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भारतीय संस्कृति में सूर्य का महत्व

भारतीय संस्कृति में सूर्य का महत्व

By संपादकीय | January 14, 2021 6:46 AM

प्रमोद भार्गव

लेखक व पत्रकार

pramod.bhargava15@gmail.com

आमतौर पर सूर्य को प्रकाश और गर्मी का अक्षुण्ण स्रोत माना जाता है. लेकिन अब वैज्ञानिक जान गये हैं कि सूर्य का अस्तित्व समाप्त होने पर पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी जीव-जंतु तीन दिन के भीतर मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे. सूर्य के हमेशा के लिए अंधकार में डूबने से वायुमंडल में मौजूद समूची जलवाष्प ठंडी होकर बर्फ बन गिर जायेगी और कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह पायेगा.

करीब 50 करोड़ वर्ष पहले से प्रकाशमान सूर्य की प्राणदायिनी उर्जा की रहस्य-शक्ति को हमारे ऋषि-मुनियों ने पांच हजार वर्ष पहले ही जान लिया था और ऋग्वेद में लिख गये थे, ‘आप्रा द्यावा पृथिवी अंतरिक्षः सूर्य आत्मा जगतस्थश्च.’ अर्थात विश्व की चर तथा अचर वस्तुओं की आत्मा सूर्य ही है. ऋग्वेद के मंत्र में सूर्य का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व उल्लिखित है. हमारे ऋषियों ने हजारों वर्ष पहले जिस सत्य का अनुभव किया था, उसकी विज्ञान सम्मत पुष्टि अब 21वीं सदी में हो रही है.

सौरमंडल के सौर ग्रह, उपग्रह और उसमें स्थित जीवधारी सूर्य से ही जीवन प्राप्त कर रहे हैं. पृथ्वी पर जीवन का आधार सूर्य है. सभी जीव-जंतु और वनस्पति जगत का जीवन चक्र पूर्ण रूप से सूर्य पर आश्रित है. काल गणना का दिशा बोध भी मनुष्य को सूर्य ने ही दिया. इसलिए दुनिया की सभी जातियों और सभ्यताओं ने सूर्य को देवता के रूप में पूजा. भारतीय परिप्रेक्ष्य में, वैदिक काल में ज्ञान और प्रकाश के एकीकरण के लिए सूर्योपासना की जाती थी.

तैत्रिय-संहिता में उल्लेख है कि सूर्य के प्रकाश से ही चंद्रमा चमकता है. छांदोग्य उपनिषद में सूर्य को ब्रह्म बताया गया है. गायत्री मंत्र में सूर्य को तेज और बुद्धि का पर्याय माना गया है. सूर्य की किरणों से चिकित्सा पर कई पुस्तकें लिखी गयी हैं. यजुर्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि अंतरिक्ष में व्याप्त सभी विकिरणों में सूर्य की किरणें ही जीव जगत के लिए लाभदायी हैं.

वैदिक रूप में सूर्य को काल गणना का कारण मान लिया गया था. ऋतुओं में परिवर्तन का कारण भी सूर्य को माना गया. वैदिक समय में ऋतुचक्र के आधार पर सौर वर्ष या प्रकाश वर्ष की गणना शुरू हो गयी थी, जिसमें एक वर्ष में 360 दिन रखे गये. वर्ष को वैदिक ग्रंथों में संवत्सर नाम से जाना जाता है. नक्षत्र, वार और ग्रहों के छह महीने तक सूर्योदय उत्तर-पूर्व क्षितिज से, अगले छह महीने दक्षिण पूर्व क्षितिज से होता है. इसलिए सूर्य का काल विभाजन उत्तरायण और दक्षिणायन के रूप में है. उत्तरायण के शुरू होने के दिन से ही रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं.

यही दिन मकर तथा कर्क राशि से सूर्य को जोड़ता है. इसलिए इस दिन भारत में मकर-संक्रांति का पर्व मनाने की परंपरा है. वेदकाल में जान लिया गया था कि प्रकाश, ऊर्जा, वायु और वर्ष के लिए समस्त भूमंडल सूर्य पर ही निर्भर है. वेदकालीन सूर्य में सात प्रकार की किरणें और सूर्य रथ में सात घोड़ों के जुते होने का उल्लेख है. सात प्रकार की किरणों को खोजने में आधुनिक वैज्ञानिक भी लगे हैं. नये शोधों से ज्ञात हुआ है कि सूर्य किरणों के अदृश्य हिस्से में अवरक्त और पराबैंगनी किरणें होती हैं.

भूमंडल को गर्म रखने और जैव रासायनिक क्रियाओं को छिप्र रखने का कार्य अवरक्त किरणें और जीवधारियों के शरीर में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने का काम पराबैंगनी किरणें करती हैं. दुनिया के सबसे बड़े मेले सिंहस्थ और कुंभ भी सूर्य के एक निश्चित स्थिति में आने पर ही लगते हैं. सिंहस्थ का पर्व तब मनाया जाता है, जब सूर्य सिंह राशि में आता है. वैदिक ग्रंथों के अनुसार, देव और दानवों ने समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश प्राप्त किया था, इसे लेकर विवाद हुआ था.

तब विष्णु ने सुंदरी रूप धरकर देवताओं को अमृत और दानवों को मदिरा पान कराया. राहु ने यह बात पकड़ ली. वह अमृत कलश लेकर भागा. विष्णु ने सुदर्शन चक्र छोड़कर राहु का सिर धड़ से अलग कर दिया. इस छीना-झपटी में जहां-जहां अमृत की बूंदें गिरीं, वहां-वहां सिंहस्थ और कुंभ के मेले लगने लगे. इस वैदिक घटना को वैज्ञानिक संदर्भ में भी देखा जा रहा है.

प्रसिद्ध वैज्ञानिक डाॅ राम श्रीवास्तव का कहना है कि हमारे सौरमंडल में एमएस 403 का एक तारा है. यह हमारे सूर्य से दस हजार गुना बड़ा सूर्य है. इसे एक ब्लैक होल निगल रहा है और यह छूटकर भागने के लिए ब्लैक होल के चारों ओर चक्कर काट रहा है. इस पूरी प्रक्रिया में एमएस 433 के दोनों ओर से अतिशबाजी निकल रही है. वैज्ञानिकों ने जब इसके प्रकाश का परीक्षण किया, तो पाया कि 433 में ऐसे अनेक तत्व हैं, जिन्हें हमारा विज्ञान आज भी नहीं पहचानता. ऐसे तत्व अन्य किसी तारे में मौजूद नहीं हैं.

यह भी एक विचित्र संयोग है कि जब सिंहस्थ का मेला लगता है, तो एसएस 433 सूर्य के साथ सिंह राशि के बीचो-बीच स्थित रहता है और सिंहस्थ व कुंभ स्नान के समय इससे निकलने वाला प्रकाश तथा आतिशबाजी सीधे पृथ्वी की ओर इंगित रहते हैं.

करीब छह हजार वर्ष पहले किये गये एक पूर्ण सूर्यग्रहण के अध्ययन से अनुमान लगाया गया कि दो धुरियां हैं, पहली, जिस पर धरती घूमती है और सूर्य का चक्कर लगाती है. दूसरी, जिस पर चंद्रमा धरती का चक्कर लगाता है. जिन बिंदुओं पर आकर वे एक-दूसरे से मिलते हैं, उन्हें राहु और केतु कहा जाता है. ग्रहण का प्रभाव तभी सामने आता है जब सूर्य और चंद्रमा एक सीध में आकर निकट से निकलते हैं.

Posted By : Sameer Oraon

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