यह आत्ममंथन का समय है

यदि देश एक संकट से दूसरे संकट में नहीं पड़ना चाहता है, तो आगे की राह को लेकर आत्ममंथन करने की आवश्यकता है. संविधान एक जीवंत दस्तावेज है, जिसे रोज जीया जाता है.

By जगदीश रत्नानी | February 10, 2021 6:56 AM
an image

जगदीश रत्नानी

वरिष्ठ पत्रकार एवं फैकल्टी सदस्य, एसपीजेआइएमएआर

editor@thebillionpress.org.

हमारा देश मुश्किलों के दौर से गुजर रहा है. इन दिनों जहाज इतनी तेजी से हिल-डुल रहा है कि जिस उथल-पुथल में हम हैं, उसमें इसके डूब जाने का डर लगने लगता है. इस वर्जित दिशा में लंबे समय से बढ़ रहे हैं और ऐसा जान-बूझकर हो रहा है. बात अच्छी लगे या खराब, भले ही एक शासन ने खतरनाक ढंग से सीधे हमें तूफानी समुद्र में ला दिया है, पर इसमें सबका हाथ रहा है. बहुत से लोग, जो इस परियोजना के पैरोकार थे, अब अफसोस जताते सुने जा सकते हैं. देश विभाजित है, लोग विलगित हैं और जिससे हम अपने दिलो-दिमाग में एक होते हैं, वह टूट गया है. संक्षेप में, जो भूमि हमें एक भारत के रूप में जोड़ती है, वह खाली है, उसकी जीवंतता सूख गयी है और उसमें जीवन शक्ति नहीं है.

हम विश्वासियों के देश हैं, जहां नियति का विचार हमारी बनावट का महत्वपूर्ण हिस्सा है. तो क्या भारत की नियति एक और ऐसा देश होना है, जिसने बार-बार कोशिश की और बार-बार विफल हुआ? क्या हमें कोई पैशाचिक हाथ ढेर के नीचे भेज रहा है और हमें स्थिति को अपने हाथ में लेने और अपना नेतृत्व करने की जगह अपनी किस्मत पर रोने के लिए छोड़ रहा है? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत (दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, जिसका संविधान सभी धर्मों का सम्मान करता है तथा जहां के लोग सभी विचारों और कल्पनाओं के लिए द्वार खोलते हैं) की कहानियां सोच-समझकर बनायी गयी थीं, ताकि हमें ऐसे विचार दिये जा सकें,

जिन्हें समझना, अपनाना और जिनकी रक्षा करना तो दूर, जिनकी हम परवाह भी नहीं करते? निश्चित रूप से बनावट में ही ऐसी कोई चीज गहरे पैठी होनी चाहिए कि भारत इतनी जल्दी इतना नीचे पहुंच गया, ढलान पर इतनी तेजी से लुढ़कता हुआ कि बहुत से लोगों ने अपने जीते जी इसे देखने की कल्पना भी नहीं की होगी. वर्तमान समय वस्त्रहीन होने के एक आंतरिक कृत्य का प्रतिनिधि है, जहां हम पूरी तरह नग्न हैं-

हमसे वह अमूर्त संपत्ति, वह श्रेष्ठता का भाव छीन लिया गया है, जो चिरकाल से भारतीय मूल्यों और आदर्शों की संरचना होते थे. हमने कभी नहीं सोचा था कि हमारी अपनी ही सरकार भारत के साथ ऐसा करेगी, जिस तरह से राष्ट्र की विरासत, धरोहर और जीवंतता को आज नष्ट किया गया है. हम तो यही सोचते थे कि अंग्रेजों ने हमें विभाजित किया था और लूटा था.

एक स्वामिभक्त अंग्रेज एचएम हाइंडमैन ने कभी कहा था, ‘भारत लगातार कमजोर होता जा रहा है. हमारे शासन के अंतर्गत इस महान देश की रक्तधारा क्रमश: सूखती जा रही है.’ इतिहासकार विल दूरां ने अपनी एक किताब में इसे उद्धृत करते हुए लिखा है, ‘कोई भी व्यक्ति इस अपराध को देखता है और चुप रह जाता है, वह कायर है. कोई भी अंग्रेज या अमेरिकी अगर इस पर आवाज नहीं उठाता, वह अपने नाम या देश के लायक नहीं है.’ इसे हम आज भारत के संदर्भ में कह सकते हैं.

भाजपा के साथ यह अजीब विडंबना ही है कि उसके वेबसाइट पर इस किताब का 1930 का संस्करण है और वहां इन पंक्तियों को रेखांकित किया गया है. यह पार्टी कहती रहती है कि कभी भारत एक महान देश था. लेकिन आज वह जो भी कर रही है, इसके उलट है- अतीत और भी गौरवपूर्ण दिखेगा यदि हम स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद आक्रांताओं के छल-कपट से आगे निकलते रहेंगे. यह सब बेहद निराशाजनक है. देश में शायद ही कोई संस्थान ऐसा बचा है, जिसमें देश पर हो रहे निरंतर चोटों के विरुद्ध खड़े होने और देश की रक्षा करने की हिम्मत हो.

यदि देश एक संकट से दूसरे संकट में नहीं पड़ना चाहता है, तो आगे की राह को लेकर आत्ममंथन करने की आवश्यकता है. संविधान एक जीवंत दस्तावेज है, जिसे रोज जीया जाता है. जब हम गिरावट के संकेत देखते हैं, तो हमें पूछना चाहिए कि क्या यह वह बड़ा झटका है, जो इसे नीचे गिरा रहा है या फिर हमें अगली चोट के लिए भी मौका दे देना चाहिए? स्वतंत्र भारत के इतिहास के लाख चोटों ने इसे इतना कमजोर बना दिया है कि यह स्वयं खड़ा नहीं हो सकता है. हम आर्थिक गिरावट पर परेशान होते हैं,

पर असली गिरावट के साथ खुशी से जी लेते हैं- एक देश, जो संरक्षण का वादा करता है, पर उस पर खरा नहीं उतरता, एक देश, जो महात्मा गांधी को बापू कहता है, लेकिन उसके शासन-प्रशासन के हर पहलू में हिंसा पैठी हुई है. डॉ राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में अपने समापन भाषण में कहा था, ‘यदि निर्वाचित लोग सक्षम, ईमानदार और चरित्रवान हैं, तो वे एक दोषपूर्ण संविधान का भी बेहतरीन उपयोग कर लेंगे. यदि उनमें ये गुण नहीं होंगे, तो संविधान देश की मदद नहीं कर सकता है.’

संविधान निर्माताओं के सबसे खराब डर सच हो चुके हैं, यह भारत की यात्रा का एक निर्णायक क्षण है. यहां से घटनाएं चाहे जो मोड़ लें, भारत पहले की तरह नहीं होगा. देश को नये संघर्षों की तैयारी के साथ उन बातों को फिर से लिखने, उन पर काम करने और उन्हें फिर से समझने की तैयारी करनी चाहिए, जिन्हें हम अपना हिस्सा और जीने-बढ़ने का रास्ता समझते आये थे.

Posted By : Sameer Oraon

Exit mobile version