प्रभु चावला
एडिटोरियल डायरेक्टर
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla@
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भ्रांतवाद की कोमलता ही उसकी शक्ति है. वह धन के आवरण से संरक्षित होती है. व्यापार प्रशासन व प्रबंधन (एमबीए) की शिक्षा को आड़े हाथों लेते हुए दुनिया के सबसे साहसी खरबपति एलन मस्क ने कहा है कि ‘यह व्यक्ति की रचनात्मकता से सोचने तथा ग्राहकों की असली जरूरत को पूरा करने की क्षमता को सीमित करती है.’ वित्तीय बाजार के जटिल छत्ते में ये लोग श्रमिक मधुमक्खी होते हैं तथा अच्छी पृष्ठभूमि और नामी संस्थानों से पढ़े शीर्ष अधिकारियों के साथ शहद (पैसा) बनाते हैं.
वास्तविकता से बहुत अधिक महत्वपूर्ण समझे जानेवाले ये लोग ऊपर से नियंत्रित प्रबंधन संरचना के कारिंदे बना कर बाजारनीत आर्थिकी में धन सृजन का संचालन करते हैं. इन सबके पास चमकदार एमबीए डिग्रियां होती हैं. ये थकी हुई शब्दावलियों के इस्तेमाल में माहिर होते हैं, जिन्हें इनकी तरह के लोग ही समझ पाते हैं. उच्च स्तर का प्रशिक्षण पाये सांख्यिकीविद भी अंकों के इनके रहस्यपूर्ण हिसाब को नहीं समझ सकते.
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय की पढ़ाई बीच में छोड़नेवाले मस्क के पास एमबीए की डिग्री नहीं है. उनके अनुसार, ‘बहुत अधिक संख्या में एमबीए कंपनियां चला रहे होंगे. अमेरिका का एमबीएकरण हो गया है, जो मेरी दृष्टि में अच्छी बात नहीं है. उत्पाद या सेवा पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए तथा बोर्ड की बैठकों और वित्तीय बातचीत पर कम समय खर्च किया जाना चाहिए.’ वे आगे कहते हैं, ‘मैं इस डिग्री की वजह से नहीं हूं, इसके बावजूद लोगों को काम देता हूं.’
मस्क के व्यापार सहयोगी और पेपाल होल्डिंग्स शुरू करनेवाले वेंचर पूंजीपति पीटर थील ने सलाह दी कि ‘कभी भी एमबीए को काम पर मत रखो, वे आपकी कंपनी को बर्बाद कर देंगे.’ बीते कुछ दशकों में ऐसे डिग्रीधारियों ने उद्यमों का प्रबंधन करने से लेकर अस्पताल, हवाई अड्डे, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को चलाने में सरकारों को सलाह देने तक प्रशासनिक संरचना के हर स्तर पर घुसपैठ कर ली है. शीर्ष के दस अमेरिकी बिजनेस स्कूलों की डिग्री न्यूयॉर्क से नयी दिल्ली तक किसी भी लोकतांत्रिक अर्थव्यवस्था में शीर्षस्थ सत्ता केंद्र तक पहुंचने का पासवर्ड है.
जहां अमेरिका हर साल लगभग एक लाख एमबीए पैदा करता है, वहीं भारत के 55 सौ बिजनेस कॉलेज सालाना साढ़े तीन लाख से अधिक उनके देशी संस्करण पैदा करते हैं. रणनीति और प्रबंधन पर सलाह देनेवाली बहुराष्ट्रीय वैश्विक फर्मों ने 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद अपनी दुकानें खोल ली हैं.
नीति निर्धारण में इनका बहुत ज्यादा असर है. लगता है कि इनका प्रत्यक्ष उद्देश्य सरकारी तंत्र को बिखेरना और भारी खर्च पर निजी उद्यमों के लिए कारोबार पैदा करना है. ये ठेके के दस्तावेज बनाते हैं. कुछ मामलों में तो ठेके के कुल मूल्य से अधिक भुगतान विदेशी कंपनी के शुल्क के रूप में होता है. कुछ राज्यों में ताजा डिग्री पाये एमबीए को जिलाधीशों के साथ लगाया गया है, जो प्रशासनिक पुनर्संरचना योजना बनाने के लिए उस अधिकारी के बारे में सूचनाएं जुटाते हैं.
कुछ ने कई अच्छे बैंकों और कॉर्पोरेटों के लिए ऐसे मॉडल बनाये हैं, जिनसे वे तबाह हो गये. इन फर्मों द्वारा वरिष्ठ राजनेताओं और नौकरशाहों के रिश्तेदारों व करीबियों को पक्षपाती ढंग से नौकरी देने की कोई जांच नहीं होती.
