आलोक धन्वा
वरिष्ठ कवि
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फणीश्वर नाथ रेणु के जन्म शताब्दी समारोह में हिंदी के जागरूक पाठकों ने जिस बौद्धिक और आत्मीय संजीदगी से हिस्सा लिया है, वह भारत गणराज्य के जन-गण के मानवीय एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति लगाव और आत्मविश्वास को दर्शाता है. इस दौरान पिछले साल भर में दस से अधिक पत्रिकाओं ने जिस तरह उन पर केंद्रित अंक निकाला है, वह आश्चर्यजनक है. इससे पहले प्रेमचंद के अलावा किसी अन्य कथाकार को लेकर इस तरह का लेखकीय उल्लास प्रकट हुआ हो, यह याद नहीं आता.
प्रेमचंद और रेणु को कई लोग दो छोर की तरह देखते हैं, जबकि दोनों की रचना के केंद्र में ग्रामीण जीवन है, पर मैं इस तरह नहीं देखता. प्रेमचंद और रेणु साहित्य के दो छोर नहीं हैं. दरअसल, प्रेमचंद की जो विकासमान धारा आधुनिक हिंदी में पराधीन भारत में ही शुरू हो चुकी थी और आज तक जारी है, वह हमें प्रेरित करती रहती है, रेणु भी इसी धारा के एक समर्थ लेखक रहे. रेणु जी से मेरी पहली मुलाकात चर्चित कवि, कथाकार राजकमल चौधरी ने करायी थी. राजकमल चौधरी जी से भी कुछ ही समय पहले हमलोग मिले थे. फिर उनके यहां आने-जाने लगे. तब हमारे एक साथी होते थे रत्नधर झा, जो यूएनआइ में पत्रकार थे.
इन मुलाकातों में वे हमारे साथ होते थे. राजकमल जी से बातचीत के दौरान जब रेणु जी की बात निकली, तो उन्होंने पूछा कि क्या आप फणीश्वरनाथ रेणु से मिले हैं? मैंने कहा- नहीं. उन्होंने पूछा कि क्या आप उनसे मिलना चाहते हैं? मैंने कहा-हां, क्यों नहीं. उस समय राजेंद्र नगर, पटना के एक फ्लैट में रेणु जी रहते थे. तब जो भी ख्यात लोग पटना आते, वे रेणु जी से जरूर मिलते. अज्ञेय, रघुवीर सहाय आदि सभी लोग उनसे मिलने आते थे. जब राजकमल चौधरी जी के साथ मैं रेणु जी के यहां पहली बार पहुंचा, तो बहुत रोमांचित था और उनको निहार रहा था. वह लंबे, सुदर्शन थे और घुंघराले बाल रखे हुए थे. इसके बाद रेणु जी के यहां आना-जाना लगा रहा.
दिनकर जी से मेरी पहली मुलाकात रेणु जी ने ही करवाई थी. उन दिनों पटना कॉफी हाउस में लेखकों की बैठकी लगा करती थी. उसमें रेणु जी भी हमेशा शामिल रहते थे, बल्कि यों कहें कि इन बैठकों में रेणु जी ही केंद्र में रहते थे. बाबा नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु और राजकमल चौधरी से मुझे लिखने-पढ़ने-सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, इस पर मुझे गर्व है. इनमें फणीश्वरनाथ रेणु के साथ मैं बीस वर्षों तक निरंतर रहा. रेणु के यहां हमारे ग्रामीण जीवन का जैसा यथार्थवादी और महाकाव्यात्मक सृजन दिखता है, उससे मैं आज भी प्रभावित हूं और आगे आनेवाली पीढ़ियों को भी उससे सृजन की ताकत मिलेगी. यही वजह है कि रेणु साहित्य के प्रति भारी दिलचस्पी बनी हुई है. लोग भारत के अलग-अलग प्रांतों में रेणु को पढ़ रहे हैं.
बहुत सारे लोग रेणु के साथ जैनेंद्र और अज्ञेय की तुलना की बात करने लगते हैं, पर मेरा मानना है कि जैनेंद्र, अज्ञेय और रेणु की तुलना नहीं होनी चाहिए. ये तीनों आधुनिक हिंदी के बड़े रचनाकार हैं और इन्होंने आलोचनात्मक यथार्थ को अपने लेखन से सशक्त बनाया है. ये हमारे आधुनिक भारतीय साहित्य के गौरव हैं.
रेणु जी के रचना संसार को देखें. लाल पान की बेगम, रसप्रिया, संवदिया और आदिम रात्रि की महक जैसी कहानियां भारतीय साहित्य की निधि हैं. फणीश्वर नाथ रेणु अपनी अंतर्दृष्टि से पूरी कायनात को इस तरह निहारते हैं कि पेड़-पौधे, बाग-बगीचे, खेत-पोखर, नदियां, पक्षी और जानवर अपने नये संदर्भों के साथ हमारे सामने आते हैं. रेणु जी के रचना संसार में जो एक गहरी जीवन लय दिखती है, वह हमेशा हमें अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की जिजीविषा देती है. जन-आंदोलनों के बीच रहकर ही उन्होंने मनुष्य के अधिकारों की पाठशाला में दाखिला लिया.
उनके रचना संसार में संसदीय लोकतंत्र के अंतर्विरोध तो दिखायी देते ही हैं, वह भारत के कुछ ऐसे बड़े लेखकों में हैं, जो किसी भी तरह के एकाधिकार के विरुद्ध थे. वह सामाजिक बदलाव को बेहद करीब से देख रहे थे और बदलती राजनीति को भी. उनके बदलावों की त्रासदी के जीवंत पात्र जगह-जगह दिख जायेंगे.
रेणु जी को दो लोगों से बहुत प्यार था, वे थे संपूर्ण क्रांति के जनक जयप्रकाश नारायण और राष्ट्रकवि दिनकर. फणीश्वरनाथ रेणु की मृत्यु पर निर्मल वर्मा ने लिखा था- हमलोग कुछ भी लिखते, तो इस बात का सदा ध्यान रखते कि उसे रेणु जैसे बड़े लेखक पढ़ेंगे. रेणु एक इनोवेटर और युगबोध वाले महान रचनाकार थे.
Posted By : Sameer Oraon