होने की जगह पहला विकल्प है. इसका यह असर हुआ कि पंजाब, हरियाणा, उत्तरी तेलंगाना और तटीय आंध्र प्रदेश जैसे कुछ क्षेत्रों में अनाज का बहुत अधिक उत्पादन होने लगा और इस उत्पादन का बड़ा हिस्सा एमएसपी के तहत खरीदा जाने लगा. इस साल पंजाब और अन्य राज्यों में बहुत अच्छी पैदावार होने से यह समस्या और भी बढ़ गयी.

बहुत कम चावल खानेवाले राज्य पंजाब में इस साल धान का कुल उत्पादन पिछले साल की तुलना में लगभग 40 लाख मीट्रिक टन बढ़कर 210 लाख मीट्रिक टन से अधिक हो सकता है. पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश आदि अनेक राज्यों में एमएसपी पर खरीद 23 प्रतिशत से अधिक बढ़ गयी है, जहां केंद्र ने 18 दिसंबर तक 411.05 लाख मीट्रिक टन धान की खरीद की है.

देशभर में हुई इस खरीद में से अकेले पंजाब से 49.33 प्रतिशत यानी 202.77 लाख मीट्रिक टन की खरीद 30 नवंबर तक हुई है. सरकारी गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं है. पंजाब के लगभग 95 फीसदी किसान एमएसपी प्रणाली के दायरे में हैं. इस कारण औसत पंजाबी किसान परिवार देश में सबसे धनी है. एक आम भारतीय किसान परिवार की सालाना आमदनी 77,124 रुपये है, जबकि पंजाब में यह 2,16,708 रुपये है.

उत्पादकता और सिंचाई की अच्छी व्यवस्था के साथ यह तथ्य भी अहम है कि पंजाब और हरियाणा में खेती की जमीन का औसत आकार क्रमशः 3.62 और 2.22 हेक्टेयर है. इसके बरक्स भारत का राष्ट्रीय औसत 1.08 हेक्टेयर है. हालांकि देश की 55 फीसदी आबादी अभी भी खेती पर निर्भर है, लेकिन सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में इसका हिस्सा घटकर केवल 13 प्रतिशत रह गया है और इसमें लगातार गिरावट आ रही है.

किसानी को लाभदायक बनाने के लिए दो चीजें होनी आवश्यक हैं. पहला यह कि इससे कम लोग जुड़ें और दूसरा यह कि कृषि उत्पादों को अधिक दाम मिले. पहली स्थिति को हासिल करने के लिए औद्योगिकीकरण और आधुनिक क्षेत्रों का विस्तार तेजी से होना चाहिए और दूसरी चीज के लिए राज्य के हस्तक्षेपों के मकड़जाल में बहुत कमी करनी होगी.

किसानों की आत्महत्या भारतीय किसान की स्थिति का परिचायक बन चुका है. आबादी में 60 प्रतिशत किसान हैं, पर कुल आत्महत्याओं में उनका अनुपात मात्र 15.7 प्रतिशत है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, कृषि अर्थव्यवस्था के देश भारत में एक लाख आबादी में 13 आत्महत्याओं का अनुपात है, जो औद्योगिक धनी देशों के समान या उनसे कम है.

भारत में उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे गरीब राज्यों में आत्महत्या की दर कम है, जबकि अपेक्षाकृत धनी राज्यों, जैसे- गुजरात और पश्चिम बंगाल, में यह दर अधिक है. इससे स्पष्ट है कि आत्महत्या और आमदनी का कोई संबंध नहीं है. कृषि में सरकारी आवंटन का बड़ा हिस्सा अनुदानों में जाता है, जो आज वृद्धि में बहुत मामूली योगदान देते हैं.

उनसे सर्वाधिक लाभ धनी किसानों को होता है. दीर्घकालिक समाधान के लिए इन अनुदानों को समाप्त किया जाना चाहिए. सिंचाई का विस्तार करने की आवश्यकता भी है. वर्तमान में कुल कृषि भूमि का लगभग 35 प्रतिशत ही सिंचित है.

उत्पादक मूल्यों को नियंत्रित करने की सरकारी कोशिश को खत्म कर मुक्त बाजार व्यवस्था की ओर बढ़ना चाहिए. घरेलू कीमतों को कम रखने के लिए अधिक कीमत पर लगातार गेहूं या कपास का आयात इस हस्तक्षेप का प्रमाण है. जब तक खेती को अधिक लाभप्रद कारोबार नहीं बनाया जायेगा, तब तक किसानों को गरीबी और कर्ज से छुटकारा नहीं मिलेगा. भूमि का आकार छोटा होना भी गरीबी का बड़ा कारण है.

दो एकड़ से भी कम स्वामित्व रखनेवाले देश के करीब 83 प्रतिशत किसान छोटे या हाशिये के किसान माने जाते हैं. बीते ढाई दशक में सरकार की ओर से सिंचाई की कोई नयी व्यवस्था नहीं हुई है. इस दौरान अतिरिक्त सिंचाई के नये इंतजाम निजी ट्यूबवेलों से हुए हैं. ऐसे में व्यावसायिक स्तर की कोई खेती असंभव है तथा अधिकतर किसान बारिश और सरकार पर निर्भर रहने को मजबूर हैं.

Posted By : Sameer Oraon

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