पिछले कुछ समय में ऐसा कुछ घटित हो रहा है, जिससे विदेश नीति में रुचि रखने वाले भारतीयों की चिंता बढ़ी होगी. इनमें सबसे अहम घटना चीन और ईरान के बीच 25 वर्षीय सामरिक समझौता है. इसके अनुसार चीन ईरान में 400 अरब डॉलर का निवेश करेगा और दोनों के बीच के व्यापार को 600 अरब डॉलर करने का लक्ष्य रखा गया है. यह समझौता अमेरिका के लिए चुनौती है, क्योंकि नाभिकीय समझौते को रद्द कर अमेरिका के पूर्व ट्रंप प्रशासन ने उसको प्रतिबंधित किया हुआ है.
चीन ने घोषणा कर दी है कि वह ईरान के नाभिकीय समझौते के बचाव के लिए प्रयास करेगा और चीन-ईरान संबंधों के वैधानिक हितों की रक्षा भी करेगा. हालांकि, जो बाइडेन के अमेरिकी राष्ट्रपति पद ग्रहण करने के बाद उम्मीद की जा रही है कि ईरान पर लगे प्रतिबंध हटेंगे. हालांकि, अमेरिका ने अभी कोई स्पष्ट बयान नहीं दिया है. अमेरिकी प्रतिबंध ईरान के अलावा रूस पर भी है और चीन भी व्यापार के मामलों में उसके आंशिक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है. चीन और रूस का कहना कि अमेरिका ईरान पर लगाये गये प्रतिबंध बिना शर्त वापस ले.
इसके मायने यही हैं कि दोनों अमेरिका विरुद्ध गोलबंदी को आगे बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं. चीन, रूस और ईरान के अलावा तुर्की तथा पाकिस्तान एक साथ आ रहे हैं. प्रश्न है, भारत के लिए ये चुनौतियां कितनी बड़ी हैं? भारत के लिए चीन कितनी बड़ी चिंता का कारण है, पड़ोस में वह क्या कर रहा है, धरती, समुद्र और आकाश के साथ अंतरराष्ट्रीय पटल पर वह कैसी चुनौतियां पेश कर रहा है, इसे बताने की आवश्यकता नहीं. ईरान के चाबहार बंदरगाह और उससे जुड़नेवाली परिवहन व्यवस्था के निर्माण में भारत काफी पूंजी लगा चुका है.
ईरान-भारत चाबहार समझौते के पक्ष में चीन कभी नहीं रहा. भारत के लिए यह केवल व्यापारिक और आर्थिक नहीं रणनीतिक रूप से भी काफी महत्वपूर्ण है. अगर चीन 25 वर्षों तक ईरान में भारी निवेश करेगा, तो जाहिर है कि वह दूसरे देशों को रणनीतिक रूप से प्रभावी न होने देने की भी कोशिश करेगा. चीन अफगानिस्तान से लेकर पश्चिम एशिया, मध्य एशिया सब जगह अपने पांव पसार रहा है और इससे भारत की मुश्किलें बढ़ रही हैं.
अमेरिका से गहरे होते रिश्तों के कारण हाल के दिनों में रूस ने भी भारत को लेकर नकारात्मक टिप्पणियां की हैं. क्वाड की बैठक हुई, तो रूसी विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव ने बयान दिया कि पश्चिमी ताकतें चीन विरोधी खेल में भारत को घसीट रही हैं. साथ ही, पश्चिमी देश भारत के साथ रूस के घनिष्ठ सहकार और विशेष संबंधों पर भी बुरा असर डालने की हरकतें कर रहे हैं.
रूस की यह टिप्पणी न तो सही थी और न उचित. भारत-सोवियत संघ मैत्री के रहते हुए भी अफगानिस्तान में सोवियत की लाल सेना की कार्रवाई का भारत ने समर्थन नहीं किया. चीन का बयान ज्यादा आक्षेपकारी था. उसने यहां तक कहा था कि भारत ब्रिक्स और एससीओ यानी शंघाई सहयोग संगठन के लिए नकारात्मक साबित हो रहा है.
