गंभीरता खोता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ

चौबीसों घंटे चलनेवाले चैनलों को सामग्री और प्रस्तुति में भी बदलाव करना था क्योंकि उदास अभिव्यक्ति और एकरस आवाज से दर्शकों को आकर्षित नहीं किया जा सकता था.

By पद्मश्री अरूप | February 12, 2021 8:30 AM

पद्मश्री अरूप कुमार दत्ता

प्रख्यात सामाजिक इतिहासकार

editor@thebillionpress.org

आजादी के तुरंत बाद के दौर में खबरों के दो माध्यम थे- प्रिंट मीडिया और रेडियो. हमारे देश में रेडियो, जिसे आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो) कहा जाता है, सरकार के नियंत्रण में था. हमारे रेडियो की विश्वसनीयता इतनी कम थी कि अधिकतर लोग अहम खबरों का सच जानने के लिए बीबीसी का रुख करते थे. आकाशवाणी का यह पतन आपातकाल के दौरान अपने चरम पर पहुंच गया, जब प्रेस समेत हर तरह की मीडिया पर सेंसरशिप लगा दी गयी. इसके बावजूद उस दौर ने भारत के लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का सबसे अच्छा समय देखा था.

प्रेस से जुड़े अधिकतर लोग सेंसरशिप का डट कर मुकाबला कर रहे थे और अक्सर अपनी गुस्ताखी का खामियाजा भी भुगत रहे थे. भूमिगत साइक्लोस्टाइल छपाई वाले प्रेस को भी याद किया जाना चाहिए, जो आम लोगों को देश में चल रही गतिविधियों की जानकारी देता था.

उन दिनों प्रिंट मीडिया ही भरोसेमंद खबरों और लेखों का एकमात्र स्रोत था. ध्यान रहे, सब कुछ ठीक नहीं था क्योंकि कुछ अखबारों और पत्रिकाओं का अपना ही राग था. इसके अलावा, सत्ता अपने प्रकाशनों के माध्यम से भी अपनी बात लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रही थी. इसके बावजूद प्रिंट मीडिया पर लोगों का भरोसा बना रहा था. उस दौर में राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर प्रिंट मीडिया की अहमियत थी और उसकी ‘आवाज’ को सुना जाता था. सत्ता के गलियारों में घूमते राजनेता और नौकरशाह मीडिया की बात सुनते थे और उस पर अपनी प्रतिक्रिया देते थे.

संपादकीय और खबरों को बड़े लोगों के सामने कायदे से रोजाना रखा जाता था ताकि वे हवा का रुख भांप सकें. ‘संपादक के नाम पत्र’ को भी छांटा जाता था और उनकी शिकायतें दूर की जाती थीं. पत्रकार मजबूत और जुझारू होते थे तथा उन्हें अपनी ताकत का अंदाजा था, लेकिन वे माध्यम को अपने-आप को आगे बढ़ाने का जरिया बनाने के बजाय सोच-समझकर सूचनाएं जुटाते थे.

लेकिन आज नजारा बदल गया है. चौथा खंभा राजनेताओं, नौकरशाहों या जनता के सिर का एक बाल हिलाये बिना मौजूदा छल-प्रपंच और भ्रष्टाचार पर खंखार सकता है. समर्पित पत्रकार बिना किसी असर के उदासीनता और अक्षमता के लिए स्थानीय प्रशासन को कोस सकते हैं. पहले जब किसी गलत कारण से किसी का नाम अखबार में आ जाता था, तो वह महीनों तक संपर्क से बाहर हो जाता था. अब तो हिरासत में लिये गये दोषी भी अपना चेहरा छुपाने की परवाह नहीं करते और जिनके भ्रष्ट कारनामे उजागर हो जाते हैं, वह खुलेआम घूमता है क्योंकि उसकी चमड़ी गैंडे से भी मोटी हो चुकी है.

चौथे खंभे के कमजोर होने की प्रक्रिया अस्सी के दशक के मध्य में घरों में टेलीविजन के प्रवेश के साथ शुरू हुई. प्रारंभ से ही यह बुद्धू बक्सा सरकार के कड़े नियंत्रण में था और इसे दूरदर्शन का नीरस नाम दिया गया, जो बिना किसी विश्वसनीयता के खबरें परोसता था. लेकिन यह सोचना गलत है कि निजी चैनलों के आने से इस माध्यम की विश्वसनीयता बढ़ी. इन चैनलों को अपना खेल खेलना था. इस क्रम में समाचारों और लेखों की ‘वस्तुनिष्ठ’ प्रस्तुति को भारी धक्का लगा.

