लोकतांत्रिक मूल्यों को दबाने के लिए लगा था आपातकाल
आजादी के बाद देश में ऐसी पहली परिघटना घटी थी. इसके चलते लोगों में उबाल था. उन्हें लग रहा था कि बड़े संघर्षों एवं बलिदानों से हासिल की गयी आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों को दबाने के लिए तथा अपनी सत्ता को बचाने के लिए इंदिरा गांधी आपातकाल का सहारा ले रही हैं. यह बात उस संदर्भ में एक हद तक सही भी थी.
लोगों में और सियासी विश्लेषकों के बीच यह गलतफहमी है कि आपातकाल किसी आंदोलन या संघर्ष के दबाव में आकर खत्म किया गया था. यह सच नहीं है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की यह अपनी सोच थी. उन्होंने अपने अनुभव से इसे दुरुस्त किया था. दरअसल आपातकाल वापस लेने की कुछ और वजहें थीं. इनमें एक था यूरोप के विद्वानों का दबाव. दरअसल, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से यूरोप के विद्वानों से नजदीकी संबंध थे. वे उदारवादी विचारधारा से प्रभावित थे. कई यूरोपीय विद्वानों ने कहा कि वे भारत में कैसे आ सकते हैं, जब जयप्रकाश जैसे लोग जेल में बंद हैं. सरकार इन सब बातों से दबाव में आने लगी. इस बीच इंदिरा गांधी भी महसूस करने लगी थीं कि लोकतंत्र के इस दौर में उनसे कुछ गलत हुआ है. लिहाजा, उन्होंने बिना किसी की राय के आपातकाल को वापस ले लिया. इस बात का उल्लेख वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में किया भी है. दरअसल, इंदिरा गांधी की पृष्ठभूमि लोकतांत्रिक ही थी. उनके पिता और लगभग पूरा परिवार लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए आंदोलन करने वालों में शुमार था. संभव है कि उन्हें अंदर से लगा कि उन्हें लोकतांत्रिक राह ही अपनानी होगी.
जहां तक लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में किये गये आंदोलन का सवाल है, तो आपातकाल लगाने के बाद विरोधी नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया था. बाहर ऐसा कोई आंदोलन नहीं था, जिससे ऐसा लगे कि वह कोई खास हो. नेताओं को जेल में रखा गया था. हलचल भी थी, पर वह उतनी आक्रामक नहीं थी. जेपी और उनके सहयोगी सभी नेता जेल में बंद थे. इस दौरान आपातकाल के विरोध में जेपी आंदोलन में सभी वर्ग और विचारधाराओं की ताकतें एकजुट थीं. आजादी के बाद देश में ऐसी पहली परिघटना घटी थी. इसके चलते लोगों में उबाल था. उन्हें लग रहा था कि बड़े संघर्षों एवं बलिदानों से हासिल की गयी आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों को दबाने के लिए तथा अपनी सत्ता को बचाने के लिए इंदिरा गांधी आपातकाल का सहारा ले रही हैं. यह बात उस संदर्भ में एक हद तक सही भी थी.
चंडीगढ़ के पीजीआइ में जयप्रकाश नारायण को और कई अन्य नेताओं को बंद रखा गया था. मेरे पिता रामानंद तिवारी भी वहीं कैद में थे. उन्हें कैंसर था. यहां का एक वाकया अहम रहा कि जयप्रकाश जी वहां उपवास करना चाह रहे थे. इस संबंध में जेल प्रशासन ने सरकार से पूछा. इसके जवाब में इंदिरा गांधी ने कहलवा दिया कि वे उपवास नहीं करें. जहां आंदोलन के लोगों को रखा गया था, वहां की चारदीवारी काफी ऊंची कर दी गयी थी ताकि बाहर के लोग वहां कुछ भी न देख सकें. उल्लेखनीय है कि जेपी ने यहीं पर अपनी दो प्रमुख कविताएं भी लिखी थीं. इस दौरान उनकी किडनी खराब होने लगी. बाद में उनके शुभचिंतकों ने डायलिसिस मशीन खरीदने के लिए चंदा किया, जिससे मशीन लायी गयी. तब पहली बार किडनी के इलाज के लिए लायी गयी मशीन देखी गयी थी. बहरहाल, यह रेखांकित करना आवश्यक है कि आंदोलन के खिलाफ नहीं, इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक मजबूरी के चलते आपातकाल लगाया था. लोगों को यह गलतफहमी है कि आपातकाल जेपी आंदोलन के खिलाफ में लगाया गया था. सच्चाई यह है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपना मुकदमा हार गयीं. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने फैसले में माना कि इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया है. यह जन-प्रतिनिधित्व कानून का पूर्णत: उल्लंघन था. अदालत ने अपने आदेश में इंदिरा गांधी को जन-प्रतिनिधित्व कानून के प्रावधानों के तहत किसी भी निर्वाचित पद पर रहने से रोक दिया था. उस मामले में उच्च न्यायालय ने यह फैसला भी दिया था कि वे सदन में उपस्थित तो हो सकती हैं, लेकिन उन्हें वोटिंग करने का अधिकार नहीं होगा. राजनीतिक तौर पर इन विषम परिस्थितियों में इंदिरा गांधी ने सिद्धार्थ शंकर रे और दूसरे करीबी लोगों से विचार-विमर्श कर देश में आपातकाल की घोषणा कर दी. इस संबंध में बड़े हैरत की बात यह रही थी कि आपातकाल लगाने के बाद इसके लिए कैबिनेट से मंजूरी ली गयी थी.
दरअसल, सत्तर के दशक के मध्य में यह वह दौर था, जब सूचना का माध्यम केवल सरकारी था. एक-दो अखबारों को छोड़ दें, तो अधिकतर अखबारों की बिजली काट दी गयी थी ताकि केंद्र सरकार के दमनकारी निर्णयों एवं उपायों की सही-सही जानकारी लोगों तक न पहुंच सके. मैंने आपातकाल के संदर्भ में एक बात और नोटिस की. यह बात आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में से आयी. उस चुनाव में उत्तर भारत ने कुछ और जनादेश दिया था और दक्षिण भारत का जनादेश उसके ठीक विपरीत रहा था. उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस बहुत बुरी तरह हारी थी, लेकिन दक्षिण भारत के मतदाताओं ने कांग्रेस का साथ दिया था. स्वाभाविक रूप से यह बड़ा ही विस्मयकारी जनादेश था. हालांकि इसके मायने समझे जा सकते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)