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आत्मनिर्भरता के लिए आसान कर्ज

जब पूंजी आसानी से और कम दामों पर उपलब्ध होगी, तो सपनों को पूरा करने में मदद मिलेगी. गौरतलब है कि बजट में दो नये वित्तीय संस्थानों के निर्माण का प्रस्ताव है- एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी (एआरसी) और डेवलपमेंट फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन (डीएफआइ). ये दोनों संस्थान उस आवश्यक क्रेडिट ग्रोथ की कमी को पूरा करने में मददगार होंगे, जिसके चलते तेजी से आर्थिक सुधार के प्रयास बाधित हुए थे. भारत में, विशेष रूप से घरेलू कंपनियों के लिए कॉमर्शियल क्रेडिट ग्रोथ के साथ, प्रस्तावित डीएफआइ ज्यादा नौकरियां पैदा करने के साथ निजी निवेश की नयी लहर लेकर आयेगा.

By डॉ. निशिकांत | March 9, 2021 6:34 AM

डॉ निशिकांत दुबे

सांसद, लोकसभा

delhi@prabhatkhabar.in

वर्ष 2021-22 के प्रस्तावित केंद्रीय बजट ने एक नपे-तुले विस्तार को ध्यान में रख कर राजकोषीय मुद्रा का सहारा लेकर महामारी के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर वापस लाने के लिए एक मंच तैयार किया है. यह बजट आंकड़ों में अभूतपूर्व पारदर्शिता के साथ आत्मनिर्भर भारत की ओर बढ़ते कदम को और मजबूत करता है. एक ठोस और उत्साहित घरेलू कॉर्पोरेट क्षेत्र आत्मनिर्भर भारत की आधारशिला होगा, जैसा प्रधानमंत्री मोदी ने अपने वक्तव्यों में अक्सर कहा है.

जब पूंजी आसानी से और कम दामों पर उपलब्ध होगी, तो सपनों को पूरा करने में मदद मिलेगी. गौरतलब है कि बजट में दो नये वित्तीय संस्थानों के निर्माण का प्रस्ताव है- एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी (एआरसी) और डेवलपमेंट फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन (डीएफआइ). ये दोनों संस्थान उस आवश्यक क्रेडिट ग्रोथ की कमी को पूरा करने में मददगार होंगे, जिसके चलते तेजी से आर्थिक सुधार के प्रयास बाधित हुए थे. भारत में, विशेष रूप से घरेलू कंपनियों के लिए कॉमर्शियल क्रेडिट ग्रोथ के साथ, प्रस्तावित डीएफआइ ज्यादा नौकरियां पैदा करने के साथ निजी निवेश की नयी लहर लेकर आयेगा.

हालांकि विदेशी निवेश को मौका देना स्वागतयोग्य है, लेकिन विदेशी निवेशकों ने हमेशा ग्रीन फील्ड निवेश के बजाय ब्राउन फील्ड निवेश करना पसंद किया है. तीन दशकों में ग्रीन फील्ड प्रोजेक्ट में किसी एक बड़े एफडीआइ की ओर इशारा करना मुश्किल है. उदारीकरण से पहले या बाद में प्रोजेक्ट से जुड़े जोखिम को हमेशा घरेलू भारतीय उद्यमियों और बिजनेस घरानों ने झेला है. इसे पहचाना और सराहा जाना चाहिए. प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में कहा है कि निजी क्षेत्र पर हमला करने और उसे कमजोर बनाने से भारत का विकास नहीं होगा और यह रोजगार पैदा करने में और आर्थिक विकास के लिए हानिकारक होगा.

इस हिसाब से प्रोजेक्ट के लिए आसान और बजट के अंदर रहनेवाले फाइनेंस की उपलब्धता हमारी अर्थव्यवस्था में इस मोड़ पर भारतीय कंपनियों के लिए सबसे अहम है. अधिकतर भारतीय कंपनियों और महासंघों के पास कम लागतवाली या दीर्घकालिक पूंजी उपलब्ध नहीं है. सार्वजनिक क्षेत्र के भारतीय बैंक एसेट लायबिलिटी मिसमैच, पूंजी की कमी, एसेट की बिगड़ती गुणवत्ता, उच्च विनियामक लागतों से जूझ रहे हैं. कई प्रोजेक्ट के लिए फाइनेंस रोक दिये गये हैं. हमारी कंपनियों के लिए सस्ती पूंजी की जरूरत ऑक्सीजन की तरह है और इसे मुहैया कराना इस मुश्किल घड़ी में बहुत मायने रखता है.

