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हमारे स्वभाव में है लोकतांत्रिक मूल्य

हमारे गणतंत्र की यात्रा निर्बाध चल रही है और आगे भी चलती रहेगी. यह किसी राजनीतिक दल या नेता की देन नहीं है, यह भारत की मिट्टी की देन है, लेकिन हमारे नायकों की विफलता साफ-साफ दिख रही है.

By राम बहादुर | January 26, 2021 5:36 AM
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26 जनवरी, 1950 से भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य की यात्रा बिना रुके, बिना थके और बिना किसी बाधा के निरंतर चल रही है. भारतीय लोकतंत्र की अवधारणा की यह बड़ी सफलता है. यह लोकतांत्रिक गणराज्य भारत के उस संविधान से निकला है, जिसे संविधान सभा ने 26 नवंबर, 1949 को स्वीकृत और अंगीकृत किया. और, यह भारत की जनता के नाम से किया गया.

संविधान सभा ने ‘वी द पीपुल ऑफ इंडिया’ यानी ‘हम भारत के लोग’ कहते हुए इस संविधान को अंगीकृत किया. यह एक अद्भुत कल्पना थी, जो दुनिया के किसी संविधान में नहीं की गयी थी. वर्ष 1931 में कांग्रेस का कराची अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता सरदार वल्लभ भाई पटेल कर रहे थे. उनके नेतृत्व में कांग्रेस की प्राथमिकताओं और पहली बार संविधान की रूपरेखा का निर्धारण किया गया. कांग्रेस ने देश से वादा किया था कि हम जनता को मौलिक अधिकार प्रदान करेंगे, जिससे अंग्रेजों ने हमें वंचित कर रखा है.

यह संयोग की बात नहीं है, बल्कि सुनिश्चित योजना के तहत ही संविधान सभा ने सरदार की पटेल की अध्यक्षता में एक समिति बनायी, जिसमें अल्पसंख्यकों, जनजातियों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था पर व्यापक विचार-विमर्श हुआ.

अंग्रेजों ने देश को बांटने के लिए जो पृथक निर्वाचन प्रणाली बनायी थी, उसे हमारे संविधान ने खारिज कर दिया और संयुक्त निर्वाचन प्रणाली और लोगों को बालिग मताधिकार दिया. राजनीति शास्त्र के विद्वानों को लगता था कि भारत ने बहुत बड़ी छलांग ली है और शायद इस छलांग में उसके कहीं पैर टूट न जाएं. लेकिन, हमारे देश के पढ़े और अनपढ़े सभी लोगों ने दिखा दिया है कि लोकतंत्र हमारे स्वभाव में है.

इसलिए लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा निर्बाध रूप से सफल हुई है, लेकिन संविधान में जो वादे किये गये थे, उस पर सबसे पहला कुठाराघात पहले संविधान संशोधन के माध्यम से पं जवाहर लाल नेहरू ने ही किया. पहला संशोधन कांग्रेस वादे और मौलिक अधिकारों पर कुठाराघात है. पहला संशोधन संविधान निर्माताओं के वायदों और संविधान की मर्यादा के भी खिलाफ है. संविधान का अनुच्छेद-368 संविधान संशोधन का प्रावधान करता है. अगर बड़े संशोधन हैं, तो उसके लिए संसद की उपस्थिति का दो तिहाई समर्थन अनिवार्य है.

जिस समय नेहरू ने पहले संशोधन का प्रस्ताव रखा, तो उस पर राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू को दुविधा थी कि हस्ताक्षर करें या न करें. कारण था कि आमचुनाव और लोकसभा का निर्वाचन नहीं हुआ था. संसद अनंतिम (प्रोविजनल) थी और राज्यसभा गठित नहीं हुई थी. संविधान की व्यवस्था के अनुसार, संशोधन प्रस्ताव दोनों सदनों से दो तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए था,

लेकिन अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर, जो संविधान सभा के सदस्य, बहुत बड़े वकील थे, उनसे राजेंद्र बाबू ने संशोधन पर हस्ताक्षर के लिए पूछा. उनकी ही सलाह पर राजेंद्र बाबू ने संशोधन प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिया. मूल संविधान में सात मौलिक अधिकार दिये गये थे. अब छह ही रह गये हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर नेहरू ने जो गहरी चोट दी, वह आज भी बनी हुई है.

भारतीय गणतंत्र की दृष्टि से दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात है कि हमारा संविधान तीन बातों के लिए जाना जाता है. पहली बात, उसमें मौलिक अधिकारों की व्याख्या है, दूसरी बात, राज्यों के लिए नीति निदेशक तत्व बनाये गये हैं. इसे हम अदालत से हासिल नहीं कर सकते. ये मार्गदर्शक सिद्धांत हैं, जो नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए राज्य सरकारों को नीतियां बनाने का निर्देश देते हैं.

