बंगाल चुनाव में वोटों की खींचतान

भाजपा की मजबूत चुनौती के बीच अब आइएसएफ और ओवैसी के भी यहां की चुनावी राजनीति में उतरने से ममता बनर्जी के लिए नया सिरदर्द पैदा हो गया है.

By संपादकीय | March 11, 2021 6:49 AM
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प्रभाकर मणि तिवारी

वरिष्ठ पत्रकार

prabhakarmani@gmail.com

पश्चिम बंगाल की राजनीति में अल्पसंख्यकों की अहम भूमिका रही है. लेकिन, लेफ्ट और कांग्रेस के साथ फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आइएसएफ) और एआइएमआइएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी के मैदान में उतरने से इस वोट बैंक पर खींचतान मची है.

खासकर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के इस वोट बैंक में सेंध का अंदेशा पैदा हो गया है. भाजपा, ममता बनर्जी पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप लगाती रही है. शायद ममता को भी आइएसएफ और ओवैसी से खतरे का अहसास होने लगा है. इसीलिए, ममता को नंदीग्राम में खुद को ब्राह्मण की बेटी बताना पड़ा रहा है. इस बार राज्य के अल्पसंख्यक भी असमंजस में हैं.

पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग तीस फीसदी है. पहले लेफ्ट फ्रंट ने इस वोट बैंक का सियासी फायदा उठाया और बीते एक दशक से इस पर तृणमूल कांग्रेस का कब्जा है. अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोपों को ध्यान में रखते हुए तृणमूल ने शायद इस बार इस तबके के कम उम्मीदवारों को टिकट दिया है.

हालांकि, पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक लगभग 105 सीटों पर निर्णायक स्थिति में हैं. इस तबके के वोटरों की थाह लेनी हो तो मुर्शिदाबाद और मालदा सबसे बेहतर जगह है. मुर्शिदाबाद में अल्पसंख्यकों की आबादी करीब 70 फीसदी है और मालदा में लगभग 57 फीसदी.

वर्ष 2011 और 2016 में इसी वोट बैंक की बदौलत ममता सत्ता में आयीं. लेकिन, भाजपा की मजबूत चुनौती के बीच अब आइएसएफ और ओवैसी के भी यहां की चुनावी राजनीति में उतरने से ममता बनर्जी के लिए नया सिरदर्द पैदा हो गया है. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को मिले 43.3 फीसदी वोट में अल्पसंख्यक वोटरों का हिस्सा 23.3 फीसदी था.

लेकिन अब ओवैसी और आइएसएफ की दोहरी चुनौती के कारण इस तबके के समर्थन में मामूली गिरावट भी तृणमूल कांग्रेस के सपनों पर पानी फेर सकती है. इस वोट बैंक को अटूट रखने के लिए हाल के वर्षों में ममता अल्पसंख्यकों की सहायता के लिए दर्जनों योजनाएं शुरू कर चुकी हैं. इनमें मदरसों को सरकारी सहायता, छात्रों के लिए स्कॉलरशिप और मौलवियों को आर्थिक मदद भी शामिल है. अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोपों की काट के लिए ममता बनर्जी ने बीते साल जहां राज्य की करीब 37 हजार दुर्गापूजा समितियों को 50-50 हजार रुपये का अनुदान दिया था, वहीं हजारों हिंदू पुरोहितों को भी मासिक भत्ता और मकान देने का एलान किया था.

फुरफुरा शरीफ के पीरजादे और ओवैसी के मैदान में उतरने से अगर ममता चिंतित हैं तो उसकी ठोस वजह है. दरअसल, हुगली जिले में स्थित फुरफुरा शरीफ अल्पसंख्यकों का पवित्र जियारत स्थल है. दक्षिण बंगाल की लगभग ढाई हजार मस्जिदों पर नियंत्रण है. चुनावों के मौके पर फुरफुरा शरीफ की अहमियत काफी बढ़ जाती है. लेफ्ट से लेकर तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस तक तमाम दलों के नेता आशीर्वाद लेने वहां पहुंचने लगते हैं. बंगाल के अल्पसंख्यक मुख्य रूप से दो धार्मिक संस्थाओं का अनुसरण करते हैं. इनमें देवबंदी आदर्शों पर चलने वाले जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अलावा फुरफुरा शरीफ शामिल है.

