व्हाट्सएप और निजी डाटा सुरक्षा
व्हाट्सएप और निजी डाटा सुरक्षा
पीयूष पांडे
सोशल मीडिया विश्लेषक
pandeypiyush07@gmail.com
व्हाट्सएप ने उपयोगकर्ताओं का डाटा साझा करने से संबंधित नीतियों में जो बदलाव किया है, वह चिंताजनक जरूर है क्योंकि इसमें उसके डाटा को दूसरे प्लेटफॉर्म को देने का प्रावधान है. लेकिन यह चिंता उस स्तर की नहीं है, जितना शोर मचाया जा रहा है. व्हाट्सएप ने स्पष्ट किया है कि जो सामान्य यूजर हैं, उनके दोस्तों और परिजनों से होनेवाली चैट को व्यापारिक उद्देश्यों के लिए साझा नहीं किया जायेगा.
यहां सवाल व्हाट्सएप का नहीं है, बल्कि यह है कि क्या लोग वास्तव में अपनी निजता को लेकर चिंतित है. सवाल यह है कि क्या आपने किसी एप को डाउनलोड करते समय उसकी निजता नीति को ठीक से पढ़ा है या किसी एप की नीति से चिंतित होकर उसे आपने डिलीट किया है. बीते दशक में कई बार ऐसे मौके आये हैं, जब निजता नीति को लेकर शोर मचा है. साल 2011 में जब फेसबुक ने अपनी नीतियों को बदला था, तब भी सवाल उठाये गये थे.
हमें यह समझना होगा कि जब आप किसी एप की सेवा के लिए कोई भुगतान नहीं कर रहे हैं, तो आप स्वयं एक उत्पाद के रूप में इस्तेमाल होते हैं. प्रश्न यह है कि उन कंपनियों की सेवा के एवज में आप उन्हें क्या दे रहे हैं, तो आप अपना डाटा यानी अपनी सूचनाएं दे रहे हैं और उस डाटा का वैश्विक व्यापार है, इसमें कोई संदेह नहीं है. इसी व्यापार के बाजार के आधार पर फेसबुक, गूगल, इंस्टाग्राम जैसी कंपनियों का राजस्व अरबों-खरबों डॉलर में है.
फेसबुक के पास ही लगभग 70 बिलियन डॉलर का राजस्व है. जब फेसबुक को व्हाट्सएप से तगड़ी चुनौती मिली थी, तब फेसबुक ने इसे बहुत महंगे दाम में खरीद लिया था. गूगल भी इसे खरीदने का इच्छुक था. चूंकि सारा खेल अधिक से अधिक डाटा जुटाने का है, इसलिए फेसबुक ने अधिक कीमत दी. डाटा के इस्तेमाल के द्वारा सभी कंपनियां टारगेटेड विज्ञापन देना चाहती हैं. व्यक्ति की जरूरत और दिलचस्पी के हिसाब से उसे विज्ञापन देने की कोशिश होती है, ताकि वह उत्पाद या सेवा खरीदे. यह पूरी दुनिया में हो रहा है.
अब निजता को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं, ऐसा इसलिए है कि लोगों को डाटा के दुरुपयोग की आशंका है. कंपनियों के पास यूजर का जो डाटा है, उनका इस्तेमाल कैसे और कहां होगा, इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता है. इंटरनेट की दुनिया बहुत अलग तरह से काम करती है. यदि कंपनियां केवल विज्ञापन या वस्तुओं व सेवाओं की खरीद-बिक्री के लिए डाटा का इस्तेमाल कर रही हैं, उसे तो स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन हैकर इस डाटा का इस्तेमाल दूसरे तरीके से कर सकते हैं और करते भी हैं.
हमारे देश में ही इंटरनेट धोखाधड़ी, फर्जीवाड़े और डाटा चोरी के मामले बीते कुछ सालों में बड़ी तेजी से बढ़े हैं. डाटा का गलत इस्तेमाल कर राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुंचाया जा सकता है. कुछ समय पहले अमेरिका में प्रिज्म नामक एक कार्यक्रम चलाया जाता था. इसके तहत सोशल मीडिया की एजेंसियों से लोगों का सारा डाटा जुटाया जाता था. फेसबुक, गूगल, ट्विटर आदि की वजह से उस कार्यक्रम के पास सारी सूचनाएं थीं.