टेलीविजन मीडियम के साथ समस्या यह थी कि इसे अपने अस्तित्व के लिए दर्शकों की जरूरत थी क्योंकि बिना दर्शकों के विज्ञापन नहीं मिलता और विज्ञापन के बिना चैनल चल नहीं सकता. चौबीसों घंटे चलनेवाले चैनलों को सामग्री और प्रस्तुति में भी बदलाव करना था क्योंकि दूरदर्शन की तरह उदास अभिव्यक्ति और एकरस आवाज से दर्शकों को आकर्षित नहीं किया जा सकता था.

ऐसे में बेहद साधारण खबरों को भी सनसनीखेज तरीके से और तेज आवाज में पेश किया जाने लगा. साथ ही, किसी खबर की अहमियत को तय करने के संपादकीय काम का असर घटने लगा. अब फुटेज की उपलब्धता बहुत अहम हो गयी, जिससे साधारण खबरें अधिक जगह पाने लगीं और जरूरी खबरें पीछे जाने लगीं क्योंकि चैनल के पास उनसे संबंधित फुटेज नहीं थे. प्रस्तुति को ‘अधिक रोचक’ बनाने के लिए लाइव ‘बहस’ का ढंग लाया गया, जो अक्सर हास्यास्पद मौखिक झगड़े का स्थान बनता गया. असल में, टेलीविजन को स्थापित प्रिंट मीडिया के उलट अलग-अलग पृष्ठभूमि के असंगत दर्शकों को देखना था,

इसलिए प्रस्तुति व सामग्री बहुत उच्च स्तरीय नहीं हो सकती थी और न ही वह अनुमानित औसत दर्शक के हिसाब से हो सकती थी. उसे न्यूनतम सामान्य स्तर का ध्यान रखना था ताकि उसे अधिकाधिक दर्शक मिल सकें. हम जानते हैं कि दृश्य हमारी संवेदनाओं पर अधिक सीधा असर डालते हैं. ‘तुरंत’ खबर देकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने प्रिंट को चुनौती दे डाली कि अगर प्रतिस्पर्धा करनी है, तो उसे भी बदलना होगा.

प्रिंट मीडिया की समस्या प्रकाशनों की संख्या बढ़ने और मीडिया मुगल बनने की चाहत लिये आये नये खिलाड़ियों की वजह से गंभीर होती गयी. राजनेता और कंपनियां प्रिंट व टीवी मीडिया में अपना हिस्सा हासिल कर अपने हितों को साधने की प्रक्रिया में लग गये. इससे विश्वसनीयता में सेंध लगने का एहसास होता है. दशकों से विवेकपूर्ण पत्रकारिता के आधार पर अपनी साख बनानेवाले मीडिया संस्थानों को अभी-अभी आये उन खिलाड़ियों से चुनौती मिलने लगी, जो सुर्खियों के आकार के आधार पर खबर के महत्व को देखते थे. प्रिंट मीडिया को इन चुनौतियों का सामना करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ रही है.

कुछ ने पहले की तरह ही टिकने की कोशिश की, पर उन्हें जल्दी ही पता चल गया कि ऐसा करने से उनका प्रसार घट रहा है और जल्दी ही प्रकाशन बंद हो सकता है. आज मीडिया में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर सनसनी रोज की बात हो गयी है. यह अफसोसनाक है कि चौथे खंभे का बड़ा हिस्सा खबरों और लेखों को वस्तुनिष्ठ ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पाता है. पाठकों की परवाह किये बगैर कई तो खुलेआम अपने पक्षपात का प्रदर्शन करते हैं.

टीवी के कई नकारात्मक रवैये प्रिंट मीडिया के एक हिस्से में भी पैठ गये हैं. इस हल्केपन के साथ मीडिया का कमजोर होना अवश्यंभावी है क्योंकि सत्ता को पता है कि आज के चौथे स्तंभ में बौद्धिकता हाशिये पर धकेल दी गयी है. इस स्थिति को और भी बिगाड़ते हुए सूचना तकनीक के विस्फोट ने चौथे स्तंभ के दायरे से बाहर के स्रोतों से समाचार और सूचना पाने का रास्ता खोल दिया है. नयी पीढ़ी के एक हिस्से के लिए अखबार और न्यूज चैनल किसी और दुनिया की चीज लगते हैं क्योंकि उनकी हथेली में उनकी दुनिया है.

Posted By : Sameer Oraon

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