बीते अक्तूबर में भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन में प्रस्ताव दिया था कि कोविड से जुड़ी दवाओं और टीके के बौद्धिक संपदा अधिकारों को निलंबित कर दिया जाए. इस प्रस्ताव का साठ देशों ने समर्थन किया था, लेकिन अमेरिका (तब डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति थे) और यूरोपीय संघ ने इसका विरोध किया था. पिछले साल जुलाई के शुरू में ही राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में जो बाइडेन ने कह दिया था कि वे ऐसे प्रस्ताव का समर्थन करते हैं.
ऐसे में एक उम्मीद तो थी, लेकिन दवा कंपनियों की लॉबी का दबाव भी बहुत अधिक था. इसके अलावा, अचानक पेटेंट अधिकारों में कटौती समझौते की बुनियादी पवित्रता के भी विरुद्ध थी. आप ऐसे अधिकारों के साथ किये गये सार्वभौम वादे को तोड़ नहीं सकते. फिर बीते अप्रैल में सौ से अधिक नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लोगों और अनेक अहम विश्व नेताओं ने अमेरिका से विश्व व्यापार संगठन में इन अधिकारों के व्यापार-संबंधी पहलुओं में छूट का समर्थन करने का निवेदन किया.
उनका कहना था कि ऐसे छूट से टीकाकरण की दर बढ़ेगी और विकासशील देश भी अपनी वैक्सीन बना सकेंगे, जिनका विकास और निर्माण अभी वैश्विक दवा कंपनियों द्वारा किया जा रहा है. इसमें यह भी रेखांकित किया गया था कि वैक्सीन की जानकारी और तकनीक को खुले तौर पर साझा किया जाना चाहिए तथा औद्योगिक एकाधिकार की कंपनियों को कृत्रिम आपूर्ति संकट पैदा नहीं करने देना चाहिए. इसे महामारी पर जीत के लिए आवश्यक माना जाता है. छूट के लिए अमेरिकी समर्थन बहुत जरूरी है क्योंकि मुकाबला फाइजर, मोडेरना, नोवावैक्स, जॉनसन एंड जॉनसन और आस्त्राजेनेका जैसी बड़ी कंपनियों की ताकत से है.
एक तर्क मौजूदा नियमों में समाहित उस प्रावधान को लेकर है, जिसमें आपात स्थिति में छूट ली जा सकती है. भारत भी इस प्रावधान का अध्ययन कर रहा है. इसे अनिवार्य लाइसेंसिंग कहा जाता है, जिसमें राष्ट्रीय संकट की स्थिति में किसी कंपनी को अपने पेटेंट की जानकारी और लाइसेंस दूसरे को देने के लिए बाध्य किया जा सकता है. लेकिन विकासशील देश अमेरिका की नाराजगी के जोखिम के कारण इसका इस्तेमाल करने में हिचकते हैं, जो कूटनीतिक या आर्थिक रूप में दंडात्मक कार्रवाई कर सकता है.
साल 2001 में एंथ्रैक्स संकट के समय कनाडा की सरकार ने बेयर कंपनी की पेटेंट संरक्षा को हटाने की धमकी दी थी. तब बेयर ने बड़ी मात्रा में सिप्रोफ्लोक्सासिन दान देकर और आगे के लिए वादा कर मामले को सुलझाया था. इसके बाद कनाडा पेटेंट की अवधि तक सिप्रो की खरीद बेयर से ही करने पर सहमत हो गया था. यह उदाहरण हमारे सामने है, पर अफ्रीका के बहुत से देश यह तरीका अपनाने में हिचक रहे हैं, जबकि वे एड्स जैसी राष्ट्रीय आपात स्थितियों का सामना कर रहे हैं.
बिना किसी पेटेंट नियम को तोड़े हासिल कामयाबी का एक दिलचस्प उदाहरण सिप्ला का है. इस भारतीय कंपनी ने 1993 में एक दवा विकसित कर उस समय के दाम के दसवें हिस्से के मूल्य पर बेचा था. साल 2001 तक सिप्ला ने एड्स के उपचार के लिए मिश्रित दवा का विकास किया और एकाधिकार वाली तत्कालीन कंपनियों को धत्ता बताते हुए उसे बहुत सस्ते दाम पर बेचा. इससे एड्स से लड़ने और उसे रोकने में बहुत मदद मिली थी.