जहां एक ओर नये डीएफआइ व एआरसी की स्थापना सार्वजनिक बैंकों के पूंजीकरण और निजीकरण जैसी कुछ समस्याओं का हल करेगी, वहीं थोड़ी छूट देते हुए नियामक ढांचे के दो विशिष्ट क्षेत्रों पर नजर डालना भी जरूरी है. सबसे पहले, बैंक को डिफॉल्ट करनेवाली कंपनियों को कर्ज देना बंद कर देना चाहिए तथा ऐसा उन कंपनियों के साथ भी करना चाहिए, जो कर्ज समय से चुका तो रही हैं, लेकिन उनके प्रोमोटर या डायरेक्टर किसी डिफॉल्ट करनेवाली कंपनी में भी पदधारी हैं. कॉर्पोरेट भारत में एक बड़े क्रॉस-होल्डिंग स्ट्रक्चर को देखते हुए ऐसे अहम बदलाव जरूरी हैं. इस संबंध में एक संभावित विकल्प यह हो सकता है कि बैंकों को ऐसे सभी मामलों पर निर्णय लेने की अनुमति हो, जहां किसी कंपनी पर बकाया लोन जोखिम सीमा से नीचे है.

दूसरा, उन लोगों के लिए एक मददगार पोस्ट-रिजॉल्यूशन माहौल बनाया जाए, जो किसी डिफॉल्ट के बाद निबटारे की प्रक्रिया से गुजरे हैं. एक ओर ‘क्रेडिटर-इन-कंट्रोल’ की नयी व्यवस्था भी जरूरी है. वहीं यह ‘डेटर-इन-द-डॉक्स’ नीति पर आधारित नहीं हो सकता है, जो अभी प्रभावी रूप से मौजूद है.

मौजूदा माहौल विकास के लिए अनुकूल और कंपनियों के पुनरुद्धार में मददगार होने के बजाय केवल बकाया वसूली तक सीमित है. वहीं विदेशी बैंक इस संबंध में बहुत अधिक खुले और व्यावहारिक हैं. दरअसल, दिवालियेपन से जुड़े लगभग सभी मामलों की फाइनेंसिंग विदेशी बैंकों से हुई है. अपनी ओर से सरकार को उन व्यवसायों या कॉरपोरेट के लिए बराबरी के स्तर पर आकर मदद करनी चाहिए, जिन्हें अपने सभी लोन का भुगतान करने के बाद भी नया लोन नहीं मिलता है और जिन्होंने अपने प्रमुख एसेट बेच कर भी लोन चुकाने की प्रतिबद्धता दिखायी है. हितधारकों, ऋणदाताओं, उधारकर्ताओं और नियामकों के परामर्श से सरकार को उन कॉरपोरेट को लोन देने के लिए एक विशेष प्रक्रिया तैयार करनी चाहिए. इस सुविधा के तहत कर्ज की शर्तों को कठोर बनाया जा सकता है या व्यवहार्यता के विश्लेषण और आकलन के बाद उसे महंगा किया जा सकता है.

बेशक, ऐसी प्रक्रिया को जांचने की जरूरत होगी, ताकि अनैतिक तरीकों से चलनेवाली कंपनियों को कर्ज बांटने में जल्दी न हो. यह समझना चाहिए कि यह सुविधा केवल उन लोगों के लिए उपलब्ध होगी, जिनके लिए किसी स्वतंत्र ऑडिट द्वारा स्थापित किया गया हो कि उनका कोई बेनामी या धोखाधड़ी वाला लेनदेन नहीं है. ऐसी प्रणाली के तहत बड़ा लाभ यह है कि प्रोमोटरों को न केवल सहयोग करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा, बल्कि वे कर्ज देने को रोक कर पहले वसूली पर ध्यान देंगे. सरकार के अलावा भारतीय बैंक एसोसिएशन जैसी संस्थाओं को भी सक्रिय होना होगा और भारतीय और विदेशी बैंकों को साथ लाकर अपने कर्जदारों के लिए समाधान का मददगार माहौल बनाना होगा.

Posted By : Sameer Oraon

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