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पहुंच से दूर होते शिक्षा के अवसर

Education Opportunities : अंग्रेजी के लालच में अभिभावक अपने बच्चों को महंगे प्राइवेट स्कूलों में भेज रहे हैं, पर उसमें भी बच्चों का हाथ तंग है. ग्रामीण निजी स्कूलों में (अधिकांश अंग्रेजी मीडियम) पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले 47 फीसदी बच्चे अंग्रेजी का एक साधारण-सा वाक्य पढ़ सकते थे, और मात्र 29 प्रतिशत उसका अर्थ बता सकते थे.

Education Opportunities : शिक्षा नीति के दस्तावेज बनते हैं, बिगड़ते हैं. पर इस देश की अलिखित शिक्षा नीति कभी नहीं बदली. शिक्षा नीति का सच है ‘सरकारी से ही प्राइवेट की ओर’, ‘मिशन से धंधे की ओर’ तथा ‘पढ़ाई से पैसे की ओर’. ज्यों-ज्यों देश आगे बढ़ रहा है, त्यों-त्यों सरकार शिक्षा की बुनियादी जिम्मेदारी से हाथ खींच रही है. ज्यों-ज्यों ग्रामीण और गरीब मां-बाप को शिक्षा का महत्व समझ आ रहा है, त्यों-त्यों शिक्षा के अवसर उनकी पहुंच से दूर जा रहे हैं. मां-बाप अपना पेट काटकर बच्चों को जिस प्राइवेट अंग्रेजी मीडियम स्कूल में भेजने की होड़ में लगे हैं, वहां बच्चे को न शिक्षा मिलती है, न ही अंग्रेजी.


इस सच की पुष्टि पिछले सप्ताह केंद्र सरकार के राष्ट्रीय सैंपल सर्वे द्वारा प्रकाशित ‘व्यापक वार्षिक मॉड्यूलर सर्वेक्षण 2022-23’ के माध्यम से हुई. इसके अनुसार, देश में छह से 10 साल के बीच के दो तिहाई बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों में जाते हैं, शेष एक तिहाई निजी स्कूल में जा रहे हैं. यानी कोरोना के चलते बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाने का जो सिलसिला चला था, वह फिर पलट गया है. शहरी और ग्रामीण इलाकों में बड़ी खाई दिखाई देती है. शहरों में एक तिहाई से थोड़े ही ज्यादा (37 प्रतिशत) बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल में जा रहे हैं, तो ग्रामीण भारत में तीन चौथाई (77 फीसदी) बच्चे सरकारी स्कूल में जा रहे हैं.

अब गांवों के भी एक चौथाई (23 फीसदी) बच्चे निजी प्राथमिक स्कूलों में दाखिला ले रहे हैं. यह राष्ट्रीय औसत भ्रामक है, क्योंकि असम, त्रिपुरा, बंगाल, ओडिशा, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे गरीब राज्यों में अब भी 80 प्रतिशत से अधिक बच्चे सरकारी प्राथमिक स्कूलों में जा रहे हैं. जिन राज्यों में थोड़ी बहुत संपन्नता आयी है, वहां के सरकारी स्कूलों में छात्रों का अनुपात तेजी से गिर रहा है. इस सर्वेक्षण के अनुसार हरियाणा, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, मणिपुर और मेघालय में सरकारी स्कूलों से अधिक बच्चे निजी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ रहे हैं. प्राइवेट स्कूल की तरफ इस दौड़ का कारण यह नहीं है कि लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा आ गया है. बात सिर्फ इतनी है कि अब झुग्गी-झोपड़ी और गांव में रहने वाले गरीब परिवार को भी आभास हो गया है कि अगली पीढ़ी की जिंदगी बनाने का यही तरीका है कि उन्हें अच्छी शिक्षा दिलायी जाये. इसके लिए वे अपने खर्चों में कटौती करने के लिए तैयार हैं. इसके चलते शिक्षा के नाम पर दुकानें खुल गयी हैं.


वर्ष 2017-18 में राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ने अनुमान लगाया था कि प्राथमिक शिक्षा में हर बच्चे को निजी स्कूल में भेजने पर कुल मासिक खर्च 1,200 रुपये था (जबकि सरकारी स्कूल के बच्चों पर परिवार का कुल खर्च सिर्फ 100 रुपया था ). हायर सेकेंडरी तक आते-आते प्राइवेट स्कूल का खर्च 2,000 रुपये मासिक था, जबकि सरकारी स्कूल में मात्र 500 रुपये. पिछले सात साल में यह खर्च करीब डेढ़ गुना बढ़ गया है. ग्रामीण इलाकों के सस्ते प्राइवेट स्कूल में मासिक फीस 1,000-1,500 रुपये है, जबकि थोड़े बेहतर ग्रामीण स्कूलों में 2,000-2,500 रुपये. दो बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजने वाला ग्रामीण परिवार अपनी आय का दसवां हिस्सा सिर्फ शिक्षा पर खर्च करने के लिए मजबूर है.

अब शिक्षा की गुणवत्ता पर बात करें. ‘प्रथम’ नामक संगठन बीस साल से ग्रामीण बच्चों की शिक्षा की गुणवत्ता का वार्षिक सर्वेक्षण ‘असर’ प्रकाशित कर रहा है. वर्ष 2022 के अंतिम सर्वेक्षण के अनुसार कक्षा तीन में पढ़ने वाले बच्चों को जब कक्षा दो की पाठ्यपुस्तक का मातृभाषा में एक सरल-सा पैरा पढ़ने को कहा गया, तो ग्रामीण निजी स्कूलों के दो-तिहाई बच्चे पढ़ नहीं सके. उन्हीं स्कूलों के पांचवीं कक्षा के बच्चों को कक्षा दो की पाठ्यपुस्तक का वही पैरा पढ़ने को कहा गया, तब भी 43 प्रतिशत उसे नहीं पढ़ पाये, आठवीं कक्षा के भी 20 प्रतिशत बच्चे इस टेस्ट में फेल हो गये. यही बात गणित पर लागू होती है. कक्षा तीन के बच्चे को जोड़-घटाव आना चाहिए, पर ग्रामीण प्राइवेट स्कूल के 57 प्रतिशत बच्चे दो अंकों का सामान्य-सा घटाव नहीं कर पाये. बेशक इन पैमानों पर सरकारी स्कूल के बच्चों की हालत और भी खराब है, पर निजी स्कूलों में भी बच्चों को गुजारे लायक शिक्षा तक नहीं मिल रही.


अंग्रेजी के लालच में अभिभावक अपने बच्चों को महंगे प्राइवेट स्कूलों में भेज रहे हैं, पर उसमें भी बच्चों का हाथ तंग है. ग्रामीण निजी स्कूलों में (अधिकांश अंग्रेजी मीडियम) पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले 47 फीसदी बच्चे अंग्रेजी का एक साधारण-सा वाक्य पढ़ सकते थे, और मात्र 29 प्रतिशत उसका अर्थ बता सकते थे. आठवीं कक्षा में भी यही हाल था. यह है हमारी तथाकथित अंग्रेजी मीडियम शिक्षा की हकीकत, जिनमें न तो बच्चे को अंग्रेजी आती है, न मां-बाप को और न ही अध्यापक को. यह है देश की ‘नयी शिक्षा नीति’- शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण. इसके सहारे राजनीति में शिक्षा माफिया खड़ा हो रहा है, जो सरकारी स्कूलों को चौपट करने पर आमादा है. संविधान में दिया गया शिक्षा का अधिकार एक क्रूर व्यंग्य बनकर रह गया है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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