पीठ ने उच्चाधिकार प्राप्त समितियों को निर्देश दिया कि वे राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के दिशानिर्देशों को अपनाते हुए नये कैदियों की रिहाई पर विचार करें. इसके अलावा अदालत ने सभी कैदियों को पर्याप्त मेडिकल सुविधाएं देने का निर्देश भी दिया है. साल 2019 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक देश में कुल 1412 जेल हैं, जिनमें 4,78,600 कैदी हैं.
ज्यादातर जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी रखे गये हैं. साल 2016 में जेल ऑक्युपेंसी रेट 114% थी, जो 2019 में बढ़कर 119 फीसदी हो गयी. इसके अलावा देश में जेलें घटी हैं, लेकिन बंदियों की संख्या बढ़ी है. इस समय हर 10 में से सात बंदी विचाराधीन कैदी है यानी कुल जेल आबादी का 69 फीसदी हिस्सा.
साल 2019 के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली की जेलों में सबसे ज्यादा भीड़ है. यहां क्षमता से 175 फीसदी अधिक बंदी हैं. इसका मतलब यह है कि जिन जेलों में 100 कैदियों के रहने की क्षमता है, वहां 175 अधिक कैदी हैं. उत्तर प्रदेश में यह दर 168 प्रतिशत है. देश में सबसे ज्यादा बंदी संख्या उत्तर प्रदेश की जेलों में है.
हालांकि कोरोना काल में जेलों की भीड़ को कम करने का सर्वोच्च न्यायालय निर्देश तर्कसंगत है और जेलों में तात्कालिक दबाव कम करने में योगदान भी देगा, लेकिन यह भी कहना होगा कि कोरोना की विकराल स्थिति से एक साल तक जूझने के बावजूद जेलों से जुड़ी संस्थाओं ने पर्याप्त सबक नहीं लिया है. अब भी जेलों के पास ऐसी महामारी से निपटने की कोई कार्य योजना तैयार नहीं हो सकी है.
आलम यह है कि कुछ जेलों में पहले से मौजूद जिन बंदियों को कोरोना संक्रमित पाया गया, उन्हें हड़बड़ी में दूसरी जेलों में भेज दिया गया ताकि वहां उनका इलाज हो सके. इससे उनकी मानसिक स्थिति पर बेहद बुरा असर पड़ा क्योंकि इसमें न उनकी राय ली गयी, न ही रजामंदी.
कुछ राज्यों में तो महिला बंदियों को दूसरी जेलों में सिर्फ इसलिए स्थानांतरित कर दिया गया ताकि महिला बैरकों को कोरोना पीड़ित बंदियों या फिर जेल आ रहे नये बंदियों को क्वारंटीन करने के लिए इस्तेमाल किया जा सके. इसका मतलब यह हुआ कि जेलों ने महिला बंदियों को एक बार फिर परेशानी में डाला है. इनमें उन बच्चों की भी कल्पना कीजिए, जो इन महिलाओं के साथ विस्थापित हुए हैं.
जेलों को खाली करने के तात्कालिक फायदे जरूर हैं, लेकिन यह समस्या का स्थायी हल नहीं है क्योंकि जेलों की बेतहाशा भीड़ के लिए जेलें जिम्मेदार नहीं हैं. विचाराधीन कैदियों की बड़ी संख्या की तरफ अदालतों का ध्यान देना जरूरी है क्योंकि जेलों की अवधारणा मुख्य रूप से सजायाफ्ता बंदियों के लिए है, जबकि जेलें भर गयी हैं विचाराधीन बंदियों से. वैसे भी हर परिस्थिति में जेलों में नये बंदियों की आवाजाही लगी ही रहती है.
नयी जेलों के बनने की अनदेखी का खामियाजा जेल स्टाफ और बंदियों दोनों को भुगतना पड़ता है. होना यह चाहिए था कि महामारी आने के बाद अदालतें औऱ जेलें कोई योजना तैयार करतीं और आपदा से मिले सबक के अनुरूप काम आगे बढ़ातीं. लेकिन जो थोड़ी बहुत सुविधाएं बंदियों के पास थीं, उन्हें भी कोरोना के बहाने रोक दिया गया है, जैसे- लाइब्रेरी सुविधा. कुछ जेलों में बंदियों के बैरक से बाहर आने के समय में भी कटौती की गयी है. ऐसे में उन्हें मानसिक परेशानियां होने लगी हैं और उनकी पीड़ा बढ़ गयी है.
लेकिन जेलों ने बंदियों की तनाव मुक्ति के कुछ ठोस कदम भी उठाये गये हैं. टेलीफोन सुविधा बढ़ी है और तकरीबन सभी राज्यों में महिला बंदियों को टेलीफोन की सुविधा मिलने लगी है. कई जेलें बंदियों को अब वीडियो कांफ्रेंसिंग से उनके परिजनों से संवाद करा रही हैं. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की जेलों में हुए तिनका तिनका फाउंडेशन के एक शोध से यह इंगित हुआ है कि कोरोना के समय में टेलीफोन उनका सबसे बड़ा सहारा बना.
कुछ राज्यों ने मानसिक सेहत पर भी काम किया है. हरियाणा के जेल इतिहास में पहली बार 16 जनवरी को जेल रेडियो की शुरुआत हुई. यह तिनका तिनका फाउंडेशन की संकल्पना पर आधारित हैं और मैंने कुछ ही महीनों में करीब 50 बंदी प्रशिक्षित किये. इस समय पानीपत, फरीदाबाद और अंबाला जेलों में रेडियो का संचालन हो रहा है और 12 जेलों में ट्रेनिंग पूरी हो चुकी है. इससे बंदियों का मनोबल काफी बढ़ा है.
अच्छा हो कि जो बंदी इस कठिन दौर में जेल में हैं, उनके समय और ऊर्जा के इस्तेमाल के बेहतर विकल्पों पर काम हो. जेलों के दबाव को हड़बड़ी में कम कर देने भर से कुछ नहीं होगा. जेलें समाज की एक प्रक्रिया हैं. इन पर निरंतर काम करने की जरूरत है.