साल 1908 में पहली बार अकादमिक रूप से बिजनेस साइंस को पढ़ानेवाला संस्थान हॉर्वर्ड बिजनेस स्कूल पहले एक व्यापार स्कूल भर था. अब अमेरिका में पांच सौ से अधिक बिजनेस स्कूल हैं, जो नियोक्ताओं के लिए अधिकाधिक मुनाफा कमाने का दर्शन सिखाते हैं. दो सौ देशों में शायद ही कोई बड़ी कंपनी होगी, जहां हॉर्वर्ड, येल, व्हार्टन, हास, एमआइटी, केलॉग या कोलंबिया से एमबीए किया हुआ शीर्ष अधिकारी नहीं है.
उन्हें प्रबंधन की स्टेकहोल्डर थियरी के अनुसरण की शिक्षा दी जाती है, जिसमें कारोबार के प्रबंधन के आचार-व्यवहार होते हैं, लेकिन स्टेकहोल्डर कौन है, इसे लेकर अर्थशास्त्रियों में मतभेद हैं. मिल्टन फ्रीडमैन के अनुसार, स्टेकहोल्डर थियरी का मतलब यह है कि कोई कंपनी अपने शेयरधारकों के प्रति जिम्मेदार है और उसे उनके लिए मुनाफा कमाना चाहिए. एडवर्ड फ्रीमैन के नेतृत्व में अर्थशास्त्रियों के एक समूह के मुताबिक, हर कारोबारी घराने को अपने कर्मचारियों, पर्यावरणविदों, वेंडरों, सरकारी एजेंसियों और क्षेत्रीय आकांक्षाओं जैसे अन्य स्टेकहोल्डरों के अधिकाधिक आर्थिक कल्याण को सुनिश्चित करना चाहिए.
लेकिन लगता है कि फ्रीमैन फ्रीडमैन से हार गये हैं. एमबीए की एक ही जिम्मेदारी है कि वह ऐसे कारोबारी तौर-तरीके अपनाये, जिससे शेयरहोल्डर का मुनाफा बढ़े. एमबीए डिग्रीधारियों ने वैश्विक व्यवस्था पर सांस्कृतिक तौर पर कब्जा जमा लिया है. भारत में हॉर्वर्ड और अन्य बिजनेस स्कूलों के लिए दीवानगी 1991 में शुरू हुई. चूंकि सुधारों का लक्ष्य बाजार को खोलना था, पर इसके लिए कोई भारतीय मॉडल नहीं था.
सरकार ने सलाह के लिए अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों से सलाहकारों को काम पर रखा. इस काम के आकर्षक बनते जाने से कारोबारों के मालिकों और वरिष्ठ नौकरशाहों ने महंगी एमबीए डिग्री के लिए अपने बच्चों को अमेरिका और ब्रिटेन भेजना शुरू कर दिया. उनमें से अधिकतर अब अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, निवेश फर्मों और सलाहकार कंपनियों के लिए भारत व विदेश में काम करते हैं.
अधिकतर शीर्षस्थ बिजनेस स्कूलों को प्रवेश के बदले बड़े भारतीय कॉर्पोरेशनों ने दिल खोल कर वित्तीय सहायता दी है. इस सांठ-गांठ के कारण लगभग सभी देशों में बड़े पैमाने पर धन का विषम वितरण हुआ है, लेकिन भारत इस एमबीएकरण का सबसे बड़ा भुक्तभोगी है. ताजा अध्ययन के अनुसार, भारत के सबसे धनी एक प्रतिशत लोगों के पास 95.3 करोड़ यानी निचले 70 प्रतिशत लोगों की कुल संपत्ति से चार गुना अधिक धन है.
सभी भारतीय खरबपतियों का कुल धन केंद्रीय बजट से भी अधिक है. आपदाकारी प्रभाव रखनेवाले मनी बेकर्स एसोसिएशन (एमबीए) उर्फ बॉस्टन ब्राह्मण लालच की आकाशगंगा के संरक्षक है, जो आम जन को रौंद देता है और प्रभु वर्ग को बढ़ा देता है. पांच ट्रिलियन डॉलर की आर्थिकी की आकांक्षा वाले भारत को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सूत्र- हॉर्वर्ड से हार्ड वर्क- को अपनाना चाहिए ताकि वैकल्पिक एमबीए- मास्टर ऑफ बेटर एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ नेशनल रिसोर्सेज- तैयार हो सके.
Posted By : Sameer Oraon