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लोकतंत्र की असली नींव विश्वास है

कोरोना महामारी से राहत के लिए पीएम केयर्स फंड में दान देने की प्रधानमंत्री की अपील से भी धन जुटाने में मदद मिली.

अजीत रानाडे

अर्थशास्त्री एवं सीनियर फेलो तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

editor@thebillionpress.org

अमेरिका के 35वें राष्ट्रपति के रूप में पदभार ग्रहण करते हुए 20 जनवरी, 1961 को जॉन एफ केनेडी ने यह प्रसिद्ध उक्ति कही थी- ‘यह मत पूछें कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है, आप यह पूछें कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं.’ यह एक करिश्माई नेता द्वारा नागरिक सक्रियता का आह्वान था. केनेडी ने अमेरिकियों से अपने से परे बड़े मसलों के लिए सोचने की अपील की थी. भारत में भी हम पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के उस आह्वान को याद करते हैं, जब उन्होंने भारतीयों से खाद्यान्न की कमी और खाद्य मुद्रास्फीति को देखते हुए सप्ताह में एक दिन का भोजन छोड़ने का अनुरोध किया था.

लाखों भारतीयों ने इस निवेदन पर तुरंत अमल किया और आज भी ऐसे लोग हैं, जो उस पवित्र आह्वान के सम्मान में अभी भी सप्ताह में उपवास रखते हैं. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का सूत्रपात किया था, जिसके अंतर्गत युवा संकल्प लेते थे. यह निवेदन भी नैतिक मूल्यों तथा ग्रहण करने के बजाय देने की भावना को संबोधित था.

प्रधानमंत्री मोदी भी अक्सर भारत के लोगों को आत्मत्याग एवं स्वयंसेवा की भावना से राष्ट्रीय विकास के लिए मिल-जुलकर काम करने का आह्वान करते रहते हैं. उनके प्रसिद्ध अभियानों में एक है रसोई गैस पर मिलनेवाले अनुदान को वैसे लोगों से छोड़ने का आग्रह करना, जो बाजार की कीमत पर खरीदने की क्षमता रखते हैं. यह निम्न आयवर्ग के परिवारों के लिए आठ करोड़ रसोई गैस कनेक्शन मुफ्त देने तथा विशेषकर स्त्रियों के सशक्तीकरण व स्वास्थ्य के लाभ के इरादे से किया गया था.

इस सामाजिक योजना के लिए धन जुटाने के लिए केवल अधिक कराधान पर निर्भर रहने के बजाय प्रधानमंत्री ने इस मुहिम से जुड़ने के लिए अपने सक्षम देशवासियों का आह्वान किया. इस योजना में यह भी विशेषता थी कि अनुदानदाता यह देख सकते थे कि उनके अनुदान का क्या उपयोग हुआ. इसी तरह से कोरोना महामारी से राहत के लिए पीएम केयर्स फंड में दान देने की प्रधानमंत्री की अपील से भी धन जुटाने में मदद मिली. स्वास्थ्य मंत्री के अनुसार, इस धन का उपयोग टीके के भुगतान के लिए किया जायेगा.

बहरहाल, केवल नागरिकों के नैतिक मूल्यों को संबोधित कर आधुनिक राज्य का संचालन नहीं हो सकता है. वंचितों के लाभ के लिए निर्धारित विभिन्न सामाजिक कार्यक्रमों के लिए इसे समुचित धन मुहैया कराना चाहिए. दान, त्याग और स्वयंसेवा भी साथ चल सकते हैं, लेकिन ये राज्य के उत्तरदायित्व के विकल्प या स्थानापन्न नहीं हो सकते हैं. कानून एवं व्यवस्था के क्षेत्र में तो राज्य के कार्य और कर्तव्य और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं. उदाहरण के लिए हम इस कहावत को ले सकते हैं- ‘आप कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते हैं.’

राज्य भी कानून व व्यवस्था की बहाली से संबंधित कामों में आम नागरिकों को नहीं लगा सकता है. यह प्रस्ताव स्वस्थ जनतंत्र के लिए उपयुक्त नहीं है. महाराष्ट्र में एक प्रयोग हो चुका है, जिसके तहत सफाई मार्शल नियुक्त हुए हैं, जो गंदगी फैलानेवालों पर तुरंत जुर्माना लगा सकते हैं. इसका एक अतिवादी उदाहरण सलवा जुडुम का मामला है. यह राज्य के समर्थन, संरक्षण एवं प्रशिक्षण में नक्सलियों के विरुद्ध एक निजी सशस्त्र अभियान था. साल 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक आदेश में इस समूह को अवैध करार दिया था. सफाई मार्शल से निजी सशस्त्र टुकड़ी तक का रास्ता लंबा है, लेकिन यह रास्ता फिसलन भरा है.

