मंदी व महंगाई की दोहरी चुनौती
मंदी व महंगाई की दोहरी चुनौती
डॉ अजीत रानाडे
अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टिट्यूशन
editor@thebillionpress.org
नवंबर महीने के आखिरी हफ्ते में केंद्र सरकार ने पुष्टि की कि भारत आधिकारिक तौर पर मंदी के दौर में है, जो देश के आधुनिक इतिहास में संभवत: पहली बार हुआ है. आर्थिक मंदी की तकनीकी परिभाषा यह है कि जब अर्थव्यवस्था में किसी वित्त वर्ष की लगातार दो तिमाहियों तक संकुचन हो, तब उसे मंदी कहा जाता है. इस वर्ष अप्रैल से जून के बीच भारत की अर्थव्यवस्था 24 प्रतिशत तथा जुलाई से सितंबर के बीच साढ़े सात प्रतिशत संकुचित हुई.
ये दरें पिछले साल इन्हीं अवधियों में सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के स्तर की तुलना में हैं. आम तौर पर माना जाता है कि पहली तिमाही के संकुचन का कारण कोरोना महामारी को रोकने के लिए केंद्र द्वारा लगाया गया लॉकडाउन है. दूसरी तिमाही में भी वृद्धि दर ऋणात्मक रही, पर वह आशंका से बेहतर थी. इस दर से हमारी अर्थव्यवस्था में मौजूदा वित्त वर्ष में आठ से दस प्रतिशत का संकुचन होगा, जिससे राष्ट्रीय आय में करीब 16 से 20 लाख करोड़ का घाटा होगा. यह घाटा प्रति व्यक्ति औसत के हिसाब से 12 से 15 हजार रुपया होगा.
आय में इस कमी की वजह है कि आतिथ्य, पर्यटन, यात्रा और खुदरा दुकान लंबे समय तक बंद रहे हैं.
मांग में कमी के कारण भी बहुत से अन्य क्षेत्रों में उत्पादन और रोजगार में कटौती करनी पड़ी है. सबसे अधिक मार अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र पर पड़ी है, जिसमें छोटे कारोबार शामिल हैं. इस क्षेत्र के नुकसान का सही आकलन बाद में ही हो सकेगा क्योंकि इनके आंकड़े बड़ी और संगठित क्षेत्र की कंपनियों की तरह कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय में स्वतः जमा नहीं होते हैं. पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन ने कहा है कि छोटे और मझोले उद्यम भी बुरी तरह प्रभावित हो सकते हैं, जिससे तीसरी और चौथी तिमाही में भी जीडीपी का नुकसान हो सकता है, जिसके बारे में हमें बाद में पता चल सकेगा.
देश के औद्योगिक उत्पादन में इस क्षेत्र का हिस्सा 45 प्रतिशत है. छोटे और मझोले उद्यमों के लिए सरकार ने जो कर्ज गारंटी की राहत दी है, उसे पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि छोटे कारोबारी और अधिक कर्ज लेने से बच रहे हैं. उन्हें दिवालिया होने की आशंका है. पहले दिये गये मुद्रा ऋण भी डूबने की स्थिति में हैं और उनसे बैंकों पर गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का बोझ बढ़ रहा है.
राष्ट्रीय आय के नुकसान के अलावा रोजगार में कमी की समस्या भी सामने है. देश की कार्यशक्ति का 90 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है और ये कामगार किसी औपचारिक संविदा, स्वास्थ्य बीमा, पेंशन और अन्य लाभों के बिना काम करते हैं. इनकी सही स्थिति का आकलन बहुत कठिन है. इसका एक स्रोत निजी संगठन सीएमआइइ द्वारा जारी होनेवाला साप्ताहिक सर्वेक्षण है. अप्रैल में, जब लॉकडाउन का असर सबसे गंभीर था, करीब 12.20 करोड़ लोग बेरोजगार हो गये थे.
अब यह आंकड़ा बहुत कम हो गया है और जुलाई से बेरोजगारों की संख्या 2.80 करोड़ के आसपास हो सकती है. एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि बहुत से कामगार, खासकर महिला कामगार, कार्यबल से बाहर हो गये होंगे. इससे सूचकांक नीचे आयेंगे और हमें गलत सूचना देंगे कि बेरोजगारी दर घट रही है. लेकिन हमें श्रमशक्ति में भागीदारी- पुरुष व महिला दोनों- पर नजर रखनी होगी. इसी से परिवारों की आमदनी आती है. संगठित क्षेत्र के कामगारों से संबंधित भविष्य निधि कार्यालय के आंकड़े बताते हैं कि इस क्षेत्र में रोजगार में कमी आ रही है.