इस संविधान के मुख्य शिल्पी बेनेगल नरसिंह राव चाहते थे कि नीति निदेशक तत्वों को प्रमुखता दी जाए और उसके अनुसार ही राज्य सरकारें अपनी नीतियां बनाएं. हालांकि, यह संभव नहीं हो सका और नीति निदेशक तत्वों की आज भी उपेक्षा हो रही है. इस कारण से 71 वर्षों में सामान्य व्यक्ति को जो अधिकार मिलना चाहिए था, जो जीवन की प्राथमिक जरूरतें थीं, उससे वह आज भी वंचित है. हमारी 80 प्रतिशत आबादी अपनी प्राथामिक आवश्यकताओं के लिए संघर्षरत है.

अच्छी बात है कि हमारे गणतंत्र की यात्रा निर्बाध चल रही है और आगे भी चलती रहेगी. वह किसी राजनीतिक दल या नेता की देन नहीं है, वह भारत की मिट्टी की देन है, लेकिन हमारे नायकों की विफलता गणतंत्र दिवस पर साफ-साफ दिख रही है. प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में एक शुरुआत की थी, अगर वह अपने अंजाम तक पहुंचती है, तो जो कमियां रह गयी थीं, वह दूर हो सकती हैं. झारखंड में 2015 में उन्होंने ग्राम स्वराज्य की बात की थी.

उन्होंने ग्राम पंचायतों को सीधे धनराशि देने की बात कही. वह जा भी रही है. अब देखने की बात है कि क्या उन पैसों का सही इस्तेमाल हो रहा है, क्या पंचायत प्रणाली ठीक से काम कर रही है. ये विषय राज्य सरकारों के हैं. पंचायतों को अधिकार देने में राज्य सरकारों की अनिच्छा स्पष्ट है. अफसरशाही नहीं चाहती है कि पंचायतों और गांव के लोगों को अपना निर्णय करने का अधिकार मिले. यह बहुत बड़ी बाधा है और इसे कैसे दूर किया जायेगा, उपाय मिल-जुल कर और विमर्श करके ही निकाला जा सकता है. जम्मू-कश्मीर ने इस संदर्भ में जरूर देश को रास्ता दिखाया है.

साल 2018 में जम्मू-कश्मीर पंचायत कानून बना, तो वह पहला राज्य था, जिसने 73वें संविधान संशोधन में जो विषय ग्राम पंचायतों के अधीन दिये गये थे, उसके 23 विषयों को जम्मू-कश्मीर के पंचायत कानून में शामिल किया गया. लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने भारत सरकार की सहमति से एक और संशोधन कराया है. अभी हाल ही में वहां डीडीसी के चुनाव संपन्न हुए. त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली सबसे पहले जम्मू-कश्मीर में लागू हुई है. अगर दूसरे राज्य भी इस शुरुआत का अनुसरण करें, तो गणराज्य की अवधारणा साकार हो सकती है, जिसमें सामान्य व्यक्ति को वही अधिकार है, जो देश के राष्ट्रपति को है.

बहुत पहले 1983 में जब कर्नाटक में रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री बने थे, तो उन्होंने कई लोगों जैसे रजनी कोठारी, एलसी जैन आदि की सलाह पर वहां के गांवों और पंचायतों को कुछ विशेष अधिकार देने की शुरुआत की थी. वर्ष 1993 में हुए संविधान संशोधन को ठीक से लागू किया जाये, तो हमारी उपलब्धियां कई गुना बढ़ जायेंगी.

लोगों में अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता है. समस्या है कि वे जागरूकता का क्या करें. तंत्र और लालफीताशाही टस से मस नहीं होती. राजनेता अफसरशाही के चंगुल में फंस जाते हैं, उससे निराशा होती है. यही कुंठा कई बार हिंसा में प्रकट होती है. यह समस्याएं भी जागरूकता का एक दूसरा पहलू हैं. लोगों को लगता है कि जब हम लोकतांत्रिक तरीके से अपना हक हासिल नहीं कर पाते हैं, तो दूसरे तरीके अपनाते हैं.

हमने जिनके हाथों में जनतंत्र की बागडोर दी गयी है, उसमें सभी साफ-सुथरे नहीं हैं. चुनाव के समय एडीआर की जो रिपोर्ट आती है और सभी लोग जानते भी हैं कि विधानसभाओं और लोकसभा में अपराधी चरित्र के लोग बैठे हुए हैं. यह बड़े विरोधाभास की स्थिति है. प्रधानमंत्री मोदी जिस तत्परता के साथ लगे हुए हैं, अगर हर राज्य ऐसी तत्परता और संकल्प के साथ काम करें, तो लक्ष्य आसानी से प्राप्त किया जा सकता है. पीछे के समय को हमने गंवाया ज्यादा और कमाया कम है.

अब जो शुरुआत हुई है, वह निर्बाध रूप से आगे चलती रहनी चाहिए. अफसरशाही पर लगाम जरूरी है. सरकारी तंत्र गुलामी की मानसिकता का प्रतीक बन गया है. यह तंत्र की कार्यप्रणाली में भी दिखता है. राज्य चलानेवाले अगर गुलाम मानसिकता और ब्रिटिशकाल की आदतों के मुताबिक काम करेंगे, तो नया भारत बनने में अड़चनें आयेंगी.

Posted By : Sameer Oraon

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