आतंकवाद का खतरा बरकरार
मेरी राय में विदेश मंत्री यह रेखांकित कर रहे थे िक आतंकवाद खत्म होगा, तो लोगों के मानवाधिकार खुद-ब-खुद बहाल हो जायेंगे. आतंक के साये में मानवाधिकार संभव नहीं है.
सुशांत सरीन
रक्षा विशेषज्ञ
sushantsareen@gmail.com
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने आतंकवाद के मसले पर ने संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार फोरम पर महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है. इस फोरम पर बीते चंद सालों से कुछ ऐसे लोग आये हैं, जिन्होंने भारत के खिलाफ अनेक बयान दिये हैं या रिपोर्ट प्रकाशित की हैं. यह सब बिना सोचे-समझे और अध्ययन किये महज कुछ अखबारों की सुर्खियों को आधार बना कर किया गया है. इनमें मुख्य रूप से कश्मीर के हालात पर एकतरफा तस्वीर पेश की गयी है.
वे लोग कोई प्रस्ताव तो नहीं पारित कर सके, लेकिन ऐसी रिपोर्ट वहां प्रकाशित की जा रही हैं. भारत ने ऐसी रिपोर्टों पर आपत्ति जतायी है और उनका खंडन भी किया है, पर इसका कुछ खास असर नहीं हुआ है. कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र की ओर से विशेष रिपोर्ट देनेवालों ने फिर से बेबुनियाद बातें भारत के विरोध में कही हैं और कश्मीर को लेकर निराधार आरोप लगाये हैं. ऐसे में भारत के लिए यह जरूरी था कि उसी मंच से विदेश मंत्री दो टूक शब्दों में बताएं कि सुरक्षा के लिहाज से भारत द्वारा जो कदम कश्मीर में उठाये गये हैं, वे इसलिए जरूरी हैं, क्योंकि कश्मीर में आतंकवाद पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है और दुबारा इसे बढ़ाने की कोशिश हो रही है.
भारत का यह भी मानना है कि दुनिया को यह अवगत कराना जरूरी है कि आतंकवाद कोई अपने-आप पैदा हो जानेवाली चीज नहीं है. इसे समर्थन करनेवाले लोग हैं तथा कुछ ऐसे देश हैं, खास तौर से पाकिस्तान, जो अपनी विदेश नीति के लिए आतंकवाद का इस्तेमाल करते हैं. कश्मीर और अफगानिस्तान में आतंकवाद को बढ़ाने में पाकिस्तान की मिलीभगत के स्पष्ट साक्ष्य मिले हैं. विदेश मंत्री जयशंकर न सिर्फ भारत की कश्मीर नीति की चर्चा कर रहे थे, बल्कि उसके कारणों का भी उल्लेख कर रहे थे.
इसी संदर्भ में वे बता रहे थे कि आतंकवाद न केवल यह लोगों की जिंदगी को तहस-नहस करता है, बल्कि इससे कानून-व्यवस्था की स्थिति भी इतनी बिगड़ जाती है कि लोगों के जीने के अधिकार भी छिन जाते हैं. मानवाधिकार की बहस में विदेश मंत्री ने आतंकवाद को केंद्र-बिंदु बनाया है. कहा है कि जब तक आतंकवाद के मसले को हल नहीं किया जाता है, तब तक अगर केवल मानवाधिकारों की बात होगी, तो वह एक गलत राह होगी. आतंकवाद खत्म होगा, तो लोगों के मानवाधिकार खुद-ब-खुद बहाल हो जायेंगे. आतंक के साये में मानवाधिकार संभव नहीं है. मेरी राय में विदेश मंत्री इस तथ्य को रेखांकित कर रहे थे और यह उनके संबोधन की व्यापक दिशा थी.
