गौवंश बचायेंगे, तो बचेगा पर्यावरण
गौवंश बचायेंगे, तो बचेगा पर्यावरण
पंकज चतुर्वेदी
वरिष्ठ पत्रकार
pc7001010@gmail.com
मध्य प्रदेश में बाकायदा विधानसभा का गौ सत्र बुलाया गया, तो छत्तीसगढ़ ने गाय का गोबर खरीदना शुरू कर दिया है. उप्र सरकार ने गाय को जिबह करने पर विशेष कानून बना दिया है. वास्तव में इस समय कई कारणों से व्यापक स्तर पर गौवंश बचाने की जरूरत है. इनमें बढ़ती आबादी, घटते रकबे, कोरोना के बाद उपजी मंदी-बेरोजगारी के बीच कुपोषण के बढ़ते आंकड़े और कार्बन उत्सर्जन तीस से पैंतीस फीसदी कम करने की हमारी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता आदि कुछ प्रमुख कारण शामिल हैं.
विभिन्न सरकारों द्वारा चलायी जा रही योजनाओं से गौवंश संरक्षण के लिए गौशालाएं तो खुल सकती हैं, लेकिन जब तक गौवंश आज से चार दशक पहले की तरह हमारी सामाजिक-आर्थिक धुरी नहीं बनेगा, उसके संरक्षण की बात बेमानी होगी. खेती को लाभकारी बनाने, कार्बन उत्सर्जन कम करने और सभी को पौष्टिक भोजन मुहैया करवाने की मुहीम गौवंश पालन के बगैर संभव नहीं है. इसके लिए गाय की अनिवार्यता को बढ़ावा देने की जरूरत है. मानव सभ्यता के आरंभ से ही गौवंश इंसान के विकास पथ का सहयात्री रहा है.
मोहनजोदड़ो व हड़प्पा से मिले अवशेष साक्षी हैं कि पांच हजार वर्ष पहले भी हमारे यहां गाय-बैल पूजनीय थे. आज भी भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मूल आधार गौवंश है. हालांकि भैंस के बढ़ते प्रचलन तथा कतिपय कारखाना मालिकों व पेट्रो उद्योग के दवाब में गांवों में अब टैक्टर व अन्य मशीनों का प्रयोग बढ़ गया है. लेकिन धीरे-धीरे अब समझ आने लगा है कि हल खींचने, पटेला फेरने, अनाज से दानों व भूसे को अलग करने, फसल काटने, पानी खींचने और अनाज के परिवहन में छोटे किसानों के लिए बैल न केवल किफायती हैं, बल्कि धरती व पर्यावरण के संरक्षक भी हैं.
लोगों को यह संदेश देना जरूरी है कि गाय केवल अर्थव्यवस्था ही नहीं, पर्यावरण की भी संरक्षक है. इसीलिए इसे बचाना जरूरी है. एक सरकारी अनुमान है कि आने वाले आठ वर्षों में भारत की सड़कों पर कोई 27 करोड़ आवारा मवेशी होंगे. उन्हें सलीके से रखने का व्यय पांच लाख, चालीस हजार करोड़ होगा. जबकि इतना ही पशुधन तैयार करने का व्यय कई हजार करोड़ होगा. हमारे पास यह धन पहले से उपलब्ध है, बस हम इसका सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.
डेनमार्क में दूध देने वाली प्रत्येक गाय का वार्षिक दुग्ध उत्पादन औसत 4,101 लीटर है, स्विटजरलैंड में 4,156, अमेरिका में 5,386 और इंग्लैंड में 4,773 लीटर है. वहीं भारत की गाय सालाना 500 लीटर से भी कम दूध देती है. यानी, भारत में गाय के दूध का उत्पादन दुनिया में सबसे कम है.
हमारे यहां की ब्रंदावनी व थारपार जैसी किस्म की गायें एक दिन में 22 लीटर तक दूध देती हैं. लेकिन महंगी होने के कारण इन गायों का प्रचलन बहुत कम है. जाहिर है कि भारत में गाय पालना बेहद घाटे का सौदा है. जब गाय दूध देती है तब तो पालक उसकी देखभाल करता है और जब दूध देना बंद कर देती है, तो उसे सडक पर छोड़ देता है.
ऐसा नहीं है कि पहले बूढ़ी गायें नहीं हुआ करती थीं, लेकिन 1968 तक देश के हर गांव-मजरे में तीन करोड़, बत्तीस लाख, पचास हजार एकड़ गौचर की जमीन हुआ करती थी. सनद रहे कि चरागाह की जमीन बेचने या उसके अन्य काम में इस्तेमाल पर हर तरह की रोक है.
शायद ही कोई ऐसा गांव या मजरा होगा जहां पशुओं के चरने की जमीन के साथ कम से कम एक तालाब और कई कुएं न हों. जंगल का फैलाव भी पचास फीसदी तक था. पर आधुनिकता की आंधी में लोगों ने चारागाह, तालाब सब खत्म कर दिये. ऐसे में निराश्रित पशु खेत के ही सहारे तो रहेगा.
गौवंश पालन से दूध व उसके उत्पाद को बढ़ाकर कम कीमत पर स्थानीय पौष्टिक आहार तैयार किया जा सकता है. गाय व बैल का ग्रामीण विकास व खेती में इस्तेमाल हमारे देश को डीजल खरीदने में व्यय होने वाली विदेशी मुद्रा के भार से बचाने के साथ ही डीजल संचालित ट्रैक्टर, पंप व अन्य उपकरणों से होने वाले घातक प्रदूषण से भी निजात दिलाता है.
वहीं छोटे रकबे के किसान के लिए बैल का इस्तेमाल ट्रैक्टर के बनिस्पत सस्ता होता है. गोबर और गौमूत्र का खेती-किसानी में इस्तेमाल न केवल लागत कम करता है, बल्कि गोबर का खेत में प्रयोग कार्बन की मात्रा को नियंत्रित करने का बड़ा जरिया भी है. फसल अवशेष, जिन्हें जलाना इस समय की एक बड़ी समस्या है, गौवंश का उपयोग बढ़ने पर उनके आहार में प्रयुक्त हो जायेगा. एक बात और, उपलों को जलाने से ऊष्मा कम मिलती है और कार्बन व अन्य वायु-प्रदूषक तत्व अधिक. इसकी जगह गोबर का कंपोस्ट के रूप में इस्तेमाल ज्यादा सही होगा.
सरकार में बैठे लोग जानते हैं कि भारत में मवेशियों की संख्या लगभग तीस करोड़ है. इनसे लगभग तीस लाख टन गोबर प्रतिदिन मिलता है. इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बना कर जला दिया जाता है. ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल सोलह लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता है. चीन में डेढ करोड़ परिवारों को घरेलू ऊर्जा के लिए गोबर गैस की सप्लाइ होती है.
यदि गोबर का सही इस्तेमाल हो, तो प्रतिवर्ष लगभग छह करोड़ टन लकड़ी बचायी जा सकती है. साढे तीन करोड़ टन कोयला बच सकता है. कई करोड़ लोगों को रोजगार मिल सकता है. आज भी भारत के राष्ट्रीय आय में पशुपालकों का प्रत्यक्ष योगदन छह फीसदी है. अतः देश व समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशुधन को सहेजने के प्रति दूरंदेशी नीति व कार्य योजना आज समय की मांग है.
posted by : sameer oraon