अहमदाबाद में सात सितंबर, 1933 को जन्मी इला भट्ट के परिवार ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था, उनके नाना महात्मा गांधी के 1930 के दांडी मार्च में शामिल थे और इसके लिए जेल भी गये थे. उन्होंने 1952 में सूरत के एमटीबी महाविद्यालय से कला में स्नातक और फिर अहमदाबाद से 1954 में कानून की पढ़ाई पूरी की, उन्हें हिंदू कानून में स्वर्ण पदक भी मिला. अपनी स्नातक की पढ़ाई के दौरान इला की मुलाकात रमेश भट्ट से हुई थी.
सन 1951 में भारत की पहली जनगणना के दौरान मैली-कुचैली बस्तियों में रहने वाले परिवारों का विवरण दर्ज करने करने के लिए रमेश भट्ट ने इला को अपने साथ काम करने को आमंत्रित किया, तो इला संकोच से सहमत हुईं. उन्हें पता था कि उनके माता-पिता अपनी बेटी को एक अनजान युवक के साथ गंदी बस्तियों में भटकने को हरगिज पसंद नहीं करेंगे
बाद में जब इला ने रमेश भट्ट से शादी करने का निश्चय किया, तो इला के माता-पिता इस शादी के सख्त खिलाफ थे. उन्हें डर था कि उनकी बेटी आजीवन गरीबी में ही रहेगी. इतने विरोध के बावजूद भी इला ने 1955 में रमेश भट्ट से विवाह किया. उसी वर्ष वे अहमदाबाद के कपड़ा कामगार संघ के कानूनी विभाग में शामिल हो गयीं.
भारत के श्रमिक आंदोलन और मजदूर संघों पर आज भी पुरुषों का एकाधिकार बना हुआ है, लेकिन याद रखा जाना चाहिए कि भारत में पहला मजदूर संघ स्थापित करने वाली एक महिला थी. अत्यंत संपन्न परिवार में जन्मी अनुसुइया साराभाई 1913 में लंदन से पढ़ाई कर लौटी थीं. सन 1918 में उचित मजदूरी के सवाल पर मजदूरों और मिल मालिकों के बीच टकराव हुआ, तो अनुसुइया साराभाई ने महात्मा गांधी को अपने संघर्ष में सीधे शामिल किया.
गांधी जी ने अपने जीवन में पहली बार आमरण अनशन का प्रयोग इसी आंदोलन में किया था. अनुसुइया ने एक औपचारिक मजदूर संघ टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन (कपड़ा कामगार संघ) की स्थापना की. कपड़ा कामगार संघ में 1954 में एक महिला प्रकोष्ठ बनाया गया था. साल 1968 में इला भट्ट को इस महिला प्रकोष्ठ का मुखिया बनाया गया.
सन 1971 में अहमदाबाद कपड़ा बाजार में हाथगाड़ी खींचने वाली, सर पर बोझा ढोने वाली प्रवासी महिला कुलियों ने अपने आवास में मदद की आशा से इला भट्ट से संपर्क किया. उन्होंने देखा कि ये सारी महिलाएं खुली सड़क पर रहने को मजबूर हैं और इनकी मजदूरी बेहद कम है. इला भट्ट ने इस विषय पर स्थानीय अखबारों में लिखा.
कपड़ा व्यापारियों ने जवाबी लेख प्रकाशित करवाया, जिसमें इला भट्ट के सारे आरोपों को खारिज किया और महिला कुलियों को उचित मजदूरी देने की बात कही. इला भट्ट ने व्यापारियों वाले लेख की प्रतियां महिला कुलियों में बांट दी, ताकि कुली व्यापारियों से अखबार में छपी मजदूरी ही मांगें. इला भट्ट की इस युक्ति से कपड़ा व्यापारियों की हेकड़ी निकल गयी और उन्होंने वार्ता की पेशकश की. दिसंबर, 1971 में हुई इस बैठक के लिए सौ महिला मजदूर जुटीं और सेवा संगठन (सेल्फ एम्प्लॉयड वीमेन एसोसिएशन) का जन्म हुआ.
भले ही स्वनियोजित कामगार सकल घरेलू उत्पाद में भरपूर योगदान दें, लेकिन उन्हें पूंजी उपलब्ध नहीं होती है. इला ने सोचा कि सरकारी बैंक से गरीबों के लिए ऋण प्राप्त करना असंभव है, तो क्यों न वही लोग अपना बैंक शुरू करें. इला भट्ट के शब्दों में ‘सहकारिता विभाग के रजिस्ट्रार साहब ने कहा- अनपढ़ स्त्रियों का बैंक? गरीब लोग पैसे वापस नहीं करते, बैंक डूब जायेगा. जिस बैंक के लिए रजिस्ट्रार साहब ने मना कर दिया था, वह सेवा बैंक आज खुशहाल है.’
इला भट्ट ने सेवा का मुख्य लक्ष्य महिलाओं को संपूर्ण रोजगार से जोड़ना बनाया. संपूर्ण रोजगार मतलब केवल नौकरी नहीं, बल्कि नौकरी के साथ सुरक्षा, आय की सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा से है. सेवा का ध्यान तीन मुख्य बातों पर केंद्रित रहा है- आजीविका का निर्माण, मौजूदा आजीविका की सुरक्षा और प्रगति के लिए कार्यकुशलता में वृद्धि. सेवा अपने सदस्यों को आवास,
बचत और ऋण, पेंशन तथा बीमा जैसी सहायक सेवा भी प्रदान करती है. इसके अलावा बच्चों की देखभाल तथा कानूनी सहायता भी देती है. सेवा एक संस्था नहीं, आंदोलन का नाम है, जिसने भारत में सबसे निर्धन-निर्बल-निरीह महिला को सधन-सबल-समर्थ महिला बनाया है. एक प्रकार से, सेवा जब भी किसी महिला को सशक्त बनाती है, तब वह इस दुनिया को एक नया संस्थान बना कर दे रही होती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)