सोशल मीडिया और गुम हो जाने का डर
सोशल मीडिया और गुम हो जाने का डर
विनीत कुमार
मीडिया विश्लेषक
हम कई लोगों को यूट्यब के दो-चार वीडियो के बूते रातोंरात पॉपुलर हो जाने, उनकी फेसबुक पोस्ट के अगले दिन देश के समाचारपत्र के संपादकीय पृष्ठ पर छप जाने, ट्वीट के वायरल होकर खबर बन जाने और इंस्टाग्राम पर लगायी गयी तस्वीर या स्टोरी के दम पर सेलिब्रेटी की कैटेगरी में गिने जाने के तौर पर देखते हैं, तो सोशल मीडिया का प्लेटफॉर्म हमें अपार संभावनाओं से भरी एक नयी और जरूरी दुनिया लगने लगता है.
हमें लगता है कि सोशल मीडिया के जरिये हम अपने करिअर और पेशे में नयी चमक पैदा कर सकते हैं और ऐसा सोचना निराधार भी नहीं है. अलग-अलग पेशे से जुड़े दुनियाभर के विशेषज्ञ, उद्यमी, व्यवसायी और प्रायोजक इस प्लेटफॉर्म पर सक्रिय हैं और अपने व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखते हुए नयी प्रतिभाओं, अपने पेशे में सक्रिय बेहतर लोगों को अवसर देते हैं. हम सोशल मीडिया की बदौलत मामूली जिंदगी को खास होते और प्रतिभाओं की जिंदगी बदलते देखते हैं, तो फिल्म ‘गली बॉय’ की कहानी सामने घटित होती जान पड़ती है.
दूसरी तरफ, सोशल मीडिया पर अतिसक्रिय रहते हुए हम जब बेरोजगारी, गैरबराबरी, विभिन्न भेदभाव आदि मुद्दों से जुड़ी सामग्री साझा करते हैं, उन पर अपने विचार व्यक्त करते हैं, तो हमारे भीतर अपने रोजमर्रा का जीवन जीते हुए सामाजिक सरोकार और महज अपने लिए जीनेवाले लोगों से अलग ऐसा आभास होना शुरू होता है कि हम बाकी लोगों से कहीं ज्यादा समाज के प्रति जागरूक और बुनियादी सवालों के प्रति चिंतित हैं. ऐसे में हर दूसरी-तीसरी घटना पर अपनी बात रखना और उनसे जुड़ी सामग्री साझा करना जरूरी लगने लग जाता है.
लेकिन इन दोनों ही स्थितियों में सोशल मीडिया पर अतिसक्रियता हमें कब असुरक्षा बोध, पीछे छूट जाने का डर, अप्रासंगिक हो जाने के खतरे और बज्ज न पैदा करने की स्थिति में कमतर मान लिये जाने जैसी मानसिक स्थिति, जो एक स्तर पर जाकर मनोरोग में बदल सकती है, की ओर धकेलती है, पता ही नहीं चलता. ऐसी स्थिति में यह बहुत संभव है कि दुनियाभर की बड़ी-बड़ी बातें करने के बावजूद निजी जिंदगी में अव्यवस्थित होती चले जाए, हमारी क्षमता घटती चली जाए, हम अवसाद और हताशा के दुष्चक्र में फंस जाएं.
चमकीले चेहरों और अतिसक्रिय लोगों के व्यवहार पर हम गौर करते हैं, तो यह समझने में मुश्किल नहीं होती कि इनमें से कई लोगों को सोशल मीडिया से थोड़े वक्त के लिए अलग होकर, जिसे डिजिटल डिटॉक्स कहा जाता है, अपनी असल जिंदगी पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. हालांकि शुरुआत के कुछ सालों तक सोशल मीडिया को आभासी (वर्चुअल) मानकर वास्तविक जीवन से अलग किया जाता रहा, लेकिन इंटरनेट के विस्तार के साथ यह विभाजन रेखा धुंधली पड़ती चली गयी. अब कोरोना और लॉकडाउन के इस दौर में तो वास्तविक जीवन का बड़ा हिस्सा इसी आभासी दुनिया पर शिफ्ट हो गया है और वास्तविक जीवन से कहीं ज्यादा समय इस पर गुजारने की मजबूरी बन गयी है.
सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने के तर्क और गायब हो जाने की जरूरत के बीच मनोवैज्ञानिक स्तर पर पिछले कुछ सालों से ‘फोमो’ (फीयर ऑफ मिसिंग आउट यानी बाकियों से पीछे छूट जाने का डर) को लेकर लगातार अध्ययन हो रहे हैं. अमेरिकी अकाउंटिंग एसोसिएशन के जर्नल में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट में अमेरिका के विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों के विशेषज्ञों के अध्ययन के नतीजे चिंताजनक हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, सोशल मीडिया पर अतिसक्रियता की वजह से लोगों की काम करने की क्षमता में कमी आयी है. दूसरी बात, जब लोग बाकी लोगों की तस्वीरों को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर देखते हैं, जिनमें वो खुश, सफल और उपलब्धियों के बीच नजर आते हैं, तो उनके भीतर चिढ़, बेचैनी और पीछे छूट जाने का भय सताने लग जाता है. ऐसी स्थिति में वो असमान्य व्यवहार तक करने लग जाते हैं.
सोशल मीडिया पर सामाजिक सरोकार की बात करने और लिखनेवाले ऐसे सैकड़ों मीडियाकर्मी, लेखक, अकादमिक दुनिया से जुड़े लोग कुछ न कुछ ऐसा करते नजर आ जायेंगे, जिनमें ‘फोमो’ का अध्ययन हो, तो एक चिंताजनक स्थिति हमारे सामने भी होगी. इन दिनों कोरोना से संक्रमित रहे और उबर चुके लोगों से मेरी लगातार बातचीत हो रही है.
मैं खुद भी कुछ दिन पहले इससे उबरा हूं, तो ऐसे लोगों से बात करने में अपने को कहीं ज्यादा करीब पाता हूं. इस मामले में कुछ के अनुभव इतने कड़वे हैं कि उन्हें दर्ज किया जाए, तो यह समझने में आसानी होगी कि एक ही व्यक्ति का व्यवहार सोशल मीडिया पर और असल जिंदगी में बिल्कुल अलग कैसे हो जाता है?
कहानी यहां पर जाकर ठहरती है कि सोशल मीडिया ने आपाधापी का ऐसा माहौल पैदा किया है, जिसमें सालों से लिखते, पढ़ते और अपने पेशे में मुकाम हासिल कर चुके लोग फिसल जाते हैं. ये आपाधापी हर वक्त अच्छा, खुश, संवेदनशील व सरोकारी दिखने की है. आप कह सकते हैं कि सोशल मीडिया ने लोगों को समाज के बीच कम और कलरफुल बुलबुले के बीच अधिक जीने का माहौल पैदा किया है.
ऐसे जीने की ख्वाहिश उन्हें फोमो की तरफ ले जाती है, जिसके बारे में यह रिपोर्ट हमें सोचने के लिए मजबूर करती है कि अवसर और संभावना के रूप में नजर आता सोशल मीडिया यदि सालों से अर्जित हमारे कौशल, क्षमता और हुनर को भोथरा कर रहा है, तो इसे कैसे और किस हद तक अपनाया जाना चाहिए.
posted by : sameer oraon