इसलिए, कोविड के मौजूदा संदर्भ में अनिवार्य लाइसेंसिंग का रास्ता केवल अकादमिक दिलचस्पी का मामला है. इसके अलावा, अमेरिका पर बिना इस्तेमाल के रखीं वैक्सीन के निर्यात पर लगी रोक को हटाने के लिए लगातार कूटनीतिक दबाव पड़ रहा है. राष्ट्रपति बाइडेन ने पेटेंट नियमों में छूट के समर्थन की घोषणा की है. यह एक ऐतिहासिक फैसला है, जो तमाम चुनौतियों और दवा कंपनियों की लॉबी के दबाव के बावजूद आया है. एक आशंका यह भी थी कि रूस और चीन के हाथ अमेरिका तकनीक लग सकती है.
यह चिंता भी जतायी जा रही थी कि अगर बड़े पैमाने पर दुनियाभर में वैक्सीन का उत्पादन होगा, तो आपूर्ति शृंखला पर दबाव बढ़ सकता है. अब तक विश्व व्यापार संगठन के 164 सदस्यों में से 120 देश वैक्सीन पेटेंट छूट का समर्थन कर रहे हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि वैक्सीन आपूर्ति का 60 फीसदी हिस्सा धनी देशों ने रख लिया है, जिनकी आबादी दुनिया की कुल आबादी का केवल 16 फीसदी है. अमेरिका में बहुत सारा वैक्सीन पड़ा हुआ है, जिसका इस्तेमाल नहीं होना है.
स्वाभाविक रूप से कई बड़ी दवा कंपनियों और जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल जैसे कुछ नेताओं ने अमेरिकी फैसले का विरोध किया है. मर्केल का कहना है कि पेटेंट की वज़ह से वैक्सीन की कमी नहीं हुई है, बल्कि उत्पादन क्षमता और उच्च गुणवत्ता के कारण ऐसा हुआ है. लेकिन वे भूल रही हैं कि पेटेंट छूट से उत्पादन बढ़ेगा और मौजूदा कमी पूरी होगी. जर्मन कंपनी बायोनटेक का कहना है कि निर्माण प्रक्रिया का अनुसरण करने तथा तकनीकी दक्षता हासिल कारने में कई साल लग सकते हैं.
इस कंपनी ने विकासशील देशों को बिना मुनाफा मोडेरना वैक्सीन बेचने का संकल्प दोहराया है. आश्चर्य है कि ब्राजील और बिल गेट्स ने भी बाइडेन के प्रस्ताव का विरोध किया है. यदि कोविड वैक्सीन पेटेंट में बदलाव होता है, तो दुनिया को दवा कंपनियों की भरपाई का रास्ता भी खोजना होगा.
विश्व व्यापार संगठन में जरूरी समय निकल सकता है, इसलिए भारत को इसके भरोसे नहीं रहना चाहिए. इसे अपनी उत्पादन क्षमता और आयात को बढ़ाना होगा तथा सभी को निशुल्क टीका देने का अभियान तुरंत शुरू करना होगा. इसे केवल एप से बुकिंग पर निर्भर नहीं रहना चाहिए क्योंकि डिजिटल विषमता से गरीबों व वंचितों को बहुत मुश्किल आ रही है. कई इलाकों में इंटरनेट स्पीड की धीमी गति भी बड़ी समस्या है.
वैक्सीन पेटेंट का मौजूदा मसला अत्यधिक पेटेंट संरक्षा और दवा की कीमतों पर एकाधिकार के सवालों पर सोचने का सही मौका भी है. हमारे पास पर्याप्त शोध हैं, जो इंगित करते हैं कि ‘पेटेंट नहीं, तो दवा नहीं’ की समझ गलत है. नयी दवा के विकास में अरबों डॉलर के खर्च की मुख्य वजह दूसरे व तीसरे चरण के क्लिनिकल परीक्षण होते हैं, जो असल में ‘लोक कल्याण’ के लिए हैं.
ऐसा इसलिए कि अगर परीक्षण सफल हो जाते हैं, तो इसे सार्वजनिक ज्ञान बना देना चाहिए. इस तरह खर्च की भरपाई की जा सकती है और एकाधिकार को बहुत सीमित किया जा सकता है. यह दीर्घकालिक योजना है. अभी तो कोविड वैक्सीन की चिंता प्रमुख है.