जगदीश रत्नानी
वरिष्ठ एवं फैकल्टी सदस्य, एसपीजेआइएमएआर
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जब घर में आग लगी हो और कोई उम्मीद नहीं दिखती हो, तो किसी भी उपाय को उचित ठहराया जा सकता है. भारतीय रिजर्व बैंक की एक आंतरिक कामकाजी समूह की सिफारिश को देखने का यह एक नजरिया है. उसमें कहा गया है कि बड़े कॉर्पोरेशन और औद्योगिक घरानों को बैंकों का प्रोमोटर बनने की अनुमति दी जानी चाहिए. इस सुझाव पर रिजर्व बैंक के दो पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों- रघुराम राजन और विरल आचार्य की तीखी और चिंतित प्रतिक्रियाएं आयी हैं.
समूह ने कहा है कि इस अनुमति से पहले कानून में बदलाव होना चाहिए ताकि ‘परस्पर ऋण लेने’ को रोका जा सके तथा निगरानी प्रणाली को दुरुस्त किया जाना चाहिए. इससे यह रेखांकित होता है कि इसमें खतरे तो हैं, पर नये नियमन की व्यवस्था से उन्हें दूर किया जा सकता है. असल में, रिपोर्ट में लिखा भी गया है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि औद्योगिक घरानों को मालिकाना देने से पहले निगरानी क्षमता को बढ़ाना होगा, क्योंकि शासकीय खतरे और हितों के टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है.
इसी तरह बैंकों की खराब सेहत के संकेत भी बेहद सरल हैं. आप साफ तौर पर गिरावट को देख सकते हैं. भारत कोई अव्यवस्थित गणराज्य नहीं है, कम-से-कम अभी ऐसा नहीं हुआ है. सांस्कृतिक रूप से भी यह देश ऐसा नहीं है, जहां आम लोग उधार लेकर बेतहाशा खर्च करते हों. असल में, आम खाताधारक बड़ी बचत करनेवाला, समर्पित ग्राहक और समय पर बकाया चुकानेवाला होता है. इसी सामान्य नागरिक के धन से बैंक चलते हैं.
मेहनतकश बचतकर्ताओं और सतर्क खरीदारों के इस देश में बैंकों पर गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का भारी बोझ है. दिसंबर, 2019 में आयी रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2018-19 में एनपीए 7,39,541 करोड़ रुपया था और उस साल 1,83,391 करोड़ रुपये को बट्टे खाते में डाला गया था. केंद्रीय बैंक ने रेखांकित किया था कि आधे से अधिक बकाया बड़े लेनदारों पर है और मार्च, 2020 तक ऐसे लेनदारों के पास 78.3 फीसदी एनपीए था.
इससे इंगित होता है कि धीरे-धीरे ही सही, यह बीमारी छोटे लेनदारों में भी फैल रही है. ये आंकड़े खतरे की घंटी हैं. उदाहरण के लिए, 2014 से 2019 के बीच बैंक ऑफ बड़ौदा का एनपीए छह गुना और इंडियन बैंक का एनपीए चार गुना से अधिक बढ़ गया. यस बैंक की हालिया कहानी निगरानी के बदतर होने का एक और उदाहरण है. ऐसा लगता है कि हम ऐतिहासिक रूप से इस मामले में कमतर रहे हैं और स्थिति बिगड़ती जा रही है.
और, हम कुछ नियमों में ढील देकर और निगरानी की योजना बनाकर यह सब ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं! जो भी कहें, लेकिन यह तर्क टिकता नहीं है. इससे यह संकेत मिल सकता है कि कोई बड़ा बदलाव हो सकता है और सरकार किसी ऐसी नीतिगत राह की तैयारी में है, जिसके अहम नतीजे होंगे और निगरानी के लिए कुछ और दरवाजे खोल दिये जायेंगे, जबकि बैंकिंग सेक्टर में कई सारे दरवाजे बिना निगरानी के पहले से ही खुले हुए हैं.
यह सही है कि फंसे हुए कर्ज की समस्या का बड़ा हिस्सा तेज बढ़ोतरी के उस दौर में पैदा हुआ, जिसका श्रेय पिछली सरकार को दिया जाता है. हम आज भी वृद्धि की चाहत रखते हैं, क्योंकि मौजूदा शासन ने सिर्फ हमें गिरावट ही दी है, जो नोटबंदी और अब भी जारी कोविड-19 महामारी का नतीजा है. ऐसे में एनपीए की पहले से खराब स्थिति और भी अधिक बिगड़ सकती है. इस समय नियमों में बदलाव और ढील का प्रस्ताव चिंताओं को बढ़ाता ही है.
एनपीए के संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि जांच और सजा देने की राजनीतिक शक्ति होने के बावजूद मौजूदा शासन ने न तो कोई कड़ा संकेत दिया है और न ही किसी दोषी को सजा दी गयी है. विभिन्न अवरोधों व समस्याओं का संज्ञान लेने के बाद भी व्यापक स्तर ऐसी गिरावट कैसे हो सकती है? सच तो यह है कि सभी क्षेत्रों में व्यावसायिक योजनाएं पूरी तरह से एक साथ असफल रही हैं. ऐसी कहानियां खूब सुनने को मिलती हैं कि कैसे बैंकों का खाता बढ़ाने के लिए ऋण अधिकारियों ने व्यावसायियों का पीछा किया था और उन्हें नियमों व सिद्धांतों की कोई परवाह नहीं थी.
इस आपाधापी में सार्वजनिक धन किसकी जेब में गया, इसकी चिंता सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) बढ़ने का उत्सव मनानेवालों ने कभी नहीं की. शासकीय व्यवस्था, सततता और संभाव्यता को ध्यान देने योग्य आकर्षक विषय नहीं माना जाता था. ब
भारत को इस पर लगाम लगाने की आवश्यकता है, लेकिन हम इस पर समुचित ध्यान नहीं दे रहे हैं. सरकार को वैसे लोगों के पीछे पड़ना चाहिए था, जिन्होंने किसी सही कारण के अलावा पैसे को दबाया है, ताकि दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत किया जा सके, किंतु सरकार एनपीए पर कुछ कारगर नहीं कर सकी. बड़े व्यावसायियों के प्रति नरमी का आरोप उस पर लगाया जा सकता है.
दिवालियेपन व विलयन से संबंधित कानून तो है, पर यह अभी प्रारंभिक अवस्था में है तथा 180 दिन के भीतर किसी भी तरह से पैसा जमा करने या विघटित होने के कड़े नियमन का पालन विभिन्न कारणों से ठीक से नहीं हो सका है. संक्षेप में, बैंकिंग भरोसे पर टिका व्यवसाय है, जहां दुर्भावना से लिये गये बैंक के किसी भी निर्णय का उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जाता है. ये विशेषताएं हमारी बैंकिंग प्रणाली में नहीं हैं. कॉर्पोरेट से संबंधित और नियंत्रित नये बैंकों की स्थापना से इस समस्या का निदान नहीं होगा, बल्कि यह और भी गंभीर हो जायेगा. फिर भी, हमें ईस्ट इंडिया कंपनी के आधुनिक रूपों की सेवा हेतु बनानेवाले नये साम्राज्यवादी बैंक के लिए पूरी तरह तैयार रहना चाहिए.
posted by : sameer oraon