अजीत रानाडे
अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
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ये वर्ष में प्रवेश के इस अवसर पर व्यापक आर्थिक स्तर पर हवाएं हमारे पक्ष में बहती दिख रही हैं. स्टॉक मार्केट पहले की तुलना में उच्च स्तर पर है. शेयर मूल्य सूचकांक मार्च की गिरावट के बरक्स लगभग 60 प्रतिशत ऊपर हैं. स्टॉक मार्केट को आगे की आर्थिक स्थितियों का सूचक माना जाता है. सो यह स्पष्ट रूप से ठोस आर्थिक पुनरुत्थान को इंगित कर रहा है.
बैंकिंग प्रणाली में नकदी की पर्याप्त उपलब्धता है. कई दशकों में ब्याज दरें सबसे निम्न स्तर पर हैं. बहुत समय के बाद भारतीय और पाश्चात्य नीतिगत दरों में अंतर सबसे कम है. मुद्रास्फीति की दर छह प्रतिशत से ऊपर है. लेनदारों के लिए इसका अर्थ यह है कि वास्तविक ब्याज दर शून्य के करीब या ऋणात्मक है. इससे सरकार को खुशी होनी चाहिए, क्योंकि वह पूरे तंत्र में सबसे बड़ी लेनदार है या फिर उन लोगों को, जो आवास ऋण या व्यवसाय बढ़ाने के लिए कर्ज लेने की सोच रहे हैं.
सितंबर में समाप्त हुई तिमाही के आंकड़े बता रहे हैं कि कई क्षेत्रों में कॉरपोरेट लाभ में शानदार बढ़ोतरी हुई है. सबसे प्रमुख सूचक, जिसे पर्चेजिंग मैनेजर इंडेक्स कहते हैं, लगातार चार महीने से बढ़ता जा रहा है. यदि ये सभी कारक नियुक्तियों और रोजगार के अवसरों को बढ़ाते हैं, तो इससे उपभोक्ता भरोसे को भी बल मिलेगा. व्यवसाय और उपभोक्ताओं का भरोसा एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं.
इसलिए, एक सकारात्मक वर्तुल बहुत स्वागतयोग्य होगा. वित्त मंत्री अभूतपूर्व बजट का आश्वासन दे रही हैं, जो संभवत: एक बड़े व्यय पैकेज का संकेतक है. इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च से निर्माण जैसे सहायक क्षेत्रों को लाभ होने के साथ रोजगार में भी मदद मिलेगी.
लेकिन निराशाजनक पहलू की ओर इशारा करना भी जरूरी है. पहली बात, भले ही अगले साल तेज बढ़ोतरी की अपेक्षा है, लेकिन यह साल मंदी का है. हमारे सकल घरेलू उत्पादन और राष्ट्रीय आय में आठ से दस प्रतिशत की कमी आयेगी. अगले साल यदि 10 से 12 प्रतिशत की भी वृद्धि होती है, तब भी दो सालों तक आय वृद्धि शून्य से थोड़ी ही ऊपर रहेगी. दूसरी बात, कड़े लॉकडाउन और उससे पहले के चार सालों में गिरावट के कारण संभावित आर्थिक वृद्धि दर गिरकर संभवत: पांच प्रतिशत के आसपास आ गयी है.
इसके ऊपर की कोई भी बढ़त चिंताजनक हो सकती है. इसलिए हमें मुद्रास्फीति पर नजर रखनी होगी, जो घरेलू बजट और व्यावसायिक भावना को नुकसान पहुंचा सकती है. बीते 12 महीनों में, मार्च को छोड़ कर, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर छह प्रतिशत से ऊपर रही है. यह रिजर्व बैंक की बर्दाश्त करने लायक सीमा से ऊपर है. अपने नरम मौद्रिक रवैये के बावजूद रिजर्व बैंक देर-सबेर नकदी की आपूर्ति पर अंकुश लगाना शुरू कर सकता है.
इससे वृद्धि पर नकारात्मक असर होगा. तीसरी बात, कर्ज की अनुशासनहीनता को लेकर बहुत अधिक सहिष्णुता रही है. इसलिए लंबे विलंब और फंसे हुए कर्ज की पुनर्संरचना के बाद संभव है कि भारतीय बैंकिंग सेक्टर के लिए वास्तविकता से सामना का दिन अधिक दूर नहीं हो. हमें फंसे हुए कर्ज के अनुपात में तेज वृद्धि के लिए तैयार रहना चाहिए, जिससे निबटने के लिए सरकार को पर्याप्त पूंजी मुहैया करानी पड़ेगी.
