डॉ इंदिरा हिरवे
निदेशक, सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑल्टरनेटिव्स, अहमदाबाद
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कोरोना महामारी के आने से पहले का संकट लॉकडाउन के दौरान गंभीर होता गया और यह अब भी जारी है. कई वैश्विक और भारतीय अध्ययनों ने इस संकट की गहनता की ओर ध्यान दिलाया है. इनमें बढ़ती बेरोजगारी, भूख, कुपोषण, स्वास्थ्य में गिरावट, काम छूटना तथा मध्य और निम्न वर्ग की चिंताओं का बढ़ना आदि को रेखांकित किया गया है. धनी वर्ग न केवल इस संकट से अछूता रहा, बल्कि लॉकडाउन के दौरान भारतीय खरबपतियों की संपत्ति में 35 प्रतिशत की वृद्धि भी हो गयी.
धीरे-धीरे लॉकडाउन से निकलती अर्थव्यवस्था में रोजगार बढ़ा है, पर इनमें मेहनताना कम है और कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है. आज भारत जिस धीमी वृद्धि से गुजर रहा है, वह मुनाफे से गतिशील है, न कि आमदनी से. उम्मीद की जा रही थी कि बजट में तात्कालिक तौर पर इन चिंताओं के समाधान की कोशिश होगी.
पहली उम्मीद यह थी कि बहुत धनी लोगों पर कर बढ़ाकर गरीबों के विकास के लिए धन जुटाकर संपत्ति व आय का पुनर्वितरण होगा, लेकिन धनी वर्ग को छुआ भी नहीं गया. इस बजट का बुनियादी रुझान बाजार की ताकतों के जरिये सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) की वृद्धि दर को बढ़ाना है. बजट के प्रस्तावों के लिए आवश्यक धन विनिवेश (सार्वजनिक उपक्रमों और सार्वजनिक संपत्ति को बेचकर), सरकारी जमीन को बेचकर, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में छूट देकर और सार्वजनिक संपत्तियों के निजीकरण से जुटाया जायेगा. यह तरीका बिल्कुल अप्रभावी है क्योंकि भारतीय बाजार में एकाधिपत्य है या कुछ लोगों का वर्चस्व है.
ऐसे में कामगारों और गरीबों को कोई फायदा पहुंचाये बिना विषमताओं में बढ़ोतरी होगी. यह एक भ्रांति है कि धनी रोजगार का सृजन करते हैं. वैश्विक बाजार में टिके रहने की कोशिश में उनके द्वारा पूंजी-आधारित अत्याधुनिक तकनीकों के अपनाने से आर्थिक वृद्धि में श्रम की भागीदारी संकुचित होती जायेगी. बढ़ती विषमता लोकतंत्र के लिए खतरनाक है क्योंकि यह धनी वर्ग और सत्ताधारी दल के बीच अपवित्र गठजोड़ को मजबूत बनाती है.
बजट से दूसरी बड़ी अपेक्षा शिक्षा के संदर्भ में थी. देश में 71 फीसदी सरकारी और 19 फीसदी निजी विद्यालय अभी भी बंद हैं. नतीजतन अधिकतर गरीब छात्र शिक्षा से वंचित हैं. इसके अलावा, बहुत-से छात्र फोन, कंप्यूटर आदि नहीं होने से ऑनलाइन पढ़ाई से नहीं जुड़ पा रहे हैं. कई परिवारों में बच्चों को जीविका जुटाने में भी लगना पड़ रहा है.
आकलनों के मुताबिक, 30-40 फीसदी छात्र ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं. सो, धनी और मध्य वर्ग के बच्चों तथा गरीब बच्चों के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है. यह अगली पीढ़ी का नुकसान है और इस तरह यह देश का नुकसान है. डिजिटल शिक्षा की उपलब्धता के लिए बजट में टैबलेट, स्मार्टफोन, लैपटॉप आदि में निवेश के लिए आवंटन हो सकता था. लेकिन स्पष्ट तौर पर यह हमारे नीतिनिर्धारकों की प्राथमिकता नहीं है. मिड डे मील स्कीम के बजट में 1400 करोड़ की कटौती कर दी गयी है.
नयी शिक्षा नीति में बच्चों के प्रारंभिक विकास पर बहुत ध्यान देने की बात कही गयी है. आंगनबाड़ी और प्रारंभिक विकास की अवधारणाओं में बड़े अंतर को देखते हुए संसाधन, प्रशिक्षण और नियुक्तियों के लिए बड़े निवेश की अपेक्षा थी. लेकिन बजट में इस पर बिल्कुल चुप्पी है. शिक्षा पर आवंटन बढ़ाने के बजाय छह हजार करोड़ रुपये से अधिक की कमी कर दी गयी है.
इसे भारत की भावी पीढ़ी की आपराधिक उपेक्षा ही कही जा सकती है. लगभग 80 फीसदी साक्षरता के साथ देश आबादी के बड़े हिस्से को उस उन्नत विकास से नहीं जोड़ सकता है, जिसकी चर्चा सरकार करती है. तीसरी बड़ी अपेक्षा रोजगार के क्षेत्र में थी. यह साफ है कि जिन लोगों ने अपना रोजगार खोया है, उन सभी को मौजूदा आर्थिक वृद्धि फिर से समाहित नहीं कर सकती है.
इस कारण लौटे हुए बहुत से प्रवासी कामगार बेहद मामूली रोजगार पाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा इसलिए है कि वृद्धि निरंतर श्रम बचाने की दिशा में अग्रसर है क्योंकि नियोक्ता पूंजी-आधारित तकनीकों का रुख कर रहे हैं. रोजगार की दृष्टि से बेहद अहम सूक्ष्म, छोटे और मझोले उद्यम क्षेत्र में बहुत थोड़ा आवंटन हुआ है. पहले उल्लिखित कारणों से कॉरपोरेट सेक्टर बड़े पैमाने पर रोजगार नहीं पैदा करेगा.
ऐसी स्थिति में ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) बहुत उपयोगी हो सकती है. लॉकडाउन में यह अच्छा सुरक्षा कवच साबित हुई है. लेकिन इसमें 33,417 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गयी है. यह रेखांकित करना महत्वपूर्ण है कि मनरेगा कोई दान या केवल सुरक्षा कवच नहीं है. अर्थव्यवस्था में इसकी दो बड़ी भूमिकाएं हैं- एक, पर्यावरण की बेहतरी तथा स्थानीय स्तर पर इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास, और दो, मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा समेत अन्य संसाधनों को बेहतर करना.
स्थानीय अर्थव्यवस्था के विकास के लिए दोनों भूमिकाएं अहम हैं. उम्मीद तो शहरों के लिए ऐसी योजना लाने की भी थी, पर उस पर भी चुप्पी रही. ऐसे में रोजगार का भविष्य बहुत अच्छा नहीं दिख रहा है. जनमानस के लिए यह बजट बेहद निराशाजनक है. संयोग से, बजट का चुनावी रुझान लोगों की नजर से छुपा नहीं है. इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने के लिए कुछ राज्यों का चयन जरूरत के मुताबिक न होकर आगामी चुनाव में प्रचार के इरादे से किया गया है. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)
Posted By : Sameer Oraon