महामारी के बाद बजट से उम्मीदें

यह बजट असाधारण परिस्थितियों में पेश होगा. चालीस सालों में यह पहला मौका है, जब बजट को मंदी के बाद सदन के पटल पर रखा जा रहा है.

By अजीत रानाडे | January 20, 2021 6:33 AM
an image

अजीत रानाडे

सीनियर फेलो,

तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

editor@

thebillionpress.org

सलाना केंद्रीय बजट के पेश होने में दो सप्ताह से भी कम समय रह गया है. बजट एक संवैधानिक आवश्यकता है, क्योंकि संसद की अनुमति के बिना राजकोष से एक रुपया भी खर्च नहीं किया जा सकता है. आगामी बजट के प्रस्तावों पर चर्चा व बहस गर्मागर्म हो सकती है, लेकिन सत्ताधारी दल के बहुमत को देखते हुए उनका पारित होना तय है. वित्त विधेयक के पारित होने में संसद के ऊपरी सदन यानी राज्यसभा को प्रभावी विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है. बजट से संबंधित अधिकतर उपाय और पहलकदमी का अब तक शायद निर्धारण हो चुका होगा, फिर भी उनके बारे में अनुमान लगाया जा सकता है.

यह बजट असाधारण परिस्थितियों में पेश किया जा रहा है. चालीस सालों में यह पहला मौका है, जब बजट को मंदी (यानी जब राष्ट्रीय आय में संकुचन आया है) के बाद सदन के पटल पर रखा जा रहा है. उम्मीद है कि 2020-21 के वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में रियल टर्म्स में आठ फीसदी और नॉमिनल टर्म्स में चार फीसदी के आसपास गिरावट हो सकती है.

सामान्य परिस्थितियों में, जब जीडीपी में धनात्मक वृद्धि होती है, बजट को आमतौर पर पिछले वर्ष के हिसाब से आगे जाकर तैयार किया जाता है. यह कहने की जरूरत नहीं है कि इस बार एकदम नये और उग्र सुधारवादी उपायों के बारे में नहीं सोचा जा सकता है, लेकिन अधिकतर आकलनों और प्रस्तावों में कुल मिलाकर पिछले साल की तुलना में बढ़त है. इसलिए, यदि नॉमिनल जीडीपी में लगभग 12 फीसदी की बढ़ोतरी होती है, तो बजट में कराधान में 18 से 20 फीसदी की बढ़त का हिसाब हो सकता है. अगले साल के बजट के लिए आधार रेखा के बरक्स ऐसी बढ़तें संभावित नहीं हैं और न ही ये ठीक हैं.

जो भी हो, वित्त मंत्री संभवत: वित्तीय घाटे के आकार पर बहुत कम ध्यान देंगी. वृद्धि के लिए राहत पैकेज देना और रोजगार बढ़ाना बड़ी प्राथमिकताएं हैं. इसका मतलब यह है कि पूरे बजट का आकार 36 ट्रिलियन रुपये तक हो सकता है, जो पिछले साल के बजट से करीब 20 फीसदी अधिक है. अगर घाटे की मात्रा देखें, जो कुल उधार की मात्रा भी है, तो वह 12 ट्रिलियन रुपये यानी जीडीपी का छह फीसदी तक हो सकती है.

इंफ्रास्ट्रक्चर और बैंकिंग ऐसे दो क्षेत्र हैं, जिनमें केंद्र सरकार को अगले वित्त वर्ष में अधिक संसाधन मुहैया कराने की जरूरत है. बीते साल के लॉकडाउन से कुछ माह पहले वित्त मंत्री ने नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन की घोषणा की थी, जो सात हजार से अधिक परियोजनाओं का समुच्चय है और इसके तहत 111 ट्रिलियन रुपये पांच साल की अवधि में खर्च होने हैं. निश्चित रूप से इसमें अधिकांश खर्च देशी-विदेशी निजी क्षेत्र द्वारा किया जाना है. इनमें इक्विटी और कर्ज के मिले-जुले तरीके से वित्त जुटाया जायेगा.

इस पहल के तहत हर साल लगभग 22 ट्रिलियन रुपये खर्च होंगे. निश्चित रूप से इसमें से कम-से-कम 10 से 15 फीसदी हिस्सा सरकारी स्रोतों से आना चाहिए, जो सॉवेरेन इंफ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड के जरिये या सीधे शुरुआती पूंजी देकर मुहैया कराया जा सकता है. इस हिसाब से बजट में कम-से-कम दो से तीन ट्रिलियन रुपये का प्रावधान इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए होना चाहिए.