चौथी और सबसे अहम बात है, शिक्षा और स्वास्थ्य पर चुपचाप पड़ता खतरनाक असर. साल 2020 के मानव विकास सूचकांक में 189 देशों में भारत 131वें पायदान पर है. हमारा देश दो सालों में दो सीढ़ी नीचे आया है. इसमें श्रीलंका 72वें और चीन 85वें स्थान पर हैं. सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि भारत के कार्य बल का केवल 20 फीसदी हिस्सा ही कुशल कहा जा सकता है.
इस आंकड़े के साथ भारत सूडान, कैमरून और लाइबेरिया जैसे देशों की कतार में है. हमारे सभी दक्षिण एशियाई पड़ोसी हमसे आगे हैं. भारत की 42 प्रतिशत आबादी बेहद चिंताजनक स्थिति में है यानी वह 1.9 डॉलर की रोजाना आमदनी के गरीबी स्तर से थोड़ा ही ऊपर है. महामारी, जीने के सहारे का छिन जाना या परिवार में बीमारी जैसे कारक इन्हें गरीबी रेखा से नीचे ले जा सकते हैं.
महामारी और लॉकडाउन ने असंगठित क्षेत्र और सूक्ष्म व छोटे उद्यमों को बुरी तरह प्रभावित किया है. सबसे अधिक असर बच्चों पर पड़ा है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की हालिया रिपोर्ट में बच्चों में गंभीर कुपोषण को रेखांकित किया गया है. इसमें सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि बच्चों की बढ़त रुकने या उनका कम वजन होने के मामले 17 में से 14 राज्यों में बढ़ गये हैं. यह तब हुआ है, जब स्वच्छता और साफ पेयजल की उपलब्धता बढ़ी है.
यह सब स्पष्ट तौर पर अर्थव्यवस्था में गिरावट और आय के स्रोतों के कम होने के परिणाम हैं. उदाहरण के लिए, लॉकडाउन में स्कूलों की बंदी से मिड-डे मील भी नहीं मिल पा रहा था. गरीब परिवारों के बहुत से बच्चों के लिए दिनभर में वही एकमात्र भोजन मिल पाता था. वित्तीय मजबूरियों के कारण बाल पोषण योजनाओं के खर्च में भी कटौती हुई है.
कोरोना महामारी ने 29 करोड़ भारतीयों की शिक्षा को भी प्रभावित किया है. असर की रिपोर्ट के अनुसार, छह से दस साल आयु के 5.3 प्रतिशत बच्चों के स्कूल छूट गये हैं. बहुत-से बच्चे परिवार की आमदनी जुटाने में सहयोग कर रहे हैं. जो बच्चे स्कूलों में हैं, उनमें से 38.2 प्रतिशत के पास स्मार्टफोन की सुविधा नहीं है. सो, ऑनलाइन शिक्षा से बड़ी संख्या में बच्चे वंचित हैं.
डिजिटल विषमता बढ़ी है और इसे सबसे अधिक शिक्षा में देखा जा सकता है. इसी तरह, स्वास्थ्य में कोरोना उपचार को प्रमुखता देने से एचआइवी, कैंसर और गुर्दे की समस्याओं से जूझते लोगों को या तो नियमित उपचार नहीं मिला या उन्हें बड़ी मुश्किलें उठानी पड़ीं.
इस प्रकार, एक ओर अर्थव्यवस्था मजबूती से उबरने की ओर अग्रसर है, वहीं अर्थव्यवस्था के मानव पूंजी आधार के ठोस पुनर्निर्माण और उसमें निवेश की दरकार है. बच्चों की शिक्षा और समूची स्वास्थ्य सेवा में सरकारों को हर स्तर पर वित्त और संसाधन देने के अपने वादे को बढ़ाना होगा.
सकल घरेलू उत्पादन के अनुपात में खर्च की सीमा को सार्वजनिक स्वास्थ्य में तीन फीसदी और शिक्षा में पांच फीसदी तक बढ़ाना चाहिए. भले ही इससे वित्तीय घाटा बढ़े, लेकिन मानव पूंजी में खर्च भविष्य के लिए निवेश है. इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए, क्योंकि वैश्विक मानकों की तुलना में इन मदों में भारत का खर्च कम है.
Posted by : Sameer Oraon