उस समय विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांज ने एक साक्षात्कार में कहा था कि फेसबुक, याहू, गूगल जैसी तमाम कंपनियां खुफिया एजेंसियों के लिए सबसे बेहतरीन जासूसी मशीन हैं क्योंकि इनसे सारा डाटा बैठे-बिठाये मिल जाता है कि कौन कहां जा रहा है, कौन क्या लिख-पढ़ रहा है, क्या खरीद रहा है आदि. उस विवाद के बाद इन कंपनियों को सफाई देनी पड़ी थी, किंतु यह सच है कि प्रिज्म के जरिये अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के पास सारी जानकारियां हैं.
भारत में भी ऐसी स्थिति बन सकती है क्योंकि हमारे देश में साइबर कानून बहुत कमजोर हैं. साल 2001 में जो सूचना तकनीक से संबंधित कानून बने थे, उसमें एक-दो बार ही मामूली संशोधन हुए हैं. ऐसे में निजता और डाटा सुरक्षा को लेकर चुनौतियां बहुत बढ़ गयी हैं. मौजूदा कानूनों में आज और आगे की जरूरतों के मुताबिक समुचित संशोधन करने की बड़ी जरूरत है.
हमारे नीति-निर्धारकों और राजनीतिक नेतृत्व में सूचना तकनीक व सुरक्षा से जुड़े सवालों की कोई खास चिंता नहीं है. निजी डाटा सुरक्षा विधेयक लंबे समय से लंबित है और उसे कानूनी रूप देने को लेकर सक्रियता नहीं दिखती है. यदि यह विधेयक पारित हो जाता, तो सोशल मीडिया, मैसेजिंग एप और इंटरनेट सेवाप्रदाताओं पर कुछ कड़े प्रावधान लागू हो जाते तथा निजता को लेकर हमारी आशंकाएं बहुत हद तक कम हो जातीं.
वैसी स्थिति में व्हाट्सएप या अन्य एप अपनी नीतियों में मनमाने बदलाव नहीं कर पाते. सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म एक पैकेज की तरह हैं, जिनका सकारात्मक पहलू भी है और नकारात्मक भी. इन मंचों के उचित इस्तेमाल से बड़ी संख्या में लोग एक-दूसरे से जुड़े हैं तथा उनके काम और कारोबार का दायरा बढ़ा है. नुकसान यह है कि अब अफवाहों को पंख लगने में देर नहीं लगती, झूठी व गलत बातों को बिना जांचे-परखे लोग आगे बढ़ा देते हैं.
एक दिक्कत तो यह है कि लोग सचेत नहीं हैं और सोशल मीडिया पर कही-लिखी बातों पर आंख मूंद कर भरोसा कर लेते हैं तथा उन बातों को दूसरे लोगों तक पहुंचाने लगते हैं. सोशल मीडिया पर अपनी सक्रियता की जवाबदेही को लेकर बहुत सारे लोग लापरवाह रहते हैं. दूसरी बात यह है कि सूचना तकनीक से संबंधित कानून कमजोर हैं. इसी वजह से अधिकतर मामलों में कार्रवाई नहीं हो पाती. इसका फायदा सोशल मीडिया कंपनियों को भी होता है. तीसरी बात यह है कि इन कानूनों को लागू करनेवाली एजेंसियां और उनके अधिकारी न तो सोशल मीडिया के हिसाब को ठीक से समझते हैं और न ही मौजूदा कानूनी प्रावधानों को.
अगर किसी छोटे कस्बे में सूचना तकनीक या डाटा सुरक्षा से जुड़ा कोई मामला सामने आता है, तो वहां की स्थानीय पुलिस के पास आवश्यक प्रशिक्षण और संसाधनों की कमी के कारण उसकी सही जांच हो पाना मुश्किल है. सोशल मीडिया का इस्तेमाल करनेवाले लोगों की बड़ी भारी तादाद के अनुपात में हमारे पास अधिकारी भी नहीं हैं. भारत में फेसबुक के 50 करोड़ से अधिक यूजर हैं.
ऐसा ही व्हाट्सएप के साथ है. जीमेल के यूजर तो इससे भी अधिक हो सकते हैं. करीब दो साल पहले दिल्ली में सूचना तकनीक के मामलों के लिए अलग अदालत बनायी गयी थी, लेकिन छह महीने बीत जाने के बाद भी वहां एक भी मामले सुनवाई पूरी नहीं हो सकी थी. ये समस्याएं निजता और डाटा सुरक्षा तथा सोशल मीडिया के दुरुपयोग के मसले को और अधिक जटिल बना देती हैं.
Posted By : Sameer Oraon