चीन का स्पष्ट बयान हमारे लिए इस बात की चेतावनी है कि वह भारत के विरुद्ध हर संभव कोशिश जारी रखेगा. इसमें भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार भी शामिल है. ऐसा नहीं है कि अमेरिका के साथ संबंधों को बेहतर करने या क्वाड को महत्व देने के पहले भारत ने चीन की प्रतिक्रिया पर विचार नहीं किया होगा. अगर भारत की नीति कमजोर होती और क्वाड में संभावनाएं नहीं होतीं, तो ये दोनों देश इस तरह तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते.
रूस को समझना चाहिए कि प्रतिबंधों और अमेरिका के घोर विरोध के बावजूद भारत ने उससे एस-400 रक्षा प्रणाली खरीदी है. अमेरिका के रुख की अनदेखी कर प्रधानमंत्री मोदी रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बुलावे पर बातचीत के लिए गये. वास्तव में रूस द्वारा क्रीमिया के अपहरण के बावजूद भारत ने उसके विरुद्ध प्रतिबंधों का समर्थन नहीं किया.
रूस ने पिछले दिनों अफगानिस्तान को लेकर जो सम्मेलन बुलाया, उसमें भारत को आमंत्रित नहीं किया गया. पाकिस्तान उसमें शामिल था, जबकि अमेरिका में अफगानिस्तान शांतिवार्ता में भारत को आमंत्रित किया गया. रूस को पता है कि भारत और अफगानिस्तान के बीच सहयोग चरम पर है. वहां भारत के लिए प्रतिकूल घटनाएं होंगी, तो हमारे लिए उसका माकूल उत्तर देना आवश्यक हो जायेगा. रूस की नीति परस्पर संतुलित नहीं है.
भारत सहित विश्व शांति के समर्थक देशों की सोच है कि चीन किसी तरह दुनिया में ऐसी स्थिति में ना आए कि उसे लगे कि उस पर किसी तरह का नियंत्रण है ही नहीं. रूस के सीमावर्ती क्षेत्रों में हान चीनियों की आबादी जिस तेजी से बढ़ी है और चीन वहां जिस तरह महत्वाकांक्षी योजनाओं को अंजाम दे रहा है, उससे रूस को चिंतित होना चाहिए. ईरान से प्रतिबंध हटे, लेकिन उसकी नाभिकीय शस्त्र महत्वाकांक्षाओं पर भी विराम लगना चाहिए. चीन के सहयोग से पाकिस्तान और उत्तर कोरिया जैसे देश नाभिकीय शस्त्र संपन्न होकर दुनिया के लिए खतरा बने हुए हैं.
भारत के लिए पश्चिम एशिया में अपने हितों की रक्षा के साथ, प्रशांत क्षेत्र में अपनी उपस्थिति मजबूत करना, हिंद महासागर में सामरिक स्थिति को सुदृढ़ बनाये रखना तथा दक्षिण एशिया के देशों विशेष कर श्रीलंका, मालदीव आदि के द्वीपीय इलाकों में सतर्क रहना अत्यावश्यक है. चीन हर जगह ऐसी गतिविधियां कर रहा है, जिससे केवल क्षेत्रीय ही नहीं, विश्व शांति को भी खतरा पैदा हो सकता है. हिंद महासागर का जिस सीमा तक सैनिकीकरण हो चुका है, उसमें भारत के पास उसकी प्रतिस्पर्धा में शामिल रहने के अलावा कोई चारा नहीं है.
इसमें अमेरिका के दिएगोगार्सिया जैसे सैन्य अड्डे तक प्रवेश भारत की जरूरत है और वहां तक पहुंच हो रही है. रूस या चीन कोई भी चुनौती उत्पन्न करे, भारत इससे अलग नहीं हो सकता. भारत तो विश्व शांति और राष्ट्रों के सहअस्तित्व के लक्ष्य का ध्यान रखते हुए अपना विस्तार कर रहा है. ईरान के आगे भी चीन भारत के लिए समस्याएं पैदा करेगा, रूस भी संभव है कई मामलों में हमारे विरोध में रहे, पाकिस्तान, तुर्की जैसे देश तो होंगे ही, कुछ और देश भी उनके साथ आ सकते हैं. निश्चित रूप से भारतीय रणनीतिकार इसके लिए कमर कस रहे होंगे. जरूरी है कि राजनीतिक दल विदेशी मोर्चे पर एकजुट रहें.