इस समय पूरा देश बिस्तर, ऑक्सीजन, दवा आदि की कमी के संकट से जूझ रहा है और इसके लिए तंत्र को दोष दे रहा है. हम किसी बीमारी के फैल जाने के बाद उसके निदान के लिए हैरान-परेशान होते हैं, जबकि हमारी सोच समस्या के आने या उसके विकराल होने से पहले उसे रोकने की होनी चाहिए. इतनी बड़ी आबादी, वह भी बेहद असमान सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की, के सामने ऐसी विपदा में तंत्र का ढह कर बेहाल हो जाना लाजिमी है, लेकिन इससे बड़ा दुख यह है कि तंत्र हालात के गंभीर होने के कारकों पर नियंत्रण करने में असफल रहा है.
सारी दुनिया जिस कोरोना से कराह रही है, वह असल में जैव विविधता से छेड़छाड़, धरती के गर्म होते मिजाज तथा वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ने के मिले-जुले प्रभाव की महज झांकी है. पर्यावरण पर खतरा धरती के अस्तित्व के लिए चुनौती बन गया है, बात महज पानी के दूषित होने या वायु में जहर फैलने तक नहीं रह गयी है, इन सबका समग्र कुप्रभाव जलवायु परिवर्तन के रूप में हमारे सामने है.
गौर करें, जिन शहरों- दिल्ली, मुंबई, प्रयागराज, लखनऊ, इंदौर, भोपाल, पुणे आदि- में महामारी इस बार सबसे घातक है, वहां की वायु गुणवत्ता बीते कई महीनों से बेहद गंभीर है. दिल्ली से सटा गाजियाबाद बीते तीन सालों से देश के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में पहले तीन स्थानों पर है. गत पांच सालों में दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुना बढ़ी है. एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के मुताबिक, अगर प्रदूषण के स्तर को काबू में नहीं किया गया, तो 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार होकर असमय मौत के मुंह में जायेंगे.
सनद रहे, वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है. दुनिया के तीस सबसे दूषित शहरों में भारत के 21 शहर हैं. हमारे यहां 2019 में अकेले वायु प्रदूषण से 17 लाख लोग मारे गये थे. खतरे का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेफड़े के कैंसर की वजह है. यह तथ्य है कि कोरोना वायरस जब फेफड़ों या िचकित्सा तंत्र पर काबिज होता है, तो रोगी की मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है.
अब पूरे देश से खबर आ रही है कि अमुक सरकारी अस्पताल में पिछले साल खरीदे गये वैंटिलेटर खोले तक नहीं गये या उनकी गुणवत्ता घटिया है या फिर उन उपकरणों को संचालित करने वाला स्टाफ नहीं है. यह एक बानगी है कि हमारा चिकित्सा तंत्र श्वास रोग से जूझने को कितना तैयार है. ठंड के दिनों में लोग पराली जलाने को लेकर चिल्लाते मिलेंगे, लेकिन शहरों की आबो-हवा खराब होने के मूल कारणों- बढ़ती आबादी, व्यापार-सत्ता और पूंजी का महानगरों में सिमटना, निजी वाहनों की संख्या में इजाफा, विकास के नाम पर लगातार धूल उगलनेवाली गतिविधियां, सड़कों पर जाम आदि- से निपटने के तरीकों पर कभी किसी ने काम नहीं किया.
यह एक कड़वी चेतावनी है कि यदि शहर में रहनेवालों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ायी नहीं गयी, उन्हें पर्याप्त पौष्टिक आहार नहीं मिला, साफ हवा नहीं मिली, तो कोरोना से भी खतरनाक महामारियां स्थायी रूप से घर कर जायेंगी. वैश्विक भूख तालिका में हमारा स्थान दयनीय स्थिति में है और पिछले साल बढ़ी बेरोजगारी के बाद यह समस्या विकराल हो गयी है. भूखा रहेगा इंडिया, तो कोरोना से कैसे लड़ेगा इंडिया?
पिछले एक दशक के दौरान मानवीय जीवन पर संक्रामक रोगों की मार बहुत जल्दी-जल्दी पड़ रही है, ऐसी बीमारियों का 60 फीसदी हिस्सा जंतुजन्य है, जिसका 72 फीसदी सीधा जानवरों से इंसान में आ रहा है. कोविड-19, एचआइवी, सार्स, जीका, हेंद्रा, ईबोला, बर्ड फ्लू आदि सभी संक्रमण जंतुओं से ही आये हैं. दुखद है कि भौतिक सुखों की चाह में इंसान ने पर्यावरण के साथ जमकर छेड़छाड़ की, जिसके परिणामस्वरूप जंगल, वन्य जीव और इंसान के बीच दूरियां कम होती जा रही हैं.
यह बात जानते-समझते हुए भी भारत में गत साल संपूर्ण तालाबंदी के दौरान लगभग पचास से ज्यादा परियोजनाओं को पर्यावरण नियमों में ढील देकर मंजूरी दी गयी. नये जंगल के आंकड़े बेमानी हैं क्योंकि जैव-विविधता की रक्षा के लिए प्राकृतिक रूप से लगे, पारंपरिक और सघन वन अनिवार्य हैं, जहां इंसान का दखल लगभग न हो.
पहले कहा जाता था कि प्रदूषण का असर केवल शहरों में है, लेकिन आज सबसे ज्यादा प्रभावित गांव ही हो रहे हैं. खेती अब अनिश्चितता से गुजर रही है. उत्पाद की गुणवत्ता गिर रही है तथा मवेशियों के प्रजनन और दुग्ध क्षमता पर भी असर हो रहा है. उधर कोरोना के भय से हुए पलायन के चलते गांवों पर बोझ बढ़ा, तो साफ पानी के संकट ने गांवों के निरापद स्वरूप को छिन्न-भिन्न कर दिया है.
असल में कोविड का भयावह रूप इंसान की प्रकृति के विरुद्ध जिद का नतीजा है. बीते साल तालाबंदी में प्रकृति खिलखिला उठी थी, लेकिन इंसान जल्द से जल्द प्रकृति की इच्छा के विपरीत फिर से कोरोना-पूर्व जीवन में लौटने को आतुर था. सरकार व समाज को समझना होगा कि उत्तर-कोरोना काल अलग है, जिसमें विकास की परिभाषा बदलनी होगी. पर्यावरण को थोड़ा उसके मूल स्वरूप में आने दें. जबरदस्ती करेंगे, तो प्रकृति भयंकर प्रकोप दिखायेगी.