सीएमआइइ ने भी बताया था कि संगठित क्षेत्र में जुलाई तक करीब दो करोड़ लोगों की नौकरी चली गयी थी. पिछली तिमाही में इनमें से कुछ को फिर से रोजगार मिला होगा.ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार, भारत की संभावित वृद्धि दर गिरकर 4.5 प्रतिशत हो चुकी है. इसका अर्थ यह है कि निकट भविष्य में इस संभावित दर से अधिक विकास की गति मुद्रास्फीति के दबाव पैदा कर सकती है. लेकिन अभी भी, जब अर्थव्यवस्था मंदी से उबरने की कोशिश कर रही है, मुद्रास्फीति के बढ़ने के चिंताजनक संकेत हैं. मुद्रास्फीति की दर अभी लगभग सात प्रतिशत है और संभावना है कि यह अधिक बनी रहेगी.
अनाज और सब्जियों के दाम फसल कटने के बाद गिर सकते हैं, लेकिन धातु, सीमेंट, तेल और रसायन समेत विभिन्न वस्तुओं की कीमतें बढ़ती जा रही हैं. मौद्रिक नीति के संबंध में रिजर्व बैंक की हालिया घोषणा में मौजूदा ब्याज दर (इस ब्याज दर पर व्यावसायिक बैंकों को नगदी मुहैया करायी जाती है) निचले स्तर पर बनी हुई है. यह अभी चार प्रतिशत है. लेकिन रिजर्व बैंक भी मुद्रास्फीति के बढ़ते दबाव को लेकर चिंतित है.
केंद्रीय बैंक के आधिकारिक बयान में विरोधाभास है. इसमें कहा गया है कि आर्थिक वृद्धि की गति बढ़ाने के िलए यह अपनी सहयोगी नीति को जरूरत के मुताबिक जारी रखेगा. इसलिए नगदी की आपूर्ति उच्च स्तर पर रहेगी और कर्ज सस्ता रहेगा. लेकिन, यह मुद्रास्फीति को लेकर भी सतर्क है और इसका कहना है कि जीडीपी में सुधार के संकेत हैं.
मुद्रास्फीति धन की आपूर्ति को घटाने की मांग करती है और मंदी में इसे बढ़ाने की जरूरत होती है. लगता है कि रिजर्व बैंक दुविधा में फंस गया है. बहुत अधिक नगदी शेयर बाजार में उछाल पैदा कर रही है. सूचीबद्ध बड़ी कंपनियों ने जुलाई से सितंबर की तिमाही में बड़ा मुनाफा भी कमाया है.
क्लासिकल अर्थशास्त्र ने एक साथ महंगाई और मंदी के होने की स्थिति का अनुमान नहीं लगाया था. जब मांग नीचे है, तो स्वाभाविक रूप से कीमतें भी नीचे जाती हैं क्योंकि उत्पादक अधिक क्षमता के कारण छूट का प्रस्ताव देता है. लेकिन जब आपूर्ति में अवरोध होता है, जैसा कि महामारी और लॉकडाउन से हुआ, तो इससे संभावित वृद्धि दर गिर जाती है और फिर हमारे सामने एक ही साथ मंदी और मुद्रास्फीति की समस्या आ जाती है.
इससे बाहर निकलने के लिए वित्तीय राहत की जरूरत है ताकि उपभोक्ता खर्च बढ़ सके, अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमता को बढ़ाने के लिए निवेश चाहिए और मुद्रास्फीति की आशंकाओं का सावधानी से प्रबंधन होना चाहिए. इसके साथ सरकार को आय के वितरण पर भी ध्यान देना होगा ताकि बढ़ती विषमता को कम किया जा सके. स्थिति की मांग यह भी है कि बेकार के खर्च को सक्षमता से रोका जाये, संपत्तियों को बेचकर और खदान व संचार स्पेक्ट्रम की नीलामी से धन जुटाया जाये तथा निवेशकों का भरोसा बहाल किया जाये. इन उपायों के लिए बेहद दक्ष आर्थिक व संभावना प्रबंधन की आवश्यकता है. आगामी बजट का मौसम बहुत व्यस्त रहेगा.
posted by : sameer oraon