यह संस्था कई धर्मार्थ संगठन, शैक्षिक संस्थान, अनाथालय, मदरसा और स्वास्थ्य केंद्र चलाती है. पास के हावड़ा, दक्षिण और उत्तरी 24 परगना जिलों में इसके अलिखित फतवों का असर भी होता है. दक्षिण बंगाल के इन चार जिलों में कुल मुस्लिम आबादी का कोई 25 फीसद हिस्सा रहता है और राज्य की करीब एक तिहाई यानी 98 विधानसभा सीटें इसी इलाके में हैं. वर्ष 2019 में तृणमूल कांग्रेस ने इलाके की 14 में से 11 लोकसभा सीटें जीती थीं और तब अल्पसंख्यकों ने ममता के पक्ष में एकमुश्त वोट डाले थे. तब उनकी पार्टी इलाके की ज्यादातर विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल करने में कामयाब रही थी.

सवाल यह है कि ममता अपने जिस ठोस अल्पसंख्यक वोट बैंक के जरिये भाजपा के उग्र हिंदुत्व की काट की योजना बना रही हैं क्या वह बीते दस वर्षों की तरह इस बार भी अटूट रहेगा? खासकर बीते लोकसभा चुनाव के बाद राज्य में लगातार तेज होती ध्रुवीकरण की लहर के दौर में यही वोट बैंक ममता और उनकी पार्टी की सबसे बड़ी ताकत है.

ऐसे में पीरजादा अब्बासी और ओवैसी अगर इसमें थोड़ी-बहुत भी सेंध लगाते हैं, तो सत्ता की हैट्रिक बनाने के तृणमूल कांग्रेस के मंसूबे पर पानी फिर सकता है. मुर्शिदाबाद के वरिष्ठ पत्रकार सुकुमार महतो मानते हैं कि आइएसएफ और ओवैसी जिले में भले एक सीट भी न जीतें, कुछ सीटों पर दूसरों का खेल जरूर बिगाड़ सकते हैं.

हालांकि, तृणमूल कांग्रेस के नेता कम से कम यह दिखाने में जुटे हैं कि उनको ओवैसी या लेफ्ट-कांग्रेस-आइएसएफ गठजोड़ से कोई खतरा नहीं है. पार्टी के तमाम नेता बार-बार कहते रहे हैं कि ओवैसी को बिहार में उर्दूभाषी मुसलमानों के बीच भले कामयाबी मिल गयी हो, बंगाल में उनका जादू नहीं चलेगा. इसकी वजह यह है कि यहां ज्यादातर मुसलमान बांग्लाभाषी हैं.

मुर्शिदाबाद की लालबाग सीट से तृणमूल उम्मीदवार मोहम्मद अली भी यही बात कहते हैं. लेकिन राज्य के खासकर बिहार से सटे इलाकों में उर्दूभाषी मुसलमानों की भी खासी तादाद है. उनके ओवैसी के साथ जाने की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता. इसके साथ ही पार्टी यह भी जानती है कि यह तबका स्थायी रूप से किसी का समर्थन नहीं करता.

पहले भी यह वोट बैंक कांग्रेस से लेफ्ट से खिसकते हुए तृणमूल कांग्रेस की ओर आया है. तृणमूल कांग्रेस इस पुरानी कहावत से भी वाकिफ है कि राजनीति में कोई भी चीज स्थायी नहीं होती. ऐसे में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के माथे पर चिंता की लकीरों का गहराना स्वाभाविक ही है.

शायद यही वजह है कि भाजपा को बार-बार हिंदू कार्ड नहीं खेलने की चेतावनी देने वाली ममता बनर्जी खुद भी अब हिंदू और ब्राह्मण बेटी का कार्ड खेलने लगी हैं. अपने लंबे राजनीतिक अनुभव से वे इस बात से बखूबी वाकिफ हैं कि ओवैसी और आइएसएफ को यहां भले सीटें ज्यादा नहीं मिलें, कई सीटों पर वह तृणमूल कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में तो सक्षम है ही.

Posted By : Sameer Oraon

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