मौसम पूर्वानुमान में अल नीनो की भूमिका

दक्षिण अमेरिका से भारत तक के मौसम में बदलाव के सबसे बड़े कारण अल नीनो और ला नीना प्रभाव ही होते हैं. अल नीनो का संबंध भारत व ऑस्ट्रेलिया में गर्मी और सूखे से है, वहीं ला नीना अच्छे मानसून का वाहक है और इसे भारत के लिए वरदान कहा जा सकता है.

By पंकज चतुर्वेदी | August 21, 2024 8:04 AM
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El Nino : एपीइसी क्लाइमेट सेंटर (एपीसीसी) का दावा है कि सितंबर 2024 से फरवरी 2025 के दौरान ला नीना के आने की संभावना है. उल्लेखनीय है कि इन हालातों को एशिया, विशेषकर भारत में अधिक बरसात लाने वाला माना जाता है. यदि यह अनुमान सही हुआ, तो आने वाले दिनों में भारत में भारी बारिश हो सकती है. ला नीना और मानसून का संबंध वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है. वैसे तो हर दो से सात वर्ष में अल नीनो और ला नीना की परिस्थितियां बनती हैं और इसका असर बरसात के रूप में दिखता है. भारतीय मौसम विभाग के अनुसार, 1953 से 2023 के बीच कुल 22 ला नीना वर्ष दर्ज किये गये हैं, जिसमें से मात्र दो बार, यानी वर्ष 1974 और 2000 के मानसून सीजन में सामान्य से कम बारिश दर्ज की गयी है, जबकि बाकी वर्षों के मानसून में सामान्य से अधिक बारिश दर्ज की गयी है.


इस वर्ष जून-जुलाई में भयंकर गर्मी ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये. खराब मौसम के लिए अल नीनो को जिम्मेदार माना जा रहा है. यह तय है कि जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव के चलते मौसम अनियमित या चरम होते हैं, पर वास्तविकता में हमारे देश में मौसम की गति सात समुंदर पार निर्धारित होती है. हमारे यहां कैसा मौसम होगा उसका निर्णय ‘अल नीनो’ अथवा ‘ला नीना’ प्रभाव पर निर्भर होता है. प्रकृति रहस्यों से भरी है और इसके कई ऐसे पहलू हैं, जो समूची सृष्टि को प्रभावित करते हैं, पर उनके पीछे के कारकों की खोज अभी अधूरी ही है. ऐसी ही एक घटना 1600 में पश्चिमी पेरू के समुद्री तट पर मछुआरों ने दर्ज की, जब क्रिसमस के आसपास सागर का जलस्तर असामान्य रूप से बढ़ता दिखा. इसी मौसमी बदलाव को स्पेनिश शब्द ‘अल नीनो’ से परिभाषित किया गया. अल नीनो की स्थिति असल में मध्य और पूर्व-मध्य भूमध्यरेखीय समुद्री सतह के तापमान में नियमित अंतराल के बाद होने वाली वृद्धि है, जबकि ला नीना इसके विपरीत, अर्थात तापमान कम होने की मौसमी घटना को कहा जाता है. ला नीना भी स्पेनिश भाषा का शब्द है.


दक्षिण अमेरिका से भारत तक के मौसम में बदलाव के सबसे बड़े कारण अल नीनो और ला नीना प्रभाव ही होते हैं. अल नीनो का संबंध भारत व ऑस्ट्रेलिया में गर्मी और सूखे से है, वहीं ला नीना अच्छे मानसून का वाहक है और इसे भारत के लिए वरदान कहा जा सकता है. भले ही भारत में इसका असर हो, परंतु अल नीनो और ला नीना की घटनाएं पेरू के तट (पूर्वी प्रशांत) और ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट (पश्चिमी प्रशांत) पर घटित होती हैं. हवा की गति इन प्रभावों को दूर तक ले जाती है. यह जानना जरूरी है कि भूमध्य रेखा पर सूर्य की सीधी किरणें पड़ती हैं. इस क्षेत्र में पूरे 12 घंटे निर्बाध सूर्य के दर्शन होते हैं. इस तरह सूर्य की ऊष्मा अधिक समय तक धरती की सतह पर रहती है. तभी भूमध्य क्षेत्र या मध्य प्रशांत इलाके में अधिक गर्मी पड़ती है तथा इससे समुद्र की सतह का तापमान प्रभावित होता है.

सामान्य परिस्थिति में भूमध्यीय हवाएं पूर्व से पश्चिम (पछुआ) की ओर बहती हैं और गर्म हो चुके समुद्री जल को ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी समुद्री तट की ओर बहा ले जाती हैं. गर्म पानी से भाप बनती है और उससे बादल. परिणामस्वरूप, पूर्वी तट के आसपास अच्छी बरसात होती है. नमी से लदी गर्म हवाएं जब ऊपर उठती हैं, तब उनकी नमी निकल जाती है और वे ठंडी हो जाती हैं. तब क्षोभमंडल की पश्चिम से पूर्व की ओर चलने वाली ठंडी हवाएं पेरू के समुद्र तट व उसके आसपास नीचे की ओर आती हैं. तभी ऑस्ट्रेलिया के समुद्र से ऊपर उठती गर्म हवाएं इससे टकराती हैं. इससे निर्मित चक्रवात को ‘वॉकर चक्रवात’ कहते हैं.


अल नीनो परिस्थिति में पछुआ हवाएं कमजोर पड़ जाती हैं व समुद्र का गर्म पानी लौट कर पेरू के तटों पर एकत्र हो जाता है. इस तरह समुद्र का जलस्तर 90 सेंटीमीटर तक ऊपर उठ जाता है, जिसके परिणामस्वरूप वाष्पीकरण होता है व बादल निर्मित होते हैं. इस कारण पेरू में जहां भारी बरसात होती है, वहीं मानसूनी हवाओं पर इसके विपरीत प्रभाव के चलते ऑस्ट्रेलिया से भारत तक सूखा हो जाता है. ला नीना प्रभाव के दौरान भूमध्य क्षेत्र में सामान्यतया पूर्व से पश्चिम की तरफ चलने वाली तेज हवाएं (अंधड़) पेरू के समुद्री तट के गर्म पानी को आस्ट्रेलिया की तरफ धकेलती हैं.

इससे पेरू के समुद्री तट पर पानी का स्तर बहुत नीचे आ जाता है, जिससे समुद्र की गहराई का ठंडा पानी थोड़े से गर्म पानी को प्रतिस्थापित कर देता है. यह वह काल होता है, जब पेरू के मछुआरे खूब कमाते हैं. भारत जैसे कृषि प्रधान देश का भविष्य असल में पेरू के समुद्र तट पर तय होता है. जाहिर है कि इस दिशा में शोध को बढ़ावा देने की आवश्यकता है. आज जरूरत है कि भारत का मौसम विज्ञान विभाग अल नीनो पर और गंभीरता से काम करे क्योंकि यह केवल मौसम ही नहीं, स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है. हमारे मौसम विभाग के अधिकांश पूर्वानुमान के गलत साबित होने का कारण भी यही है कि हम अभी अल नीनो के प्रभाव को लेकर गंभीरता से काम नहीं कर रहे हैं.
(यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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