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पाकिस्तान पहले आतंक पर रोक लगाये

कुछ ठोस नतीजा हासिल करना है, तो पाकिस्तान को अलगाववाद और आतंकवाद की अपनी नीति पर अंकुश लगाना होगा.

पिछले महीने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम पर हुई सहमति तथा शांति बहाली की हालिया चर्चाओं से मुझे कोई खास उम्मीद नहीं है, हालांकि पाकिस्तान की ओर से सुहावनी बातें हुई हैं, खासकर सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा की एक तकरीर में. मसला यह है कि उन बातों का जमीनी स्तर पर हो रही हरकतों से कोई मेल-जोल नहीं है, जहां पाकिस्तान की ओर से ऐसी कोई पहल नहीं दिख रही है, जिससे महसूस हो कि वह भारत से बेहतर रिश्ते चाहता है.

जनरल बाजवा ने जो कुछ इस्लामाबाद के अपने भाषण में बोला, वह शायद दुनिया को दिखाने के लिए ज्यादा था और उसमें नीति या नीयत में बदलाव का संकेत नहीं था. एक पाकिस्तानी मंत्री ने माना भी है कि वह तकरीर भारत के लिए नहीं थी, बल्कि दुनिया को यह दिखाने के लिए थी कि पाकिस्तान अमन-चैन की बहाली के लिए एक प्रगतिशील राह पर आगे बढ़ रहा है और पाकिस्तान की छवि बेमतलब खराब की गयी है.

दूसरा आधार पाकिस्तान सरकार का वह दस्तावेज है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की छवि को बेहतर करने का कार्यक्रम बनाया गया है. यदि आप बाजवा के भाषण को सुनें और उस दस्तावेज को देखें, तो यह साफ है कि वह तकरीर इस दस्तावेज के अनुरूप है.

ऐसे में दोनों देशों के बीच जो कुछ अभी हो रहा है, वह ज्यादा आगे नहीं बढ़ेगा. यह जरूर है कि इससे भारत में यह महसूस किया जा रहा है कि आखिर हम पाकिस्तान से पूरी तरह कटकर तो नहीं रह सकते, सो जब वे तमाशा कर रहे हैं, तो हम भी उनके साथ तमाशा कर लेते हैं. इस लिहाज से भारत की ओर से जो संदेश गये हैं, वे सब इसी सोच के अनुसार हैं. ऐसे में यह भी जरूर होगा कि सिंधु जल समझौते से संबंधित बैठकें जैसी कुछ पहलें हों. सिंधु बैठक एक नियमित बैठक है, जो पिछले साल कोरोना महामारी के कारण नहीं हो सकी थी.

इसमें कोई खास नया नहीं होना है. यह भी संभव है कि अन्य कुछ मुद्दों पर आगे दोनों देश के अधिकारी मिलें, राजनीतिक स्तर की बातचीत भी हो सकती है, ताजिकिस्तान में संभवत: भारत व पाकिस्तान के विदेश मंत्री मिल सकते हैं. ऐसी बातचीत तो पहले भी होती रही हैं, अब दुबारा शुरू हो जायेंगी. लेकिन इन पहलों से बात नहीं बनेगी क्योंकि जमीनी स्तर पर स्थितियां पहले की तरह ही बनी रहेंगी. तो, हो सकता है कि यह सब कुछ महीने या साल-डेढ़ साल चले, पर फिर गतिविधियां रुक जायेंगी और वापस हम वहीं पहुंचेंगे, जिसे छोड़कर चले थे.

कुछ ठोस नतीजा हासिल करना है, तो पाकिस्तान को अलगाववाद और आतंकवाद की अपनी नीति पर अंकुश लगाना होगा. कुछ समय पहले कहा जा रहा था कि दोनों देश पृष्ठभूमि में बातचीत कर रहे हैं. अभी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि पाकिस्तान ने आतंक रोकने की कोशिश की है. अगर यह सही है, तो फिर आतंकवाद से जुड़ी बाकी खबरें झूठी हैं.

कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित और पाकिस्तानी मूल के आतंकवादी सक्रिय हैं. सीमापार से उनके लिए हथियार आ रहे हैं. ड्रोन से असलहे भेजे जाने की घटनाएं हुई हैं, यह सिर्फ कश्मीर में नहीं, बल्कि पंजाब में भी हो रहा है. लंबी-लंबी सुरंगें बनायी गयी हैं. क्या यह सब बिना पाकिस्तान की सरपरस्ती के हो रहा है? इसके साथ, भारत-विरोधी दुष्प्रचार का संज्ञान भी लिया जाना चाहिए. कश्मीर में अलगाववाद व आतंकवाद के अलावा खालिस्तानी गुटों को उकसाने के लिए ऐसी कोशिशें हो रही हैं.

जनरल बाजवा ने अपने भाषण में कहा है कि पाकिस्तान की नीति का एक बड़ा आधार यह होगा कि वह पड़ोसियों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा. यदि हम कश्मीर के मसले को कुछ देर के लिए अलग भी रख दें, तो पंजाब में और देश में किसानों का आंदोलन चल रहा है या भारत में और जो कुछ हो रहा है, वह सब भारत का आंतरिक मामला है या उन पर पाकिस्तान को बोलने का अधिकार है? जब वे कह रहे हैं कि आंतरिक मामलों में दखल नहीं देंगे, तो इन मुद्दों पर उनकी बयानबाजी को कैसे समझा जाना चाहिए? पाकिस्तान की कथनी और करनी में जो अंतर है, वह तो साफ दिख रहा है.

एक अन्य अहम बात यह है कि भारत, प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ दल के बारे में जिस भाषा में पाकिस्तान की ओर से बयान दिये जाते हैं, वे कूटनीतिक मर्यादाओं का सरासर उल्लंघन हैं. अगर मान लिया जाये कि पाकिस्तान ने नीति और नीयत में बदलाव किया है, तो पहली चीज यह होनी चाहिए थी कि उसकी भाषा में शालीनता आती. यह भी नहीं नजर आ रहा है. भाषा की शालीनता के बाद हरकतों में सुधार भी अपेक्षित है. बहरहाल, मेरी राय में दोनों देश दुनिया को दिखाने के लिए छोटे-मोटे स्तर पर संपर्क और संवाद बहाल कर रहे हैं, कोई बड़ी पहल या बदलाव की गुंजाइश नहीं दिख रही है, जिससे यह उम्मीद बंधे कि इस बार कुछ अलग होने की संभावना है.

कुछ लोगों द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि अगर भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बेहतर होते हैं, तो अफगानिस्तान में अमन-चैन की बहाली में मदद मिल सकती है. इससे मेरी सहमति नहीं है. हालांकि मैं नहींं मानता हूं, पर बहुत सारे लोग मानते हैं कि 2004 और 2008 के बीच भारत और पाकिस्तान के संबंध बहुत अच्छी स्थिति में थे तथा आपस की तमाम बड़ी समस्याओं के समाधान की उम्मीद की जा रही थी.

लेकिन मुंबई हमलों के साथ ही यह सब खत्म हो गया. लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि इसी अवधि में अफगानिस्तान में स्थिति बिगड़नी शुरू हुई और हालात बहुत जल्दी बेकाबू हो गये. तो, जो लोग आज की उम्मीद में हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि तब ऐसा कैसे हो गया था. अमेरिका के दबाव की बात नहींं कर रहा हूं, पर वह दोनों देशों से संयम और समाधान के लिए कह रहा है. भारत का ध्यान चीन से लगी उत्तर और पूर्व की सीमा पर अधिक है.

अमेरिका चाहेगा कि पाकिस्तान का अधिक ध्यान अफगानिस्तान की सीमा पर हो, भारत की सीमा पर कम हो क्योंकि वह अफगानिस्तान के मसले को आगामी कुछ महीनों में सुलझाने की कोशिश में है. भारत और पाकिस्तान ने भी इस सुझाव में अपना कुछ फायदा देखा होगा, सो तनाव में कुछ कमी के आसार बने हैं. यह बात तो समझी जा सकती है, पर इससे अफगानिस्तान पर असर पड़ने का तर्क ठीक नहीं है.

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