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असाध्य रोगों से जूझते बुजुर्ग

वृद्धों की उपेक्षा केवल सरकार द्वारा ही नहीं की जाती है, बल्कि उस परिवार, जहां वे रहते हैं, में भी वे प्राय: उपेक्षा के शिकार होते पाये जाते हैं. 'बुढ़ापे की लाठी' मुहावरा तो प्राचीन काल में गढ़ा गया था.

असाध्य बीमारियों से जूझते बुजुर्गों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. न सरकार को उनकी चिंता है और न उनकी औलादें ही उनकी देखभाल को तैयार हैं. उस देश में, जहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से लेकर आधे से ज्यादा केंद्रीय मंत्री वरिष्ठ नागरिक हों, उस देश के तीन में से दो बुजुर्ग नागरिक असाध्य रोगों से जूझ रहे हों, यह चिंताजनक है.

यह आंकड़ा सरकार ने दो साल पहले जारी किया था, लेकिन इस संबंध में किसी प्रकार की कोई योजना लागू नहीं की गयी है. ऐसे पौने आठ करोड़ से ज्यादा वरिष्ठ नागरिकों का यह आंकड़ा हर दिन बढ़ता जा रहा है. तीन प्रतिशत प्रति वर्ष बढ़ने वाली यह संख्या इसी रफ्तार से बढ़ती रही, तो 2050 में यह संख्या 31.9 करोड़ तक हो जायेगी. खतरे की बात यह है कि इतना सब कुछ जानने-सुनने के बावजूद सरकार कोई ठोस पहल नहीं कर रही है.

लौंगिट्यूडनल एजिंग स्टडी इन इंडिया (एलएएसआइ) के इस अध्ययन को भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने जनवरी, 2020 में जारी किया था. इन आंकड़ों में इस उम्र में बहुरोगों के शिकार होने वाले कुल 27 प्रतिशत बुजुर्ग बताये गये थे. इन रोगियों में 75 फीसदी क्रॉनिक ह्रदय रोगों के, 83 फीसदी डायबिटीज, 75 प्रतिशत कैंसर, 72 प्रतिशत फेफड़े, 41 प्रतिशत मनोचिकित्सा, 20 प्रतिशत मानसिक स्वास्थ्य, 40 प्रतिशत विकलांगता, 56 प्रतिशत जोड़ों की बीमारियों के शिकार थे.

45 वर्ष से ऊपर की आयु के पुरुषों और स्त्रियों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को केंद्र में रख कर किया गया यह अध्ययन विश्व का सबसे बड़ा अध्ययन है. यह भारत में पहली बार हुआ है. रोगियों की यह दर शहरों में अधिक है. दुख की बात यह है कि इनमें 78 फीसदी से अधिक के लिए पेंशन की कोई सुविधा नहीं है. भारत के बुजुर्गों में पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक रोगी हैं.

वृद्धावस्था के रोग सबके लिए कष्टप्रद होते हैं, लेकिन निम्न और मध्यम आय वाले देश के नागरिकों के लिए ये बेहद कष्टप्रद साबित होते हैं. भारत इसी श्रेणी में है. संयुक्त राष्ट्र देशों को वृद्धजनों के लिए नीतियां बनाने और कार्यक्रम चलाने के लिए उत्साहित करता रहा है. संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1991 में वृद्धजनों के लिए संयुक्त राष्ट्र की नीति अपनायी गयी, 1992 में महासभा द्वारा एक घोषणा पत्र जारी हुई तथा वृद्धावस्था पर वैश्विक लक्ष्य जैसे कार्यक्रम बनाये गये.

राष्ट्रीय नीति वृद्धजनों को आश्वासन देती है कि उनकी चिंताएं राष्ट्र की समस्या है. उन्हें न तो असुरक्षित जिंदगी बितानी होगी और न ही वे हाशिये पर या तिरस्कृत रहेंगे. राष्ट्रीय नीति का लक्ष्य वृद्धजनों का कल्याण है. इसका उद्देश्य है समाज में इन लोगों की वैध स्थिति मजबूत बनाना और इनकी जिंदगी को उद्देश्यपूर्ण, सम्मानजनक एवं शांतिपूर्ण बनाना. हमारे देश की राष्ट्रीय वृद्धजन नीति मानती है कि बुजुर्गों के हित में एक निश्चित कार्यक्रम की आवश्यकता है.

हमें सुनिश्चित करना है कि बुजुर्गों के अधिकारों का हनन नहीं हो तथा उन्हें उचित अवसर एवं बराबरी मिले. हमारे संविधान में वृद्ध व्यक्तियों की भलाई को अनिवार्य किया गया है. अनुच्छेद 41 (राज्य नीति का एक निर्देशक सिद्धांत) ने निर्देश दिया है कि राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के भीतर वृद्धावस्था के मामलों में सार्वजनिक सहायता के अधिकार को हासिल करने के लिए प्रभावी प्रावधान करेगा.

वृद्धों की उपेक्षा केवल सरकार द्वारा ही नहीं की जाती है, बल्कि उस परिवार, जहां वे रहते हैं, में भी वे प्राय: उपेक्षा के शिकार होते पाये जाते हैं. ‘बुढ़ापे की लाठी’ मुहावरा तो प्राचीन काल में गढ़ा गया था. वर्तमान में आते-आते देखा गया है कि प्राय: यही संतान अपने वृद्ध माता-पिता पर ही लाठी भांजने लग जाती है. ज्यादातर मामलों में जिन संतानों को पाल-पोस कर पल्लवित और शिक्षित करने में उन माता-पिता ने अपना सर्वस्व दिया होता है,

उम्र के शीर्ष पर पहुंच कर वे उन्हीं पुत्र-पुत्रियों से हिकारत प्राप्त करने लग जाते हैं. विभिन्न सर्वे में प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि रोगी माता-पिता की उपेक्षा में बेटे ज्यादा अग्रणी रहते हैं, बेटियों का ग्राफ इस मामले में अधिक बेहतर है. जहां माता-पिता वित्तीय रूप से निर्बल या अक्षम होते हैं, उपेक्षा का यह प्रतिशत वहां और ज्यादा बड़ा हो जाता है.

इस दिशा में वैसे तो संसद ने वृद्धजन कानून ‘माता- पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण तथा कल्याण अधिनियम, 2007’ के नाम से पारित किया है और सरकार ने इसे लागू कर रखा है, लेकिन दूसरे कानूनों की भांति इसका भी विधिवत पालन नहीं हो पाता है.

इस कानून का अनुपालन न करने और माता-पिता की उपेक्षा करने की स्थिति में संतानों के विरुद्ध आर्थिक जुर्माना और कारावास की सजा का प्रावधान है, लेकिन अनेक कष्टों में रहने के बावजूद संवेदना और भावना में डूबे माता-पिता प्राय: इसकी शिकायत करने से कतराते हैं. वर्ष 2015 से लेकर अब तक इस कानून के तहत देश भर में कुल 20,015 केस दर्ज हुए, लेकिन ज्यादातर मामलों में माता-पिता ही अंतिम समय में संकोचवश पीछे हट गये. इस कारण सिर्फ 1649 मामलों में ही सजा हो सकी है.

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