इस संदर्भ में गृह मंत्रालय की एक हालिया पहल को देखा जाना चाहिए और उससे चिंतित होना चाहिए. मंत्रालय की साइबर क्राइम इकाई ने एक नया कार्यक्रम शुरू किया है, जिसमें आम नागरिक वोलंटियर के रूप में हिस्सा लेकर बाल पोर्नोग्राफी, बलात्कार, आतंकवाद, अतिवाद और राष्ट्र-विरोध समेत इंटरनेट पर अवैध गतिविधियों की जानकारी सरकार को दे सकते हैं.

प्रायोगिक चरण में इसे केवल जम्मू-कश्मीर और त्रिपुरा में लागू किया जा रहा है और बाद में इसे अन्य राज्यों में लागू किया जा सकता है. यह साइबर वोलंटियर प्रोजेक्ट लेख के शुरू में उल्लिखित केनेडी के स्वयंसेवा की भावना से बहुत अलग मामला है. इसमें कथित साइबर वोलंटियर्स को असाधारण घातक अधिकार मिल सकते हैं और वे एक पहरेदार समूह बन सकते हैं.

उनके कार्यों की कोई जवाबदेही होने का संकेत नहीं मिलता और आखिरकार वे लोगों पर नजर रखने व मुखबिरी करनेवाले गुप्त पुलिस की तरह हो सकते हैं. ऐसी कोशिश ‘निगरानी करनेवाले राज्य’ की अवधारणा को और भयावह बनाती है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि सोशल मीडिया नफरत, हिंसा, अव्यवस्था आदि फैलानेवाली बातों से भरा है, लेकिन यह राज्य का काम है कि वह इस पर नियमन के लिए उपाय निर्धारित करे, जैसा कि कई देशों में हो रहा है. यह भी राज्य के ऊपर ही है कि वह सोशल मीडिया पर आपराधिक कृत्य करनेवालों की पहचान करे.

वह यह काम वोलंटियरों को नहीं दे सकती है. यह भी है कि नफरत की बातों पर अंकुश लगाना एक अनिश्चित प्रस्ताव है क्योंकि इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर अतिक्रमण नहीं होना चाहिए. इसीलिए इस काम को आम नागरिकों के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता है, जो अपने निहित स्वार्थों के लिए दूसरों को गलत तरीके से फंसा भी सकते हैं.

एक मसला आयकर विभाग द्वारा जारी एक हालिया सुविधा है. इसके तहत लोग बेनामी संपत्ति, विदेशों में धन या कर चोरी की जानकारी दे सकते हैं. इसका लिंक विभाग के वेबसाइट पर है और इसमें जानकारी देनेवाला अनाम रह सकता है. इसमें शिकायत की एक संख्या आवंटित हो जाती है. इस व्यवस्था में भी निगरानी करनेवाले राज्य के फिसलन भरी सड़क पर नीचे जाने की छाया है. क्या यह भी ऐसा मामला नहीं है, जहां कर चोरी करनेवालों को स्वयं पकड़ने की जगह यह काम राज्य उन लोगों को दे रहा है, जो दुर्भावना से प्रेरित हो सकते हैं?

नागरिकों को राष्ट्रीय विकास में व्यक्तिगत त्याग या दान जैसे सकारात्मक कार्यों से योगदान देने के लिए कहना एक बात है, लेकिन अनाम रहकर या छुपकर वोलंटियरों को बिना किसी जवाबदेही के अन्य नागरिकों की जासूसी करने के लिए कहना, उन्हें असल पहरेदार बनाना और कानून-व्यवस्था में मदद करना बिल्कुल ही दूसरी बात है. इससे अविश्वास और भय और बढ़ेगा. दृढ़ता से कार्यशील लोकतंत्र की असल नींव बहुत अधिक सामाजिक पूंजी और विश्वास है. हमें इसे बिगाड़ना नहीं चाहिए.

Posted By : Sameer Oraon

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