रिजर्व बैंक की हालिया रिपोर्ट में बैंकों की पूंजी जरूरत की गंभीर तस्वीर को रेखांकित किया गया है. लॉकडाउन के दौर में केंद्रीय बैंक ने बड़ा धैर्य दिखाया था. कर्जों की चुकौती रोकने के साथ चुकौती में नाकाम कर्जों की पहचान प्रक्रिया भी रोक दी गयी थी. इसके चलते आशा के उलट सितंबर में बैंकों के फंसे हुए कर्जों (एनपीए) का अनुपात बढ़ गया.

लेकिन लेखा-जोखा का दिन दूर नहीं है. किश्तें रोकने की अवधि जब पूरी होगी (अभी सर्वोच्च न्यायालय में मामला लंबित है), तब एनपीए का अनुपात बहुत बढ़ सकता है. इसके अलावा, जैसा कामथ कमिटी ने इंगित किया है, 26 सेक्टर दबाव में हैं और उनके 48 ट्रिलियन रुपये के कर्जों की पुनर्संरचना करने की जरूरत है, ताकि उनकी गिनती एनपीए के रूप में न हो. रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, यदि एनपीए का अनुपात 12 फीसदी होता है, तो सरकार को कम-से-कम दो ट्रिलियन रुपये की पूंजी सार्वजनिक बैंकों को मुहैया कराना होगा ताकि कर्ज दिये जा सकें और शेष अर्थव्यवस्था में क्रेडिट ग्रोथ हो सके.

यदि आर्थिकी को सात-आठ फीसदी की दर से बढ़ना है, तो बैंक क्रेडिट में 15-20 फीसदी की बढ़त जरूरी है. इसका मतलब यह है कि इसके लिए बैंकों को पूंजी दी जानी चाहिए. केंद्रीय बजट में इस पूंजी का आवंटन होना चाहिए. इस धन को निजीकरण से भी जुटाया जा सकता है. जिन बैंकों को पूंजी दी जानी है, उन सबके स्वामित्व को एक सुपर कंपनी में बदला जा सकता है, जो 75 फीसदी तक के निजी निवेश को आमंत्रित कर सकता है.

यह उतना उग्र सुधार नहीं है, जितना प्रतीत हो रहा है तथा ऐसी सलाह अनेक समितियां दे चुकी हैं. होल्डिंग कंपनी के निजीकरण से सरकार बजट के कुछ खर्च को बचा सकती है तथा सुपर कंपनी के तहत संचालित सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को उनके अपने बोर्ड द्वारा संचालन से उनका प्रबंधन भी बेहतर होगा.

इंफ्रास्ट्रक्चर और बैंकिंग की प्राथमिकताओं के साथ स्वास्थ्य सेवा, स्टार्टअप, स्वच्छ ऊर्जा, शिक्षा, कौशल, ग्रामीण रोजगार गारंटी आदि कई क्षेत्रों की बजट से अपेक्षाएं हैं. महामारी के अनुभव के बाद स्वास्थ्य सेवा में सार्वजनिक खर्च में कम-से-कम दुगुनी बढ़त कर इसे करीब छह ट्रिलियन रुपये किया जाना चाहिए. बिहार चुनाव से पहले के वादे के अनुसार अगर सभी को मुफ्त में टीका दिया जाना है, तो इसके लिए भी कम-से-कम दो ट्रिलियन रुपये का प्रावधान करना होगा.

डेढ़ साल में पचास करोड़ लोगों का टीकाकरण बहुत बड़ा अभियान होगा, लेकिन यह न केवल कारोबार व उपभोक्ताओं में भरोसा बढ़ाने का बड़ा कारक होगा, बल्कि यह एक वास्तविक वित्तीय राहत भी साबित होगा. इन बड़ी पहलों के अलावा पुराने कर्जों के ब्याज (करीब छह ट्रिलियन रुपये), खाद्य व खाद अनुदान (तीन ट्रिलियन रुपये), पेंशन समेत सैन्य खर्च (छह ट्रिलियन रुपये) जैसे निर्धारित खर्च भी हैं.

ऐसे में बड़े उपायों व सुधारों की गुंजाइश बहुत कम हो जाती है. शायद यह राजस्व के मामले में देखा जा सकता है. संसाधन जुटाने के लिए विशेष बॉन्ड घोषित हो सकते हैं या सोने के मामले में माफी देकर देश में दबा धन निकालने की कोशिश हो सकती है. जल्दी ही हमें पता चल जायेगा.

Posted By : Sameer Oraon

Exit mobile version