जहां तक आतंकवाद को लेकर अंतरराष्ट्रीय सहमति का सवाल है, तो हमें यह समझना होगा कि दो देशों के बीच संबंध अपने हितों के आधार पर बनते हैं. जहां दोनों पक्षों के हित होते हैं, वहां मित्रता होती है और जहां हितों का टकराव होता है, वहां मित्रता नहीं होती. आतंकवाद भारत के लिए भी मुद्दा है और अमेरिका के लिए भी. आतंकवाद से जुड़े जिन मसलों पर दोनों देशों में सहमति होती है, दोनों देश मिल कर उसका मुकाबला करते हैं,
लेकिन कई ऐसे मामले भी हैं, जहां दोनों देशों में सहमति नहीं है. इसका एक उदाहरण सीरिया है, जहां आतंकवाद ने पूरे देश को तबाह कर डाला है. वहां कुछ ऐसे गुट हैं, जो सीरियाई सरकार के खिलाफ लड़ रहे हैं और जिन्हें वहां की सरकार आतंकी गुट मानती है. इन गुटों को अमेरिका का समर्थन हासिल है, लेकिन यह स्थिति हमारे हितों के अनुरूप नहीं है. हम सीरियाई सरकार का समर्थन कर रहे हैं. पश्चिम एशिया में भी ऐसा ही सिलसिला है.
मैं जिसे आतंकवादी मानता हूं, हो सकता है कि मेरा कोई दोस्त उसे आतंकवादी नहीं मानता हो. यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र में लंबे समय से भारत जो प्रस्ताव रख रहा है, वह मान्य नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए चीन को लें, जो अपने देश में आतंकवाद के खिलाफ यह कहते हुए कठोर कदम उठा रहा है कि इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हैं, लेकिन यही चीन जैशे-मुहम्मद जैसे आतंकी समूहों के मामले में अड़ंगा लगाने लगता है. पहले वह ऐसा ही रवैया लश्करे-तय्यबा के मसले में करता था. इसका कारण यह है कि पाकिस्तान में इन गुटों की वजह से उसके हित प्रभावित नहीं होते.
चूंकि चीन पाकिस्तान का करीबी दोस्त है, तो पाकिस्तान के पाले हुए आतंकी गुट चीन के भी दोस्त हो जाते हैं. चीन पाकिस्तान का बचाव भी करना चाहता है. आतंकवाद को हर देश अपनी नजर से देखता है. इसलिए अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की रोकथाम में बड़ी मुश्किल आती है.
भारत की एक चुनौती अफगानिस्तान की स्थिति से भी जुड़ी हुई है. यह समझा जाना चाहिए कि वहां जो शांति प्रक्रिया चल रही है, वह असल में शांति प्रक्रिया है ही नहीं. असलियत यह है कि अफगानिस्तान के अंदर जो हालात पैदा हो रहे हैं और जिस तरह का समझौता अमेरिका ने तालिबान के साथ किया है, उसने तालिबान को और शह दी है. तालिबान ने न तो अपने हमले बंद किया है और न ही अपने रवैये में कोई बदलाव किया है.
अफगान सरकार कमजोर से कमजोरतर होती जा रही है. बहुत-से लोगों की आशंका है कि अगर अमेरिका अफगानिस्तान से निकल गया, तो कुछ ही समय में अफगान सरकार का पतन हो जायेगा और उसकी जगह तालिबान काबिज हो जायेगा. अगर ऐसा होता है, तो तालिबान के साथ वे सभी आतंकी गुट, जो न्यूयॉर्क ट्रेड सेंटर पर हुए हमले से पहले अफगानिस्तान में रहते थे, फिर से सक्रिय हो जायेंगे. तालिबान ने अमेरिका को आश्वासन तो दिया था कि वह अल-कायदा जैसे समूहों से कोई संबंध नहीं रखेगा और अफगानिस्तान में उनकी कोई जगह नहीं होगी, लेकिन पिछले एक साल में,
जब से समझौता हुआ है, यह बात साफ हो चुकी है कि तालिबान से इन गुटों के संबंध बहुत मजबूत हैं. भारत में यह आशंका है कि ये सारे गुट अगर फिर सक्रिय होंगे, तो भारत में भी आतंक बढ़ने का खतरा बहुत बढ़ जायेगा, क्योंकि इनके साथ पाकिस्तान सरकार व सेना के तत्व और अन्य गुट मिल कर भारत को अस्थिर करने की कोशिश करेंगे. ऐसे में आज जरूरी हो गया है कि सभी देश आतंकवाद को आतंकवाद की तरह देखें, ताकि दुनिया में शांति और स्थिरता बहाल हो सके.
Posted By : Sameer Oraon